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गर शब्द बंद हो सकते होते किसी लॉकर में तो लोग सहेज कर रखते.....बुधवार का अंक

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आदमी जो भी करता है
अपनी इच्छा से ही करता है
पर वो इस बात का ख्याल रखता है
कि वो जो भी कुछ कर रहा है

वो किसी के हित में ही है....

चलिये चलें कुछ काम करें.....


अपनी इच्छा से
नहीं कर लेना
चाहता है बिजली
गुल कोई कभी
बहुत देर के लिये
पर बिजली आदमी
तो नहीं होती है 



गर शब्द
बंद हो सकते होते
किसी लॉकर में
तो लोग सहेज कर रखते



एक मुठी ख्वाहिशें
संकोची जिगर
और तुम्हारी देहरी
चली आई थी हाथ तुम्हारा थामे 



मुझे तेरी किसी बात पे भरोसा नहीं रहा ,
वादा-ए-मुलाक़ात पे भरोसा नहीं रहा ,
तू कहता है बदल गए अब हालात सारे,
और मुझे अब किसी हालात पे भरोसा नही रहा !



मिल-जुल कर हम रहना सीखें,
सब की इज्जत करना सीखें,
जिंदगी अकेले जीने का नाम नहीं है यारों,
सब को साथ लेकर जीना सीखें। 



इक हसीन हादसे का वो शिकार है
कह रहे हैं लोग सब की वो बीमार है
शाल ओढ़ के ज़मीं पे चाँद आ गया
आज हुस्न पे तेरे गज़ब निखार है



दिल  दें  न  दें  हमें  वो:  ये:  मुद्द'आ  नहीं  है
लेकिन  नज़र  में  उनकी  शायद  वफ़ा  नहीं  है
क्या  ढूंढते   हैं   यां-वां  जो  चाहिए   बता  दें
हालांकि  हमको  दिल  का  ख़ुद  भी  पता  नहीं  है



सब कहते हैं मैं जी सकती हूं बिन तुम्हारे भी
अब तुम ही सबको हमारे वज़ूद से रूबरू करवा दो ना !!



इस अंक का समापन एक ग़ज़ल की इन पंक्तियों के साथ
मेरी सब-कुछके ब्लाग से
वो रंग भी उड़े जो नज़र में न थे कभी
वो ख्वाब भी लुटे जो करीने-कयास थे



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