तेरे लिए रिदा हूँ मैं,
और तेरी ही 'अदा' हूँ
इस रचना को निहारती रह गई मैं
पढ़ना भी है ....होश ही नहीं
सो आज की शुरुआत 'अदा' से
लिपट तेरे पहलू से, अब सोना चाहती हूँ
तुझे लापता करे जो, मैं ही वो तूफाँ हूँ
तेरी-मेरी ज़िन्दगी, हो गई अब मुकम्मल
तेरे लिए रिदा हूँ मैं, और तेरी ही 'अदा' हूँ
प्रेम में पगी
हिरनी सी आँखें ,
ठिठक जाती हैं
देख कर ,
उसकी आँखों में
एक हिंसक पशु ,
सागर का खारापन
सरिता का घुलता अस्तित्व,
हारी सरिता
हठ पर उतर आयी
ढेर सारी बधाइयाँ..............
अनुभूति की अनुगूंज ...
अनुभुति की अनुशंसा ...
अनुभुति की अनुकृति ...
ऐसे ही बह चली ....
अनुभुति की सुकृति ....
बदले हुए चेहरे हैं बदली हुई चालें हैं
सहमे हुए मकाँ हैं बैचैन शिवाले हैं
खामोश रो रहीं हैं मस्ज़िद की अजानें
मंदिर की घंटियों की आवाज़ पे ताले हैं
हर एक पल पर अंकित कर दें
साँसों के हस्ताक्षर
परिवर्तन कहीं हमारे चिह्नों पर
स्याही न फेर दे
साथ ही
जिंदगी के दस्तावेजों पर
लौ दीप का अस्थिर कर जाता है
जब एक हवा का झोंका आता है
पल भर को तम होता लेकिन
फिर त्विषा से वो भर जाता है
इस दीप की है कुछ बात अलग
यह दीप नहीं बुझ पाता है
मेरे ज़ेहन में है एक तस्वीर...
जो अभी बनानी बाकी है...!
और बचे हैं कुछ
फैले फैले से ज़ज्बात...
कुछ उड़े उड़े से ख़यालात...
ये पन्ने ........
सारे मेरे अपने -:
वो बूढा पीपल बहुत उदास है --
और मै भी:
वक्त अपने हाथ का जब आइना दिखलायेगा
कोई चेहरा गुनगुनायेगा कोई शरमायेगा ॥
इस गलत फहमी में रहना है सरासर खुदकुशी
कि आदमी के वास्ते यह वक्त ही थम जायेगा ॥
! अंतिम लक्ष्य !
लक्ष्य विहीन
किस पथ पर क्लांत !
प्रबाध है तू गतिमान ?
कहाँ जा रही हो
बोलो ना बाबा
अगर कुछ है तो.........
ये तीन पंक्तियाँ गूँज रही हैं आज भी
मेरे कानों में
तुम्हारी आवाज़ बनकर
जब भी मैं सोची कि ज़िन्दगी में भला अब क्या बदलाव होगा ....
तो ज़िन्दगी ने अपना अंदाज ही बदल डाला ....
थमी-ठहरी है जिंदगी
गृहस्वामी ने रखा ,अपने जिम्मे दहलीज़ के बाहर के काज
आदत का लेकिन कहाँ होता है कोई इलाज़
कवि ह्रदय में बजते है
जज्बातों के चंग
कलम जरा टेक लगाओ .
तनिक जोर-आजमाईश तुम भी कर लो,
फिर देखें, बनाते हो या बनते हो एप्रिल-फूल खुद यारा ?
वो इतने भी मुलायम नहीं हैं 'उदय', कि - दबाने से दब जाएँ
पर, गर, खुद उनकी ही मंसा हो, तो फिर हम क्या कहें ???
सियासत आज की देखो ज़ब्तशुदा है ,
हर पार्टी ही रखे करिश्माई अदा है .
औलाद कहीं बेगम हैं डोर इनकी थामे ,
जम्हूरियत इन्हीं के क़दमों पे फ़िदा है .
बदलती फ़ितरत है इन शब्दों की,,
गर्व से निकले तो अहंकार,
मन से निकले तो ममता का आकार ,,,
शब्दों से ही तो बयां करे हम प्यार,
मैं 'गांव' हूं,
पर वक्त की मार से,
बदल रहा हूं हर पल,
पल-पल खो रहा हूं,
अपना अस्तित्व,
मेरी तालाबों पर,
बन गए हैं महल,
नयन झुकाए मोहिनी, मंद मंद मुस्काय ।
रूप अनोखा देखके, दर्पण भी शर्माय ।।
नयन चलाते छूरियां, नयन चलाते बाण ।
नयनन की भाषा कठिन, नयन क्षीर आषाण ।।
शेरगा's......................
इन आँखों में समेट लो कायनात की रंगीनिया
कर जाओ भेंट दूर हो अंधकार की संगीनियाँ
अंत कर दो द्वेष, भेद और नफ़रत के तमस का,
लुत्फ़ थोड़ा सा उठा के, देखिये तो प्रेम-रस का।
हो प्रीत अर्पण में सराबोर, यह सृष्टि कण-कण,
पाले न कोई मन ज़रा,एक कतरा भी हबस का।
आज तुम नहीं हो तो
क्या सूरज नहीं निकला ,
पर उसमे वो चमक ही कहाँ ..........
आज तुम नहीं हो तो क्या फूल नहीं खिला ,
पर उसमे वो महक ही कहाँ ........
रदीफों-काफ़ियों को, जो इशारों पर नचाता है
ग़ज़लग़ो ग़ज़ल लिखने के, सलीके को बताता है
देखकर जाम-ओ-मीना, फसल शेरों की उगती है
मिलाकर दाल-चावल शान से खिचड़ी पकाता है
क्या तुमसे बयां करूँ
सबब-ए-हिज्र हमनफस,
पैरों में तेरे बेडियाँ हैं और
हाथ मेरे बंधे हुए |
आज बस इतना ही
फिर मिलूँगी बुधवार को
दीजिये इजाजत
सादर....
यशोदा
सुनिये ये गीत...
ये लो मैं..लाई..पूरे सात गीत
और तेरी ही 'अदा' हूँ
इस रचना को निहारती रह गई मैं
पढ़ना भी है ....होश ही नहीं
सो आज की शुरुआत 'अदा' से
लिपट तेरे पहलू से, अब सोना चाहती हूँ
तुझे लापता करे जो, मैं ही वो तूफाँ हूँ
तेरी-मेरी ज़िन्दगी, हो गई अब मुकम्मल
तेरे लिए रिदा हूँ मैं, और तेरी ही 'अदा' हूँ
प्रेम में पगी
हिरनी सी आँखें ,
ठिठक जाती हैं
देख कर ,
उसकी आँखों में
एक हिंसक पशु ,
सागर का खारापन
सरिता का घुलता अस्तित्व,
हारी सरिता
हठ पर उतर आयी
ढेर सारी बधाइयाँ..............
अनुभूति की अनुगूंज ...
अनुभुति की अनुशंसा ...
अनुभुति की अनुकृति ...
ऐसे ही बह चली ....
अनुभुति की सुकृति ....
बदले हुए चेहरे हैं बदली हुई चालें हैं
सहमे हुए मकाँ हैं बैचैन शिवाले हैं
खामोश रो रहीं हैं मस्ज़िद की अजानें
मंदिर की घंटियों की आवाज़ पे ताले हैं
हर एक पल पर अंकित कर दें
साँसों के हस्ताक्षर
परिवर्तन कहीं हमारे चिह्नों पर
स्याही न फेर दे
साथ ही
जिंदगी के दस्तावेजों पर
लौ दीप का अस्थिर कर जाता है
जब एक हवा का झोंका आता है
पल भर को तम होता लेकिन
फिर त्विषा से वो भर जाता है
इस दीप की है कुछ बात अलग
यह दीप नहीं बुझ पाता है
मेरे ज़ेहन में है एक तस्वीर...
जो अभी बनानी बाकी है...!
और बचे हैं कुछ
फैले फैले से ज़ज्बात...
कुछ उड़े उड़े से ख़यालात...
ये पन्ने ........
सारे मेरे अपने -:
वो बूढा पीपल बहुत उदास है --
और मै भी:
वक्त अपने हाथ का जब आइना दिखलायेगा
कोई चेहरा गुनगुनायेगा कोई शरमायेगा ॥
इस गलत फहमी में रहना है सरासर खुदकुशी
कि आदमी के वास्ते यह वक्त ही थम जायेगा ॥
! अंतिम लक्ष्य !
लक्ष्य विहीन
किस पथ पर क्लांत !
प्रबाध है तू गतिमान ?
कहाँ जा रही हो
बोलो ना बाबा
अगर कुछ है तो.........
ये तीन पंक्तियाँ गूँज रही हैं आज भी
मेरे कानों में
तुम्हारी आवाज़ बनकर
जब भी मैं सोची कि ज़िन्दगी में भला अब क्या बदलाव होगा ....
तो ज़िन्दगी ने अपना अंदाज ही बदल डाला ....
थमी-ठहरी है जिंदगी
गृहस्वामी ने रखा ,अपने जिम्मे दहलीज़ के बाहर के काज
आदत का लेकिन कहाँ होता है कोई इलाज़
कवि ह्रदय में बजते है
जज्बातों के चंग
कलम जरा टेक लगाओ .
तनिक जोर-आजमाईश तुम भी कर लो,
फिर देखें, बनाते हो या बनते हो एप्रिल-फूल खुद यारा ?
वो इतने भी मुलायम नहीं हैं 'उदय', कि - दबाने से दब जाएँ
पर, गर, खुद उनकी ही मंसा हो, तो फिर हम क्या कहें ???
सियासत आज की देखो ज़ब्तशुदा है ,
हर पार्टी ही रखे करिश्माई अदा है .
औलाद कहीं बेगम हैं डोर इनकी थामे ,
जम्हूरियत इन्हीं के क़दमों पे फ़िदा है .
बदलती फ़ितरत है इन शब्दों की,,
गर्व से निकले तो अहंकार,
मन से निकले तो ममता का आकार ,,,
शब्दों से ही तो बयां करे हम प्यार,
मैं 'गांव' हूं,
पर वक्त की मार से,
बदल रहा हूं हर पल,
पल-पल खो रहा हूं,
अपना अस्तित्व,
मेरी तालाबों पर,
बन गए हैं महल,
नयन झुकाए मोहिनी, मंद मंद मुस्काय ।
रूप अनोखा देखके, दर्पण भी शर्माय ।।
नयन चलाते छूरियां, नयन चलाते बाण ।
नयनन की भाषा कठिन, नयन क्षीर आषाण ।।
शेरगा's......................
इन आँखों में समेट लो कायनात की रंगीनिया
कर जाओ भेंट दूर हो अंधकार की संगीनियाँ
अंत कर दो द्वेष, भेद और नफ़रत के तमस का,
लुत्फ़ थोड़ा सा उठा के, देखिये तो प्रेम-रस का।
हो प्रीत अर्पण में सराबोर, यह सृष्टि कण-कण,
पाले न कोई मन ज़रा,एक कतरा भी हबस का।
आज तुम नहीं हो तो
क्या सूरज नहीं निकला ,
पर उसमे वो चमक ही कहाँ ..........
आज तुम नहीं हो तो क्या फूल नहीं खिला ,
पर उसमे वो महक ही कहाँ ........
रदीफों-काफ़ियों को, जो इशारों पर नचाता है
ग़ज़लग़ो ग़ज़ल लिखने के, सलीके को बताता है
देखकर जाम-ओ-मीना, फसल शेरों की उगती है
मिलाकर दाल-चावल शान से खिचड़ी पकाता है
क्या तुमसे बयां करूँ
सबब-ए-हिज्र हमनफस,
पैरों में तेरे बेडियाँ हैं और
हाथ मेरे बंधे हुए |
आज बस इतना ही
फिर मिलूँगी बुधवार को
दीजिये इजाजत
सादर....
यशोदा
सुनिये ये गीत...
ये लो मैं..लाई..पूरे सात गीत