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कल दहन होगा...होलिका का..शनिवारीय अंक की प्रस्तुति

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तुम मुझे बहुत अपने से लगते हो ,
बंद है मुट्ठी मेरी,
सम्बल  है मेरे पास तुम्हारा....अनु दीदी की कलम से


चलते हैं आज की हलचल की ओर......
जो छोटी सी है.....
बड़ी हलचल तो बाहर हो रही है.... होली की



अपने ही भीतर ढूंढती हूँ खुशी जब ,
तुम मुझे बहुत अपने से लगते हो ,
बंद है मुट्ठी मेरी,
सम्बल  है मेरे पास तुम्हारा ,


सुकूँ की नींद, सोने की, है हसरत जागी
मिलन की आस, फिर मन को, है लागी
आ जाओ, तुम सारे, बंधन को तोड़कर
न आ सको, तो ख्वाबों में, ही आ जाओ


आशाएं
ले कर आता है
नया दिन
यथार्थ की तेज धूप में
पिघल जाता है दिन


स्याही सी है ज़िन्दगी
लिखती मिटाती उकेरती
कुछ भी ये कह जाती
कागज़ों पर बसती ज़िन्दगी



हंसाने के बाद रुलाते हैं लोग
आकर करीब भूल जाते हैं लोग
देकर गम-ए-जुदाई का जख्म
अक्सर दिल जलाते हैं लोग



मीरा के साँवरे,
राधा के श्याम ,
यह तो बता दो
कौन हो तुम मेरे
पुकारूँ किस नाम से
ढूँढूँ किस धाम !



चांदी की थाली अबीर-रोली सजाई
माथे पे बिंदिया, काजल नैना रचाई



बाट जोहती
टेसू के रंग बना
रंगती उसे
गुलाल लिए साथ
कि फागुन आया रे |


एक निराशाभरी बात कि
“बुढ़ापे में अपने पास का पैसा,
पत्नी और पालतू कुत्ता ही साथ देता है,
बाकी सब छोड़कर चले जाते हैं"
हमारी आज की पारिवारिक विघटन
व्यथा बयां कर मन में
एक गहरी टीस उत्पन्न कर जाती है।

 
चलती हूँ आज...काफी काम है त्योहार का
मैं तो आज-कल कर नहीं सकती...
पर जो कर रही है..उसकी देखरेख
ज्यादा जरूरी है
आज्ञा दीजिये



 



 

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