अच्छा लगता है शनिवार,,,
पर कईयों को शुक्रवार सुहाता है
उनके यहाँ पाँच दिन का हफ्ता जो है
बाहर के लोग 'हैप्पी वीकेण्ड' कहते हैं
पर कईयों को शुक्रवार सुहाता है
उनके यहाँ पाँच दिन का हफ्ता जो है
बाहर के लोग 'हैप्पी वीकेण्ड' कहते हैं
पर एक ब्लागर 24X7 व्यस्त रहता है
चलिये देखें आज के अंक में क्या-क्या है
माना हर आँख में यहाँ अश्क़-ए-तिम्साह है,
शिआर-ए-मुसव्विर उकेरना खालिस निगाह है।
कूँची में भरे रंग बस कहते हैं यही सबसे,
ज़िंदगी का तो मकसद फैलाना रिफ़ाह है।
शिआर-ए-मुसव्विर उकेरना खालिस निगाह है।
कूँची में भरे रंग बस कहते हैं यही सबसे,
ज़िंदगी का तो मकसद फैलाना रिफ़ाह है।
मन ही आशा, मन विश्वास
मन ही आंसू, मन ही हास
मन ही बैरी ,मन ही मीत
मन ही धोखा, मन ही प्रीत
मन ही आंसू, मन ही हास
मन ही बैरी ,मन ही मीत
मन ही धोखा, मन ही प्रीत
हर लो सारे पुण्य पर, यह ‘वर’ दो भगवान
“बिटिया के मुख पे रहे, जीवन भर मुस्कान”
नयन, अधर से चल रहे, दृष्टि-शब्द के तीर
संयम थर-थर काँपता, भली करें रघुवीर
“बिटिया के मुख पे रहे, जीवन भर मुस्कान”
नयन, अधर से चल रहे, दृष्टि-शब्द के तीर
संयम थर-थर काँपता, भली करें रघुवीर
बहता पानी
विचारो की रवानी
हसीं ये जिंदगानी
सांझ बेला में
परिवार का साथ
संस्कारों की जीत .
विचारो की रवानी
हसीं ये जिंदगानी
सांझ बेला में
परिवार का साथ
संस्कारों की जीत .
तुम क्या दोगे साथ, किसी का कोई साथ नहीं देता है |
सच्ची है ये बात, किसी का कोई साथ नहीं देता है |
मतलब की यें बातें हमको आपस में जोड़े रखती हैं,
हरदम ये हालात, किसी का कोई साथ नहीं देता है |
दीवार पर टँगे
कैनवास के रंगों को
धूल की परतें
हल्का कर देती हैं
कुछ दिल की थीं अपनी रवायतें
कुछ ज़िन्दगी से थीं शिकायतें
चल तो दिये थे सफ़र में मगर
कुछ रुसवाइयों की थीं अपनी इनायतें
बनकर खुशी
कभी नहीं रहे तुम पास मेरे
जब भी महसूस किया
उमस भरी दोपहरी की तरह ही
मिले तुम
सोचती हूं, उलझना तो
चंचल मन की एक प्रक्रिया है
जो विचार शक्ति को कुंद करती है
मन को चिंतामग्न
और शिथिल करती है।
तुम्हारी गुलामी मैंने स्वीकारी
क्यूंकि तुम्हारी ख़ुशी इसी में थी....
और इसमें मेरा कुछ जाता नहीं था
बेशक बेड़ियों ने मुझे जकड़ रखा था मगर
रूह आज़ाद थी मेरी
और वक्त भी आज़ाद था...
उन लोगों ने मुझे -
मां की गाली दी.
पीठ पीछे नहीं,
मुंह पर.
मैं बुद्ध बन गया,
ज्ञानी अज्ञानी यथा, साधू और असाधु,
छोट-बड़े पहचानिए, जब हो वाद-विवाद |
जब हो वाद-विवाद , शांत चित चर्चा भावै,
सुन आलोचना स्वयं. कोप नहीं मन में लावे |
कहें श्याम' ते ऊँच, वो ही सज्जन हैं ज्ञानी ,
रहि न सकें जो शांत, ते अभिमानी अज्ञानी ||
जगजननी
धरती की पुकार
वृक्षारोपण
लक्ष्य क्या जो खोजते हम दौड़ते हैं।
है कहाँ ये आज तक ना जानते हैं ।।
ढूंढ साधन, साधने को लक्ष्य सोंचा
ना सधा ये, सब स्व को ही रौंदते हैं।
मैंनें
कागज पर लकीरें खींची
डाल बनायी
पत्ते बनाये
अब कागज पर
चित्रलिखित सा पेड़ खड़ा है
खूंटी पर टंगा
हंसता है विश्वास
चौंक जाती धरा भी
देख खुदाया !
तेरे किये हक़ औ'
नसीबों के हिसाब ...!
मेरे बेज़ार होने से तुम्हें क्या फ़र्क़ पड़ता है
तड़पने और रोने से तुम्हें क्या फ़र्क़ पड़ता है
हमीं नादां थे जो तुमको बनाया नाख़ुदा अपना
मेरी कश्ती डुबोने से तुम्हें क्या फ़र्क़ पड़ता है
आँखें बंद करके नज़रें क्यों चुराई तुमने?
खोल कर चुराते तो भी न शिकायत होती .
कब क्या चाहा है तुमसे मुहब्बत ने मेरी?
बस याद करने की मुझे इजाजत तो होती .
भावुकता स्नेहिल ह्रदय ,दुर्बलता न नारी की ,
संतोषी मन सहनशीलता, हिम्मत है हर नारी की .
भावुक मन से गृहस्थ धर्म की , नींव वही जमाये है ,
पत्थर दिल को कोमल करना ,नहीं है मुश्किल नारी की.
जिन राहों पर फूल बिछे हो ...
उन राहों का मैं क्या करूँ ....
काँटों पर चल कर ना पाऊं ...
वो प्रगति का मैं क्या करूँ ...
सारा रचना संसार
सारे शब्द भाव उड़ जाते हैं
शब्द सृजन की ऐसी की तैसी हो जाती है
दूसरी रात आने तक
बारिश की बूँदों यहाँ बरस लो, बेशर्मी से बार बार,
खाली हो जाना अबकी, हो चुकी अगर हो शर्मसार…
पत्थर रोये धरती रोई, बर्फ शर्म से ऐसी पिघली,
जल जीवन कहने वालों को, मौत दिखाई इतनी उजली…
अभी और भी है लिंक्स पर
कभी - कभी ऐसा लगता है
कि अब बस भी कर
मिलते हैं फिर
यशोदा
सच्ची है ये बात, किसी का कोई साथ नहीं देता है |
मतलब की यें बातें हमको आपस में जोड़े रखती हैं,
हरदम ये हालात, किसी का कोई साथ नहीं देता है |
दीवार पर टँगे
कैनवास के रंगों को
धूल की परतें
हल्का कर देती हैं
कुछ दिल की थीं अपनी रवायतें
कुछ ज़िन्दगी से थीं शिकायतें
चल तो दिये थे सफ़र में मगर
कुछ रुसवाइयों की थीं अपनी इनायतें
बनकर खुशी
कभी नहीं रहे तुम पास मेरे
जब भी महसूस किया
उमस भरी दोपहरी की तरह ही
मिले तुम
सोचती हूं, उलझना तो
चंचल मन की एक प्रक्रिया है
जो विचार शक्ति को कुंद करती है
मन को चिंतामग्न
और शिथिल करती है।
तुम्हारी गुलामी मैंने स्वीकारी
क्यूंकि तुम्हारी ख़ुशी इसी में थी....
और इसमें मेरा कुछ जाता नहीं था
बेशक बेड़ियों ने मुझे जकड़ रखा था मगर
रूह आज़ाद थी मेरी
और वक्त भी आज़ाद था...
उन लोगों ने मुझे -
मां की गाली दी.
पीठ पीछे नहीं,
मुंह पर.
मैं बुद्ध बन गया,
ज्ञानी अज्ञानी यथा, साधू और असाधु,
छोट-बड़े पहचानिए, जब हो वाद-विवाद |
जब हो वाद-विवाद , शांत चित चर्चा भावै,
सुन आलोचना स्वयं. कोप नहीं मन में लावे |
कहें श्याम' ते ऊँच, वो ही सज्जन हैं ज्ञानी ,
रहि न सकें जो शांत, ते अभिमानी अज्ञानी ||
जगजननी
धरती की पुकार
वृक्षारोपण
लक्ष्य क्या जो खोजते हम दौड़ते हैं।
है कहाँ ये आज तक ना जानते हैं ।।
ढूंढ साधन, साधने को लक्ष्य सोंचा
ना सधा ये, सब स्व को ही रौंदते हैं।
मैंनें
कागज पर लकीरें खींची
डाल बनायी
पत्ते बनाये
अब कागज पर
चित्रलिखित सा पेड़ खड़ा है
खूंटी पर टंगा
हंसता है विश्वास
चौंक जाती धरा भी
देख खुदाया !
तेरे किये हक़ औ'
नसीबों के हिसाब ...!
मेरे बेज़ार होने से तुम्हें क्या फ़र्क़ पड़ता है
तड़पने और रोने से तुम्हें क्या फ़र्क़ पड़ता है
हमीं नादां थे जो तुमको बनाया नाख़ुदा अपना
मेरी कश्ती डुबोने से तुम्हें क्या फ़र्क़ पड़ता है
आँखें बंद करके नज़रें क्यों चुराई तुमने?
खोल कर चुराते तो भी न शिकायत होती .
कब क्या चाहा है तुमसे मुहब्बत ने मेरी?
बस याद करने की मुझे इजाजत तो होती .
भावुकता स्नेहिल ह्रदय ,दुर्बलता न नारी की ,
संतोषी मन सहनशीलता, हिम्मत है हर नारी की .
भावुक मन से गृहस्थ धर्म की , नींव वही जमाये है ,
पत्थर दिल को कोमल करना ,नहीं है मुश्किल नारी की.
जिन राहों पर फूल बिछे हो ...
उन राहों का मैं क्या करूँ ....
काँटों पर चल कर ना पाऊं ...
वो प्रगति का मैं क्या करूँ ...
सारा रचना संसार
सारे शब्द भाव उड़ जाते हैं
शब्द सृजन की ऐसी की तैसी हो जाती है
दूसरी रात आने तक
बारिश की बूँदों यहाँ बरस लो, बेशर्मी से बार बार,
खाली हो जाना अबकी, हो चुकी अगर हो शर्मसार…
पत्थर रोये धरती रोई, बर्फ शर्म से ऐसी पिघली,
जल जीवन कहने वालों को, मौत दिखाई इतनी उजली…
अभी और भी है लिंक्स पर
कभी - कभी ऐसा लगता है
कि अब बस भी कर
मिलते हैं फिर
यशोदा