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Channel: भूले बिसरे-नये पुराने
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सोचना तो पड़ेगा ही आखिर....

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हलक से हलाक तक पहुंच रही है जनता ..और नेता ...फर्श से अर्श पर ,,देश का अन्नदाता ..किसान भूखो मरने के कगार पर और... खाद्य योजना हवा में उड़ रही हैं ...घरेलू
उद्योग के सियापे पड़े हैं और टेलीविजन पर निर्माण की नौटंकी ..सातवे आसमान पर ..वाह रे हिन्दुस्तान ..तेरी किस्मत ..जिसकी औलादे ही माँ को नोचकर खाने के बाद
बेच कर भी खाना चाहती हो ..मेड ही खेत खा रही हो तो ....और जमीं बदली न जा सके तो माली बदल देना ही उचित है .क्यूंकि आजादी के सातवे दशक में भी सबसे अधिक सत्ता
पर काबिज लोग आज भी विकास का सिर्फ सपना ही दिखा रहे हैं ...किसान की हत्या का जिम्मेदार कौन है आखिर ...ये योजनाये बनाता कौन है भला ..चुनाव के वक्त कर्मचारियों
को डी ए ,टी ए बढ़ाकर खुश कर देते हैं ..और फिर पांच साल तक लूट मचाते हैं ,,,सैकड़ो के लाखों नहीं करोड़ो हो गये और गरीब और भी गरीब ...ये गरीबी हटायेंगे या गरीब
को .. सोचना तो पड़ेगा ही आखिर

यह आशिकी, है आशिकी लैला मजनूं से अलेहिदा 
इस आशिकी को ना दो दुआ, पर बद-दुआ ना दो 
ये तजुर्बा जरूरी है बहुत जीवन की समझ को
डूबने का असर जान लूं, नाखुदा ना दो 

और मैं
देखता दूर से, तुझे
तेरी रोशनी में
चाँद को


कुछ विद्वान बताते हैं कि यह प्रथा तब शुरू हुई जब 400 साल पहले उत्तर-पश्चिम पाकिस्तान के दो पश्तून कबीलों के बीच खूनी संघर्ष हुआ। इस लड़ाई में सैकड़ो मारे
गये थे। वहाँ के नवाब ने उन कबीलों के बुजुर्गों की बैठक (जिर्गा) बुलायी। जिर्गा ने फैसला किया कि जिन मर्दों ने हत्या का अपराध किया है उसकी सजा के तौर पर
उन्हे अपनी लड़कियाँ विपक्षी कबीले को देनी होंगी। तभी से यह कुप्रथा चल निकली जिसमें इन कबीलों और देहाती जिर्गा द्वारा चार से चौदह साल तक की कुँवारी (Virgin)
लड़कियों का इस्तेमाल उनके घर के मर्दों द्वारा हत्या और खून-खराबा जैसे अपराध की सजा चुकाने के लिए किया जाने लगा। खून के बदले खून की यह न्याय व्यवस्था पाकिस्तान
के पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान, सरहद और कबायली इलाकों में यत्र-तत्र प्रचलित है


बढ़ता जाता विष वृक्ष, अमर बेल की भांति है,
कब काटोगे जड़ से इसको, पूछ यही सवाल रहे ?
मानवता को धर्म बनालो, कुर्सी को सेवा आधार,
राष्ट्र धर्म बने जब प्रमुख, नहीं कभी मलाल रहे|

मेरे ख़्यालों में तू आज तलक़ कायम है
मेरी तरह तुझे भी न आया जुदा होना
क़िस्मत में जो लिखा है वो मिलकर रहेगा
इस बार नहीं तो तय अगली मर्तबा होना

कुछ नहीं लिखना
नहीं लिखने वाले
की मजबूती का
पता जरूर देता है
लिखने से ज्यादा
अच्छा होता है
कुछ करना
      कहीं हर तरफ नफरत है पल रही।
      इनसानी वसूलों की बलि है चढ़ रही।।
खतरों के हर तरफ इमकान हो गये।
ये देख कर हम तो हैरान हो गये।।
इनसान से बढ़ कर पैसा हो जहां।
      कैसे कोई अजमत बचायेगा वहां।।
इनसान तो धरती के भगवान हो गये।
जो मुफलिस हैं और भी हलकान हो गये






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