नमस्ते...
झूम कर बदली उठी और छा गई
['अख्तर'शीरानी]
पेश है आज की हलचल के लिये कुछ लिंक
कुछ बहारों की अना तो कुछ ग़ुरूरे-बाग़बां
आशिक़े-गुलशन सजाते हैं जनाज़ा इश्क़ का
साफ़ कहिए, आपको अब रास हम आते नहीं
क्या ज़रूरी है किया जाए दिखावा इश्क़ का ?
सबसे पहले अखंड भारत त्रेमासिक पत्रिका के द्वितीय अंक का विमोचन किया गयासभी अतिथिओं द्वारा |
उसके बाद डॉ. कुँवर बेचैन जी की अध्यक्षता में काव्य पथ शुरू हुआ जिसमे मुख्य रूप से पत्रिका में भागेदारी करने वाले सभी रचनाकारों को पूर्णतया इसका मौका दिया
गया | जिसमें विशेष आकर्षण रहे पीयूष द्वेदी जी जिन्होंने पूर्ण विकलांग होते हुए भी जिस जज्बे से काव्यपाठ किया वो सराहनीय था |
जिन किताबों में गरीबी मिट गई है
उन किताबों से मेरा नाता नहीं है
बिल्लियों के संग वो पाला गया है
शेर होकर भी वो गुर्राता नहीं है
फँसा जो एक दफा फिर न आ सका बाहर
ये लोभ एक भँवर के सिवा कुछ और नहीं |५|
कभी था वक़्त बुरा , दर पे माँगने आया
सँभल गया तो कुँवर के सिवा कुछ और नहीं |६|
काँवड़ियों की टोली भी,
हर की पौड़ी पर आयी।
आसमान में श्याम घटाएँ,
उमड़-घुमड़ कर आई।।
मौसम का मिज़ाज़ बदला है,
बारिश पर यौवल छाया है।
प्रेम के जाल
और पीड़ा की आरी के बीच
बचा रह जाता है
पल-पल झरता शरीर
जिसके मोम के न होने का
रहता है अफ़सोस
उधर अलमारी में बंद
किताबें चिल्ला रही थी
खोल दो-हमें खोल दो
हम जाना चाहती हैं अपने
बांस के जंगल
और मिलना चाहती हैं
अपने बिच्छुओं के डंक
और सांपों के चुम्बन से
उत्साह उनके पैरों में ही नहींउनकी ज़बान से भी छलकता है। उनसे बात करो तो यूं लगता है आप किसी उमंग से भरी किशोरी से बात कर रहे हैं।)
कथक आपको विरासत में मिला है। वो वक्त क्या था, जब आपने पहली बार पैरों को हरकत देनी शुरू की?
मैं चाहती हूं,.
हमारा प्रेम नदी और सागर की तरह हो
जो
एक बार मिले
तो फिर कभी जुदा नही होते,..
या यूं कहूं,..
नदी की नियति
सागर से मिलना ही होता है
शर्मा जी ने आसमान की ओर देखकर बस इतना कहाइंसान मजबूरी मे काफी गुनाह कर जाता हर आदमी उतना बुरा नहीं होता जितना समाज दिखाता। पर भगवान तू सजा थोड़ा गलत दे
जाता। मेरी ज़िंदगी मे जो अच्छे है सज़ा उन्हे ही ज्यादा दी तूने क्यूँ...???
श्रीलता आज तुम्हें कितना याद कर रहा मैं।
मिलते रहेंगे...
धन्यवाद
झूम कर बदली उठी और छा गई
सारी दुनिया पर जवानी आ गईआह वो उस की निगाह-ए-मय-फ़रोश
जब भी उट्ठी मस्तियाँ बरसा गई
गेसू-ए-मुश्कीं में वो रू-ए-हसीं
अब्र में बिजली सी इक लहरा गई
आलम-ए-मस्ती की तौबा अल-अमाँ
पारसाई नश्शा बन कर छा गई
आह उस की बे-नियाज़ी की नज़र
आरज़ू क्या फूल सी कुम्हला गई
साज़-ए-दिल को गुदगुदाया इश्क़ ने
मौत को ले कर जवानी आ गई
पारसाई की जवाँ-मर्गी न पूछ
तौबा करनी थी के बदली छा गई
'अख़्तर'उस जान-ए-तमन्ना की अदा
जब कभी याद आ गई तड़पा गई
['अख्तर'शीरानी]
पेश है आज की हलचल के लिये कुछ लिंक
कुछ बहारों की अना तो कुछ ग़ुरूरे-बाग़बां
आशिक़े-गुलशन सजाते हैं जनाज़ा इश्क़ का
साफ़ कहिए, आपको अब रास हम आते नहीं
क्या ज़रूरी है किया जाए दिखावा इश्क़ का ?
सबसे पहले अखंड भारत त्रेमासिक पत्रिका के द्वितीय अंक का विमोचन किया गयासभी अतिथिओं द्वारा |
उसके बाद डॉ. कुँवर बेचैन जी की अध्यक्षता में काव्य पथ शुरू हुआ जिसमे मुख्य रूप से पत्रिका में भागेदारी करने वाले सभी रचनाकारों को पूर्णतया इसका मौका दिया
गया | जिसमें विशेष आकर्षण रहे पीयूष द्वेदी जी जिन्होंने पूर्ण विकलांग होते हुए भी जिस जज्बे से काव्यपाठ किया वो सराहनीय था |
जिन किताबों में गरीबी मिट गई है
उन किताबों से मेरा नाता नहीं है
बिल्लियों के संग वो पाला गया है
शेर होकर भी वो गुर्राता नहीं है
फँसा जो एक दफा फिर न आ सका बाहर
ये लोभ एक भँवर के सिवा कुछ और नहीं |५|
कभी था वक़्त बुरा , दर पे माँगने आया
सँभल गया तो कुँवर के सिवा कुछ और नहीं |६|
काँवड़ियों की टोली भी,
हर की पौड़ी पर आयी।
आसमान में श्याम घटाएँ,
उमड़-घुमड़ कर आई।।
मौसम का मिज़ाज़ बदला है,
बारिश पर यौवल छाया है।
प्रेम के जाल
और पीड़ा की आरी के बीच
बचा रह जाता है
पल-पल झरता शरीर
जिसके मोम के न होने का
रहता है अफ़सोस
उधर अलमारी में बंद
किताबें चिल्ला रही थी
खोल दो-हमें खोल दो
हम जाना चाहती हैं अपने
बांस के जंगल
और मिलना चाहती हैं
अपने बिच्छुओं के डंक
और सांपों के चुम्बन से
उत्साह उनके पैरों में ही नहींउनकी ज़बान से भी छलकता है। उनसे बात करो तो यूं लगता है आप किसी उमंग से भरी किशोरी से बात कर रहे हैं।)
कथक आपको विरासत में मिला है। वो वक्त क्या था, जब आपने पहली बार पैरों को हरकत देनी शुरू की?
मैं चाहती हूं,.
हमारा प्रेम नदी और सागर की तरह हो
जो
एक बार मिले
तो फिर कभी जुदा नही होते,..
या यूं कहूं,..
नदी की नियति
सागर से मिलना ही होता है
शर्मा जी ने आसमान की ओर देखकर बस इतना कहाइंसान मजबूरी मे काफी गुनाह कर जाता हर आदमी उतना बुरा नहीं होता जितना समाज दिखाता। पर भगवान तू सजा थोड़ा गलत दे
जाता। मेरी ज़िंदगी मे जो अच्छे है सज़ा उन्हे ही ज्यादा दी तूने क्यूँ...???
श्रीलता आज तुम्हें कितना याद कर रहा मैं।
मिलते रहेंगे...
धन्यवाद