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सस्ता जूता....शनिवारीय हलचल

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सादर अभिवादन......
गरीबी रेखा वाले आदमी
तू क्यों है इतना रूठा
बजट में अब तो तुझे
दे दिया सस्ता जूता
ये है शरद उपाध्याय जी की व्यंगिकाओं मे से एक


मौसम को बर्बाद न कर
बाँहों से आजाद न कर
खुशियों के पल होते कितने?
जी ले पर अवसाद न कर


साथ तो चलता है वो मेरे
फिर भी ना वो मिलता है...!!!
पास तो रहता है वो मेरे
फिर भी ना वो मिलता है...!!!
सांस मे रहता है वो मेरे
फिर भी ना वो मिलता है...!!! 



रिश्ते हँसाते है रुलाते है
जिंदगी से प्यार करना सिखाते है.
रिश्ते जीते है हमारे अंदर तो
कभी -कभी मरते भी है।
सबसे कष्टकारी रिश्ते
वो होते है जो ना मर पाते है
ना जी पाते है कोमा में रहते है

 
कभी देखा है
उन तपड़ते 
बादलों के टुकड़ों को ,
घुमड़ते रहते हैं 
तरसते रहते हैं 
पर बरस नहीं पाते , 


पैरों में चुभते काँटों से
बेख़बर ज़िंदगी,
तपती धूप में
कार के शीशे ठकठकाती
एक रुपया मांगती 


भावुकतावादी क्रांतिवादियों,
राय बहादुरों, रुदालियों और
सयाने सुजानों से
कुछ दिल की बातें
देश-काल-समाजः
वाद-विवाद-संवाद 


दिल अगर
यूँ ही सताता रहेगा
ज़िंदगी का ना पता
ना ठिकाना होगा


वो किसी तौर, कहीं भी नहीं मिलता मुझसे
सिर्फ़ टकराता है अब उसका अँधेरा मुझसे
बूंद पड़ते ही उभर आया है पौधे की तरह
धूल में वो जो कोई नाम गिरा था मुझसे 


आज अब विदा मांगती है यशोदा
फिर मिलते हैं

वक्त सारी जिन्दगी में
दो ही गुज़रे हैं कठिन
एक बजट आने से पहले
एक  बजट आने के बाद
-शरद उपाध्याय

 



 


 


 


 


 

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