इस शनिवार को विशेष कुछ नहीं
पर इस सप्ताह बहुत कुछ हुआ
रायपुर स्थित वीर नारायण सिंह खेल परिसर
भारत में दूसरा एवं विश्व का तीसरा क्रिकेट के
मैदान के रूप में सराहा गया
जीवन परिभाषित नहीं, अलग सुमन के रंग।
करते परिभाषित सभी, सबके अपने ढंग।।
मातम जहाँ पड़ोस में, सुन शहनाई आज।
हृदय सुमन का रो पड़ा, कैसा हुआ समाज।।
अक्सर
ज़िन्दगी की तन्हाईयो में जब पीछे मुड़कर देखता हूँ ;
तो धुंध पर चलते हुए दो अजनबी से साये नज़र आते है ..
एक तुम्हारा और दूसरा मेरा.....!
किसी के आंसू पोंछ
किसीको दे हंसा
जीवन तो यही है
बाकी सब असार है
औरतें होती है
नदिया सी
तरल पदार्थ की
तरह जन्म से ही
हर सांचे में रम
जाती है ...
यूँ न मुझसे रूठ जाओ मेरी जाँ निकल न जाये
तेरे इश्क का जखीरा मेरा दिल पिघल न जाये
मेरी नज्म में गड़े है तेरे प्यार के कसीदे
मै जुबाँ पे कैसे लाऊं कहीं राज खुल न जाये
पके पेड़ पर पका पपीता, पका पेड़ या पका पपीता. पके पेड़ को पकड़े पिंकू, पिंकू पकड़े पका पपीता.
जो हँसेगा वो फंसेगा , जो फंसेगा वो हँसेगा.
खड़क सिंह के खड़कने से, खड़कती हैं खिड़कियाँ, खिडकियों के खड़कने से, खड़कता हैं खड़क सिंह
ऊंट ऊँचा, ऊंट की पीठ ऊँची, ऊँची ऊंट की पूँछ.
चुटकी लेता
सिगरेट का धुआं
पूछे सवाल
प्रिय तेरे आने की खबर से
पुलकित. हो रहा रोम-रोम
चहक रही मैं बन सवंर के
सजा रही घर का कोना-कोना
रात जब नींद नहीं आती
करवटें बदलते-बदलते
जाने क्यों तुम याद आने
लगते हो ,
मन तुम्हारे एहसासों से
भीग उठता है ,
महफूज रहती है तुम्हारी याद बिसराती नहीं
आके चली जाती हो तुम याद फिर जाती नहीं
लम्हे समेटे साथ में सपनों में बसेरा कर लिया
जाग जाने पर भी तो तसवीर बोल पाती नहीं
उलझनों में गुम हुआ फिरता है दर-दर आइना ।
झूठ को लेकिन लगे है अब भी ख़ंजर आइना ।।
शाम तक खुद को सलामत पा के अब हैरान है।
पत्थरों के शह्र में घूमा था दिन भर आइना ।।
कभी कुछ होता है कहने को
पर जाने क्यूँ
मौन उतर आता है
बड़ी ही तेजी से धड़धड़ाते हुए
सब दुबक कर बैठ जाते हैं
सारी ख़्वाहिशों की बोलती बंद
अरमान अपना कमरा बंद करते हैं तो
पलकें बंद होकर लाइट ऑफ !
इक ज़ुनून,
कुछ यादें,
थोड़ा प्यार,
छोड़ जाऊँगी।
इन हवाओं में मैं
इंतज़ार,
छोड़ जाऊँगी।
किसी अजनबी से लड़ना
इस ज़माने में
कोई बड़ी बात नहीं,
बड़ी बात तो है
खुद ही से लड़ते रहना
तमाम-उम्र,
खुद की ही पहचान के लिये…
आज बस इतना ही
इजाजत माँगती है
आपकी यशोदा
सुनिये ये गीत....
पर इस सप्ताह बहुत कुछ हुआ
रायपुर स्थित वीर नारायण सिंह खेल परिसर
भारत में दूसरा एवं विश्व का तीसरा क्रिकेट के
मैदान के रूप में सराहा गया
जीवन परिभाषित नहीं, अलग सुमन के रंग।
करते परिभाषित सभी, सबके अपने ढंग।।
मातम जहाँ पड़ोस में, सुन शहनाई आज।
हृदय सुमन का रो पड़ा, कैसा हुआ समाज।।
अक्सर
ज़िन्दगी की तन्हाईयो में जब पीछे मुड़कर देखता हूँ ;
तो धुंध पर चलते हुए दो अजनबी से साये नज़र आते है ..
एक तुम्हारा और दूसरा मेरा.....!
किसी के आंसू पोंछ
किसीको दे हंसा
जीवन तो यही है
बाकी सब असार है
औरतें होती है
नदिया सी
तरल पदार्थ की
तरह जन्म से ही
हर सांचे में रम
जाती है ...
यूँ न मुझसे रूठ जाओ मेरी जाँ निकल न जाये
तेरे इश्क का जखीरा मेरा दिल पिघल न जाये
मेरी नज्म में गड़े है तेरे प्यार के कसीदे
मै जुबाँ पे कैसे लाऊं कहीं राज खुल न जाये
पके पेड़ पर पका पपीता, पका पेड़ या पका पपीता. पके पेड़ को पकड़े पिंकू, पिंकू पकड़े पका पपीता.
जो हँसेगा वो फंसेगा , जो फंसेगा वो हँसेगा.
खड़क सिंह के खड़कने से, खड़कती हैं खिड़कियाँ, खिडकियों के खड़कने से, खड़कता हैं खड़क सिंह
ऊंट ऊँचा, ऊंट की पीठ ऊँची, ऊँची ऊंट की पूँछ.
चुटकी लेता
सिगरेट का धुआं
पूछे सवाल
प्रिय तेरे आने की खबर से
पुलकित. हो रहा रोम-रोम
चहक रही मैं बन सवंर के
सजा रही घर का कोना-कोना
रात जब नींद नहीं आती
करवटें बदलते-बदलते
जाने क्यों तुम याद आने
लगते हो ,
मन तुम्हारे एहसासों से
भीग उठता है ,
महफूज रहती है तुम्हारी याद बिसराती नहीं
आके चली जाती हो तुम याद फिर जाती नहीं
लम्हे समेटे साथ में सपनों में बसेरा कर लिया
जाग जाने पर भी तो तसवीर बोल पाती नहीं
उलझनों में गुम हुआ फिरता है दर-दर आइना ।
झूठ को लेकिन लगे है अब भी ख़ंजर आइना ।।
शाम तक खुद को सलामत पा के अब हैरान है।
पत्थरों के शह्र में घूमा था दिन भर आइना ।।
कभी कुछ होता है कहने को
पर जाने क्यूँ
मौन उतर आता है
बड़ी ही तेजी से धड़धड़ाते हुए
सब दुबक कर बैठ जाते हैं
सारी ख़्वाहिशों की बोलती बंद
अरमान अपना कमरा बंद करते हैं तो
पलकें बंद होकर लाइट ऑफ !
इक ज़ुनून,
कुछ यादें,
थोड़ा प्यार,
छोड़ जाऊँगी।
इन हवाओं में मैं
इंतज़ार,
छोड़ जाऊँगी।
किसी अजनबी से लड़ना
इस ज़माने में
कोई बड़ी बात नहीं,
बड़ी बात तो है
खुद ही से लड़ते रहना
तमाम-उम्र,
खुद की ही पहचान के लिये…
आज बस इतना ही
इजाजत माँगती है
आपकी यशोदा
सुनिये ये गीत....