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आया सावन...शुकरवारीय हलचल।

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नमस्कार व शुभप्रभात...

आसमान में बादल छाये हैं...
कभी तेज बारिश हो जाती है...
आज तो आसमान में बादल भी गरज रहे हैं...
जो कह रहे हैं...
सावन आ गया है...

सावनआते ही मुझे अचानक आद्रणीय बच्चन जी की एक कविता याद आ गयी सोचा हलचल का आरंभ इस कविता से ही किया जाये...

 अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।
धरती की जलती साँसों ने
मेरी साँसों में ताप भरा,
सरसी की छाती दरकी तो
कर घाव गई मुझ पर गहरा,
है नियति-प्रकृति की ऋतुओं में
संबंध कहीं कुछ अनजाना,
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।
तूफान उठा जब अंबर में
अंतर किसने झकझोर दिया,
मन के सौ बंद कपाटों को
क्षण भर के अंदर खोल दिया,
झोंका जब आया मधुवन में
प्रिय का संदेश लिए आया-
ऐसी निकली ही धूप नहीं
जो साथ नहीं लाई छाया।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।
घन के आँगन से बिजली ने
जब नयनों से संकेत किया,
मेरी बे-होश-हवास पड़ी
आशा ने फिर से चेत किया,
मुरझाती लतिका पर कोई
जैसे पानी के छींटे दे,
औ' फिर जीवन की साँसें ले
उसकी म्रियमाण-जली काया।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।
रोमांच हुआ जब अवनी का
रोमांचित मेरे अंग हुए,
जैसे जादू की लकड़ी से
कोई दोनों को संग छुए,
सिंचित-सा कंठ पपीहे का
कोयल की बोली भीगी-सी,
रस-डूबा, स्वर में उतराया
यह गीत नया मैंने गाया।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।



इस रचना के बाद पेश है आप की प्यारी रचनाओं से सजी हलचल...
आँगन से कट गये नीम,बागों का नाम-निशान मिटा
रस्सी-डोरी के झूले, अब कहाँ लगायें सावन में।
मेघ-मल्हारों के गाने को, कभी न भूलें सावन में


भूगोल और पौराणिक रूप से कैलाश पर्वत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हैंइस पवित्र पर्वत की ऊंचाई 6714 मीटर है। और यह पास की हिमालय सीमा की चोटियों जैसे माउन्ट
एवरेस्ट के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता पर इसकी भव्यता ऊंचाई में नहीं, लेकिन अपनी विशिष्ट आकार में निहित है


चुभन है यह विरह की
दर्द कहाँ अल्फाजों में है
नश्वर होती  है  रूह
प्रेम समर्पण भाव में है


मैं उम्र की फसल काटती रही
मगर ब्याज है कि चुकता ही  नहीं
खुद से लडती हूँ बेवजह रोज ही
मगर सुलह का कोई दर दिखता ही नहीं


रास्ते तो करीब आ जाएं 
दूर कितना  मुकाम होता है 
रंजिशे तुम जहां कहीं पालो   
 मौन  उस पर  विराम  होता है


चला रसातल रूपिया, डालर रहा  डकार
बनता युवा अधेड़ सा, बहुरुपिया सरकार-
घूमे दाढ़ी बाल रंगाये ।
पर परिवर्तन नहीं सुहाए
 

देखिये तो पिताजीमाँ ने मुझे क्या दिया है!" बेटे के चेहरे पर ख़ुशी देखने के बाद माँ ने अपनी आँखें धीरे से बंद कर लीं।


वो मेरा साहिर वो एजाज़ कहाँ है लाना
मेरी खोई हुई आवाज़ कहाँ है लाना
मेरा टूटा हुआ वो साज़ कहाँ है लाना
इक ज़रा गीत भी इस साज़ पे गा लूँ तो चलूँ


अब मिलन की कामना है, कामना में सब उचित  है
ढेर से स्वपनों को जीवन,- दान देकर   जगमगा लो,
   प्रिय मुझे अपना बनालो


जाने  अनजाने, वे  भूलें , कुछ पछताए, कुछ रोये थे
हमने ही ,नज़रें फेरीं थीं , उसने तो, वफादारी की थी !
अब तो शायद,इस नगरी में,कोई न हमें,पहचान सके !
कुछ रोज,तुम्हारी बस्ती में,हमने भी सरदारी  की थी


तुम मिल गए थे मुझे युवावस्था की दहलीज़ पर पैर रखते ही ...जब युवतियां अपने भावी राजकुमार के सपनो में खोये रहती हैं तुम मिले मुझे ...पर तुम कहाँ मिले ...मिले तो तुम पापा को थे ..मुंबई में ...खुशकिस्मत रही हूँ बचपन से ही ...कभी माता पिता से फरमाईश नहीं करनी पड़ी ...अपनी मनपसंद हर चीज मिली बिना मांगे ही ...जाने कैसे जान गए मेरे दिल की बात


सागर से मिल नदी
मौन हो गयी

प्रेम में पागल थी
प्रेम में विलीन हो गयी


उन दिनों समाज में शायद सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ने
की न गुंजाइश होगी
और न ही इसकी संभावना दिखी होगी। बाद में अलग-अलग जगहों पर भले ही कई सांप्रदायिक संकीर्णताएं उभरीं, लेकिन ये जगह आज भी उसी समासिक संस्कृति
की वाहक बनने की परंपरा निभा रही है। ऐसा नहीं है कि जेएमपी कैंपस में अवस्थित होने के कारण यहां केवल जेएमपी के ही स्टाफ अराधना कर सकते हैं, बल्कि बाहर के
लोग भी यहां आते हैं। ऐसा प्रचलन भी उसी परंपरा का हिस्सा है


क्या सुनाएं मौत से उस साक्षात्कार के
नफरत में बह गए सब शब्द प्यार के
आफत की उस घडी में तो चोर ले उड़े
हर लाश की अंगुली से अंगुठी उतर के

आज बस इतना ही... मिलुंगा फिर अगले शुकरवार को... हलचल के एक और अंक के साथ...पर हलचल तो प्रतिदिन होगी...

धन्यवाद...




कुलदीप ठाकुर

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