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अच्छे दिन महंगाई के....नयी पुरानी हलचल बुधवारीय अंक

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सादर अभिवादन स्वाकारें
आज की नयी पुरानी हलचल की
आज की प्रस्तुति....


 मेरे नैन नम थे,
तुम भी उदास थी,
जानते थे हम दोनों ही,
ये अंतिम मुलाकात है...



अच्छे दिन महंगाई के, खर्चीले दिन जनता के
कोई नहीं, अभी तलक सरकार के अच्छे दिन रहे,
अब महंगाई के अच्छे दिन शुरू हुए हैं। 
और जनता के खर्चीले दिन।
इसमें इत्ता परेशान क्यों होना?



धरती पर आई, लेकर खुशियाली।
सूखी मिट्टी में, भर दी हरियाली।
चाहत कि पहले की तरह निर्मल सी गंगा हो।
ना कोई नंगा हो ----------


हंगामा क्यों है बरपा...
हमारे देश में
सैक्स और संस्कृति
दो शब्द ऐसे हैं
जिन पर
जब चाहे हंगामा करा लो.


सोचती हूँ चलते-चलते
लड़खड़ाती साँसों के सफ़र में
कुछ ऐसा लिख जाऊं जिसमें
ताज़गी हो, उम्मीदें हों
रौनक हो, खुशियां हो  


समय जब भी असमय
छीन  लेता  है
कुछ मासूम चेहरों से
मुस्कराहट,
आवृत सा कुछ  होता है,
जो बनता है मौन ताकत   …… !!


नेपथ्य
तेल चाल
उखड़ी सांसे
थकित तन
और डूबता मन
लिए वह चला जा रहा था
कहाँ खुद भी नहीं जानता।


 क्यूँ मियाँ, क्यूँ तुम … आज इतने ठप्प बैठे हो
हमने तो सुना था गप्प से तुम बाज नहीं आते ?


आज गलती हो गई थी
सुधर भी गई
अब क्या भी करूँ
अब बस करती हूँ
सादर



 


 

 

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