आज एक मई
श्रमिक दिवस
पर आज के लिंक्स ...
उससे संबंधित कतई नहीं
कोशिश जारी है....
आज एक सोच मन मे आई
क्यूँ न समर्पित करूँ एक कविता
एक "मजदूर" को ...
पर उसके लिए
कविता/गीत/छंद/साहित्य
का होगा क्या महत्व ?
इक दिन मेहनतकश की दुनिया भी होगी
रोज़ देखते हैं ये सपना उनका क्या
दिन भर तोड़ा पत्थर लेकिन पाया क्या
टूटन, कुंठा, आँसू बहना उनका क्या
सुनो ..........
अपनी अपेक्षाओं के सिन्धुओ पर
एक बाँध बना लो
क्योंकि जानते हो ना
सीमाएं सबकी निश्चित होती हैं
चटकीली धूप, और गर्म हवा के झोंकों के बीच ,
अगर कुछ भाता है तो वो है,
मोगरे को छूकर आती हुयी,
सुबह-शाम की ठंडी हवा।।
पत्थरों का बगीचा देखता है स्वप्न
कि वह सुख की झील बन जाए
झील का स्वप्न है कि नदी बन बहती रहे
बैठकर कुछ पल
इंतजार के सूने पहलू मेँ,
सिसकती शाम गुजर गई
छोड़कर तन्हा सुसप्त
तन्हाईयां।
चन्द लमहा और गुजर जाती तो तेरा क्या जाता
ये रात गर तेरी खुश्बु ले जाती तो तेरा क्या जाता
प्यासी नजरों से कोइ देखे तो शिकायत ही क्यों ?
महफिल मे गर रौनक आजाती तो तेरा क्या जाता
तारों से और बात में कमतर नहीं हूँ मैं
जुगनू हूँ इस लिये कि फ़लक पर नहीं हूँ मैं
मियाँ मजबूरियों का रब्त अक्सर टूट जाता है
वफ़ाएँ गर न हों बुनियाद में, घर – टूट जाता है
बहाना नीद का कर यूँ ही सो गया हूँ कब्रिस्तान में
फुर्सत हो गर,फातिहा पढने मेंरे दर पर चली आना
गुफ्तगू खुद से करता रहूँगा कब्र में सोते हुए भी
गर हो सके,थमती साँसों की सदा सुनने चली आना
एक देश में एक राजा
गूंगा गुड्डा सा ,
नहीं चल सकता बिन सहारे
चलता भी तो कठपुतली सा ,
न मर्ज़ी से गर्दन घुमाता
बोल भी कहाँ पाता
मर्ज़ी से अपनी.........
यादों के लिए ये दिल बहुत छोटा है।
जब यादें सताती हैं ये बहुत रोता है।
सोचता था किसी दिन सब भूल जाऊँगा
मालूम नही है मुझे , ये कैसे होता है।
अदावत दिल में रखते हैं मगर यारी दिखाते हैं
न जाने लोग भी क्या क्या अदाकारी दिखाते हैं
यकीनन उनका जी भरने लगा है मेज़बानी से
वो कुछ दिन से हमें जाती हुई लारी दिखाते हैं
मैं
मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं
सीते !
........
मैंने तुम्हें
बल से हासिल किया,
प्रेम से नहीं.
कुल मिलाकर कहुँ तो
हिंदी ब्लॉगजगत से मुझे
अभिन्न आदर सम्मान मिला.
आज मेरे “सुज्ञ” ब्लॉग को
तीन वर्ष पूर्ण हुए.
इतना काल आप सभी के
अपूर्व स्नेह के बूते सम्पन्न किया.
सत्कार भूख ने इस प्रमोद को नशा सा बना दिया.
आजकल नींद नाराज हैं मुझसे
सिरहाने भी अब कोसने लगे हैं
वास्ता देते हैं मुझे तुम्हारी बाहों का
सपने भी अब मुझे टोकने लगे हैं
माँ मुझे तुमने
खेलने के लिये गुडि़या नहीं
बल्कि हथियार दिये होते
तो हर बुरी नज़र के उठने से पहले ही
मैने जाने उन पर कितने ही
वार किये होते !!
किसी के दिल के टुकड़े करके, जिसे कोई अफसोस नहीं है!
जिसको अपने अभिमान पर, तनिक भी कोई रोष नहीं है!
ऐसे लोग कहाँ दुनिया में, दे सकते हैं प्यार मनुज को,
जिनके मन में मानवता का, किंचित भर भी कोष नहीं है!
लगता तो था कि आज कहीं हम शायद नहीं उठ पायेंगे
सीने में वो जो दर्द उठा चलो उसको अजल कह देते हैं
क्या जाने कितने पत्थर सबने बरसाए हैं आज 'अदा'
मंदिर की जिन्हें पहचान नहीं वो रंग महल कह देते हैं
माँ तुम ना छोड़कर जाया करो
याद तुम्हारी बहुत आती है
सब खेलते हैं ख़ुशी से
लेकिन मेरी दिल में एक उदासी है
उसने कहा
आँखें तुम्हारी
सीप सी
और मैंने
मोती बरसा दिए !
उनकी गलियों में, पाँव रखने से पहले ज़रा सोच लेते
वो हिन्दोस्तां की तरह, तुम्हारे बाप की जागीर नहीं है ?
सच ! आज उन्ने, उनकी फोटो पे चैंप दी है गजब की कमेन्ट
ऐंसा लगता है 'उदय', फेसबुकिया मेट्रो में, है वीराना छाया ?
क्यों वक्त के साथ
ख्वाहिशों की कभी
उम्र नहीं बढती !
क्यों आँखों के सपने
बार-बार टूट कर भी
फिर से जी उठते हैं !
भटका भटका फिरता हूँ
गोया सूखा पत्ता हूँ
साथ जमाना है लेकिन
तनहा तनहा रहता हूँ
आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,
घ्रर अंधेरा देख तू आकाश के तारे न देख।
एक दरिया है यहां पर दूर तक फैला हुआ,
आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख।
फिर हमरी शादी हुई....
शादी में सब कुछ सबसे कम दाम का ही लिए ...
हमरे बाबूजी टीचर थे न.....
यही सोचते रहे इनका खर्चा कम से कम हो.....
खैर ...शादी के बाद हम ससुराल गए ...
सबकुछ बदल गया रातों रात,
टेबुलकुर्सी, जूता-छाता, लोटा, ब्रश-पेस्ट,
लोग-बाग, हम बहुत घबराए.....
एकदम नया जगह...नया लोग....
हम कुछ नहीं जानते थे
ये ख़लिश दिल से क्यूं नहीं जाती,
रूह आराम क्यूं नहीं पाती,
है कोई मर्ज़ या कयामत है,
दवा कोई दुआ नहीं भाती..
मेरी कविता अब इस नये रुप में
काबिल है साहित्य के सर्वश्रेष्ठ सम्मान से
सम्मानित किए जा सकने के लिए..
-कर दो न प्लीज़, अब और कितना बदलूँ मैं!!
असहज, घुटन सी
महसूस होती है
जब लाख कोशिश करने पर भी
पलकें नहीं खुलती
आज बस इतना ही
इजाजत शनिवार तक
यशोदा
आज ये सुनिये....
श्रमिक दिवस
पर आज के लिंक्स ...
उससे संबंधित कतई नहीं
कोशिश जारी है....
आज एक सोच मन मे आई
क्यूँ न समर्पित करूँ एक कविता
एक "मजदूर" को ...
पर उसके लिए
कविता/गीत/छंद/साहित्य
का होगा क्या महत्व ?
इक दिन मेहनतकश की दुनिया भी होगी
रोज़ देखते हैं ये सपना उनका क्या
दिन भर तोड़ा पत्थर लेकिन पाया क्या
टूटन, कुंठा, आँसू बहना उनका क्या
सुनो ..........
अपनी अपेक्षाओं के सिन्धुओ पर
एक बाँध बना लो
क्योंकि जानते हो ना
सीमाएं सबकी निश्चित होती हैं
चटकीली धूप, और गर्म हवा के झोंकों के बीच ,
अगर कुछ भाता है तो वो है,
मोगरे को छूकर आती हुयी,
सुबह-शाम की ठंडी हवा।।
पत्थरों का बगीचा देखता है स्वप्न
कि वह सुख की झील बन जाए
झील का स्वप्न है कि नदी बन बहती रहे
बैठकर कुछ पल
इंतजार के सूने पहलू मेँ,
सिसकती शाम गुजर गई
छोड़कर तन्हा सुसप्त
तन्हाईयां।
चन्द लमहा और गुजर जाती तो तेरा क्या जाता
ये रात गर तेरी खुश्बु ले जाती तो तेरा क्या जाता
प्यासी नजरों से कोइ देखे तो शिकायत ही क्यों ?
महफिल मे गर रौनक आजाती तो तेरा क्या जाता
तारों से और बात में कमतर नहीं हूँ मैं
जुगनू हूँ इस लिये कि फ़लक पर नहीं हूँ मैं
मियाँ मजबूरियों का रब्त अक्सर टूट जाता है
वफ़ाएँ गर न हों बुनियाद में, घर – टूट जाता है
बहाना नीद का कर यूँ ही सो गया हूँ कब्रिस्तान में
फुर्सत हो गर,फातिहा पढने मेंरे दर पर चली आना
गुफ्तगू खुद से करता रहूँगा कब्र में सोते हुए भी
गर हो सके,थमती साँसों की सदा सुनने चली आना
एक देश में एक राजा
गूंगा गुड्डा सा ,
नहीं चल सकता बिन सहारे
चलता भी तो कठपुतली सा ,
न मर्ज़ी से गर्दन घुमाता
बोल भी कहाँ पाता
मर्ज़ी से अपनी.........
यादों के लिए ये दिल बहुत छोटा है।
जब यादें सताती हैं ये बहुत रोता है।
सोचता था किसी दिन सब भूल जाऊँगा
मालूम नही है मुझे , ये कैसे होता है।
अदावत दिल में रखते हैं मगर यारी दिखाते हैं
न जाने लोग भी क्या क्या अदाकारी दिखाते हैं
यकीनन उनका जी भरने लगा है मेज़बानी से
वो कुछ दिन से हमें जाती हुई लारी दिखाते हैं
मैं
मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं
सीते !
........
मैंने तुम्हें
बल से हासिल किया,
प्रेम से नहीं.
कुल मिलाकर कहुँ तो
हिंदी ब्लॉगजगत से मुझे
अभिन्न आदर सम्मान मिला.
आज मेरे “सुज्ञ” ब्लॉग को
तीन वर्ष पूर्ण हुए.
इतना काल आप सभी के
अपूर्व स्नेह के बूते सम्पन्न किया.
सत्कार भूख ने इस प्रमोद को नशा सा बना दिया.
आजकल नींद नाराज हैं मुझसे
सिरहाने भी अब कोसने लगे हैं
वास्ता देते हैं मुझे तुम्हारी बाहों का
सपने भी अब मुझे टोकने लगे हैं
माँ मुझे तुमने
खेलने के लिये गुडि़या नहीं
बल्कि हथियार दिये होते
तो हर बुरी नज़र के उठने से पहले ही
मैने जाने उन पर कितने ही
वार किये होते !!
किसी के दिल के टुकड़े करके, जिसे कोई अफसोस नहीं है!
जिसको अपने अभिमान पर, तनिक भी कोई रोष नहीं है!
ऐसे लोग कहाँ दुनिया में, दे सकते हैं प्यार मनुज को,
जिनके मन में मानवता का, किंचित भर भी कोष नहीं है!
लगता तो था कि आज कहीं हम शायद नहीं उठ पायेंगे
सीने में वो जो दर्द उठा चलो उसको अजल कह देते हैं
क्या जाने कितने पत्थर सबने बरसाए हैं आज 'अदा'
मंदिर की जिन्हें पहचान नहीं वो रंग महल कह देते हैं
माँ तुम ना छोड़कर जाया करो
याद तुम्हारी बहुत आती है
सब खेलते हैं ख़ुशी से
लेकिन मेरी दिल में एक उदासी है
उसने कहा
आँखें तुम्हारी
सीप सी
और मैंने
मोती बरसा दिए !
उनकी गलियों में, पाँव रखने से पहले ज़रा सोच लेते
वो हिन्दोस्तां की तरह, तुम्हारे बाप की जागीर नहीं है ?
सच ! आज उन्ने, उनकी फोटो पे चैंप दी है गजब की कमेन्ट
ऐंसा लगता है 'उदय', फेसबुकिया मेट्रो में, है वीराना छाया ?
क्यों वक्त के साथ
ख्वाहिशों की कभी
उम्र नहीं बढती !
क्यों आँखों के सपने
बार-बार टूट कर भी
फिर से जी उठते हैं !
भटका भटका फिरता हूँ
गोया सूखा पत्ता हूँ
साथ जमाना है लेकिन
तनहा तनहा रहता हूँ
आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,
घ्रर अंधेरा देख तू आकाश के तारे न देख।
एक दरिया है यहां पर दूर तक फैला हुआ,
आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख।
फिर हमरी शादी हुई....
शादी में सब कुछ सबसे कम दाम का ही लिए ...
हमरे बाबूजी टीचर थे न.....
यही सोचते रहे इनका खर्चा कम से कम हो.....
खैर ...शादी के बाद हम ससुराल गए ...
सबकुछ बदल गया रातों रात,
टेबुलकुर्सी, जूता-छाता, लोटा, ब्रश-पेस्ट,
लोग-बाग, हम बहुत घबराए.....
एकदम नया जगह...नया लोग....
हम कुछ नहीं जानते थे
ये ख़लिश दिल से क्यूं नहीं जाती,
रूह आराम क्यूं नहीं पाती,
है कोई मर्ज़ या कयामत है,
दवा कोई दुआ नहीं भाती..
मेरी कविता अब इस नये रुप में
काबिल है साहित्य के सर्वश्रेष्ठ सम्मान से
सम्मानित किए जा सकने के लिए..
-कर दो न प्लीज़, अब और कितना बदलूँ मैं!!
असहज, घुटन सी
महसूस होती है
जब लाख कोशिश करने पर भी
पलकें नहीं खुलती
आज बस इतना ही
इजाजत शनिवार तक
यशोदा
आज ये सुनिये....