नमस्कार....
कुछ तो पुण्य किया होगा मैंनें..
जो अर्धांगिनी की सेवा का अवसर मिला मुझे
खैर जो भी हो...
काफी कुछ सीखा मैंने उससे....
उसी की बदौलत मैं यहाँ हूँ...
समय की उपयोगिता को समझते हुए
चलें आज के लिंक्स की ओर....
गीली मिट्टी को मुट्ठी में भर लेना.
उनके यकीन पर यूं निशां कर लेना.
तुझसे ही वजूद है मेरा,
इस जमाने में !
कभी चुपके से आओ
मेरे आशियाने में !!
सर्द हवाएं है
धवल चादर
ठिठुरी वादी |
ज़िन्दगी भर की अपनो की दी हुयी
कुंठा, पीडा ,बेचैनी, घुटन , तिरस्कार
उपेक्षा, दर्द , मजबूरी , विषमता
अकेलेपन की त्रासदी का जब जमावडा होता है
ज़िन्दगी मिल गयी...जीना तो अभी बाकी है....
बहुत हैं क़र्ज़...उतरना तो अभी बाकी है....!
जिंदगी की दूरी तो वो बढ़ा ही रही थी
फिर दिल की दूरियां क्यूँ उन्होने बढ़ा दी
मेरे नसीब, मेरी मुफ़लिसी की बातों से
निकल गए हैं शबो-सहर मेरे हाथों से
हमारे हैं तो हर सफ़र में साथ-साथ चलें
सुकूं उन्हें न हमें चंद मुलाक़ातों से
कश्तियाँ
जब लग रहीं हों किनारे
तब मझधार को याद कर
नहीं शोक मनाना...
और अंत में एक हरदम ताजा दिखने वाले पुराने अखबार के साथ
विदा मांगता है दिग्विजय अग्रवाल
एक जिंदा कवि
कुछ कोशिश करके
जैसे लाशों को जगाता है
चौथे पन्ने पर
थपलियाल जी का लेख
"चरित्रहीन शिक्षक कैसे
गढ़ सकेगा अच्छा समाज"
जैसे मुँह चिढ़ाता है
कुछ तो पुण्य किया होगा मैंनें..
जो अर्धांगिनी की सेवा का अवसर मिला मुझे
खैर जो भी हो...
काफी कुछ सीखा मैंने उससे....
उसी की बदौलत मैं यहाँ हूँ...
समय की उपयोगिता को समझते हुए
चलें आज के लिंक्स की ओर....
गीली मिट्टी को मुट्ठी में भर लेना.
उनके यकीन पर यूं निशां कर लेना.
तुझसे ही वजूद है मेरा,
इस जमाने में !
कभी चुपके से आओ
मेरे आशियाने में !!
सर्द हवाएं है
धवल चादर
ठिठुरी वादी |
ज़िन्दगी भर की अपनो की दी हुयी
कुंठा, पीडा ,बेचैनी, घुटन , तिरस्कार
उपेक्षा, दर्द , मजबूरी , विषमता
अकेलेपन की त्रासदी का जब जमावडा होता है
ज़िन्दगी मिल गयी...जीना तो अभी बाकी है....
बहुत हैं क़र्ज़...उतरना तो अभी बाकी है....!
जिंदगी की दूरी तो वो बढ़ा ही रही थी
फिर दिल की दूरियां क्यूँ उन्होने बढ़ा दी
मेरे नसीब, मेरी मुफ़लिसी की बातों से
निकल गए हैं शबो-सहर मेरे हाथों से
हमारे हैं तो हर सफ़र में साथ-साथ चलें
सुकूं उन्हें न हमें चंद मुलाक़ातों से
कश्तियाँ
जब लग रहीं हों किनारे
तब मझधार को याद कर
नहीं शोक मनाना...
और अंत में एक हरदम ताजा दिखने वाले पुराने अखबार के साथ
विदा मांगता है दिग्विजय अग्रवाल
एक जिंदा कवि
कुछ कोशिश करके
जैसे लाशों को जगाता है
चौथे पन्ने पर
थपलियाल जी का लेख
"चरित्रहीन शिक्षक कैसे
गढ़ सकेगा अच्छा समाज"
जैसे मुँह चिढ़ाता है