नमस्ते...
हलचल बनकर तैयार थी...
ब्लॉगस साथियों को दिनांक 4 सितंबर 2014 की प्रस्तुति मे उनके लिंक्स शामिल करने की पूर्व सूचना भी दे दी थी
पहली बार हुआ कि मैं अपने संकलित लिंक्स ड्राफ्ट मे भी रखना भूल गया...
केवल इस उमीद पर कि शाम को घर आकर ठीक कर दूंगा...
पर अति आवश्यक कार्य आन पड़ा कि मैं शाम को घर ही न आ सका......मैं भाई यशवंत जी को केवल फौन पर सूचना ही दे सका...
जिसका मुझे खेद है...मैं आप से क्षमा मांगता हूं...
पेश है... 04/ सितंबर के लिये संकलित की गये लिंकों पर आधारित नयी पुरानी हलचल...इस अटल जी की प्यारी सी कविता के साथ...
कवि आज सुना वह गान रे,
जिससे खुल जाएँ अलस पलक।
नस–नस में जीवन झंकृत हो,
हो अंग–अंग में जोश झलक।
ये - बंधन चिरबंधन
टूटें – फूटें प्रासाद गगनचुम्बी
हम मिलकर हर्ष मना डालें,
हूकें उर की मिट जाएँ सभी।
यह भूख – भूख सत्यानाशी
बुझ जाय उदर की जीवन में।
हम वर्षों से रोते आए
अब परिवर्तन हो जीवन में।
क्रंदन – क्रंदन चीत्कार और,
हाहाकारों से चिर परिचय।
कुछ क्षण को दूर चला जाए,
यह वर्षों से दुख का संचय।
हम ऊब चुके इस जीवन से,
अब तो विस्फोट मचा देंगे।
हम धू - धू जलते अंगारे हैं,
अब तो कुछ कर दिखला देंगे।
अरे ! हमारी ही हड्डी पर,
इन दुष्टों ने महल रचाए।
हमें निरंतर चूस – चूस कर,
झूम – झूम कर कोष बढ़ाए।
रोटी – रोटी के टुकड़े को,
बिलख–बिलखकर लाल मरे हैं।
इन – मतवाले उन्मत्तों ने,
लूट – लूट कर गेह भरे हैं।
पानी फेरा मर्यादा पर,
मान और अभिमान लुटाया।
इस जीवन में कैसे आए,
आने पर भी क्या पाया?
रोना, भूखों मरना, ठोकर खाना,
क्या यही हमारा जीवन है?
हम स्वच्छंद जगत में जन्मे,
फिर कैसा यह बंधन है?
मानव स्वामी बने और—
मानव ही करे गुलामी उसकी।
किसने है यह नियम बनाया,
ऐसी है आज्ञा किसकी?
सब स्वच्छंद यहाँ पर जन्मे,
और मृत्यु सब पाएँगे।
फिर यह कैसा बंधन जिसमें,
मानव पशु से बंध जाएँगे ?
अरे! हमारी ज्वाला सारे—
बंधन टूक-टूक कर देगी।
पीड़ित दलितों के हृदयों में,
अब न एक भी हूक उठेगी।
हम दीवाने आज जोश की—
मदिरा पी उन्मत्त हुए।
सब में हम उल्लास भरेंगे,
ज्वाला से संतप्त हुए।
रे कवि! तू भी स्वरलहरी से,
आज आग में आहुति दे।
और वेग से भभक उठें हम,
हद् – तंत्री झंकृत कर दे।
[मैं इस महान कवि को नमन करते हुए भगवान से इन की लंबी आयू, और अच्छे स्वास्थय की कामना करता हूं
एक कली दो पत्तियां:***खुद से प्यार करती औरतें
प्रेम करने के लिए उसे ख़ुद बनना होगा प्रेम
जब तक रहेंगी खुद से प्यार करती औरतें
इस दुनिया का वजूद रहेगा
[दीपिका रानी]
KAVYASUDHA ( काव्यसुधा ):**** प्यार और बेड़ियाँ
पर वह नहीं डाल पाती है
उसके पैरों में बेड़ियाँ.
बेड़ियाँ मिलती हैं बाजार में
खरीदी जाती हैं पैसों के बल पर.
Kashish - My Poetry:**** निभाया साथ बहुत है ज़िंदगी तूने
न राह हमने चुनी है, न मंजिल ही,
कहां है जाना वही फैसला लेगा।
गुज़र गया है काफ़िला भी अब आगे,
राह सूनी में चलने का हौसला देगा
[Kailash Sharma]
कविता मंच:*****हो सके तो किसी का सहारा बनो
जन्म आदम का मिलता है भाग्य से।
जरूरी नहीं कि मनुज दोबारा बनो।।
उपकार जितना बन सके करते चलो।
हो सके तो दुखियों की आंख का तारा बनो
[Rajesh Tripathi]
ज्योति-कलश:*** मुक्तक
जीने की जब भी चाह होती है
और मुश्किल अथाह होती है
जीत जाते हैं हालात भी गम से
कोई तो कहीं और राह होती है
[Shanti Purohit]
ग़ज़लकुञ्ज:**** गज़ल-कुञ्ज(गज़ल संग्रह)-(ल) बंजर दिल(२) पठारों से हृदय
हरे बागों,बगीचों, वन वितानों की कमी से -बसन्ती मौसम भी लगता, आज पतझर देखिये ||
मुर्झा गये हैं आस्था की क्यारी के ये "प्रसून"
हुए निर्जल भावना के कई निर्झर देखिये
[देवदत्त प्रसून]
मेरे विचार मेरी अनुभूति:*** गुस्सा
किन्तु जब थमता है गुस्सा का ज्वर
मुँह से निकले शब्द वाण का
सोच नहीं पाता है कोई उत्तर
पश्चाताप का आंसू चाहे भर दे नदी सारे
नहीं भर पाता है जो घाव दिए हैं गहरे |
[कालीपद "प्रसाद "]
धन्यवाद....
हलचल बनकर तैयार थी...
ब्लॉगस साथियों को दिनांक 4 सितंबर 2014 की प्रस्तुति मे उनके लिंक्स शामिल करने की पूर्व सूचना भी दे दी थी
पहली बार हुआ कि मैं अपने संकलित लिंक्स ड्राफ्ट मे भी रखना भूल गया...
केवल इस उमीद पर कि शाम को घर आकर ठीक कर दूंगा...
पर अति आवश्यक कार्य आन पड़ा कि मैं शाम को घर ही न आ सका......मैं भाई यशवंत जी को केवल फौन पर सूचना ही दे सका...
जिसका मुझे खेद है...मैं आप से क्षमा मांगता हूं...
पेश है... 04/ सितंबर के लिये संकलित की गये लिंकों पर आधारित नयी पुरानी हलचल...इस अटल जी की प्यारी सी कविता के साथ...
कवि आज सुना वह गान रे,
जिससे खुल जाएँ अलस पलक।
नस–नस में जीवन झंकृत हो,
हो अंग–अंग में जोश झलक।
ये - बंधन चिरबंधन
टूटें – फूटें प्रासाद गगनचुम्बी
हम मिलकर हर्ष मना डालें,
हूकें उर की मिट जाएँ सभी।
यह भूख – भूख सत्यानाशी
बुझ जाय उदर की जीवन में।
हम वर्षों से रोते आए
अब परिवर्तन हो जीवन में।
क्रंदन – क्रंदन चीत्कार और,
हाहाकारों से चिर परिचय।
कुछ क्षण को दूर चला जाए,
यह वर्षों से दुख का संचय।
हम ऊब चुके इस जीवन से,
अब तो विस्फोट मचा देंगे।
हम धू - धू जलते अंगारे हैं,
अब तो कुछ कर दिखला देंगे।
अरे ! हमारी ही हड्डी पर,
इन दुष्टों ने महल रचाए।
हमें निरंतर चूस – चूस कर,
झूम – झूम कर कोष बढ़ाए।
रोटी – रोटी के टुकड़े को,
बिलख–बिलखकर लाल मरे हैं।
इन – मतवाले उन्मत्तों ने,
लूट – लूट कर गेह भरे हैं।
पानी फेरा मर्यादा पर,
मान और अभिमान लुटाया।
इस जीवन में कैसे आए,
आने पर भी क्या पाया?
रोना, भूखों मरना, ठोकर खाना,
क्या यही हमारा जीवन है?
हम स्वच्छंद जगत में जन्मे,
फिर कैसा यह बंधन है?
मानव स्वामी बने और—
मानव ही करे गुलामी उसकी।
किसने है यह नियम बनाया,
ऐसी है आज्ञा किसकी?
सब स्वच्छंद यहाँ पर जन्मे,
और मृत्यु सब पाएँगे।
फिर यह कैसा बंधन जिसमें,
मानव पशु से बंध जाएँगे ?
अरे! हमारी ज्वाला सारे—
बंधन टूक-टूक कर देगी।
पीड़ित दलितों के हृदयों में,
अब न एक भी हूक उठेगी।
हम दीवाने आज जोश की—
मदिरा पी उन्मत्त हुए।
सब में हम उल्लास भरेंगे,
ज्वाला से संतप्त हुए।
रे कवि! तू भी स्वरलहरी से,
आज आग में आहुति दे।
और वेग से भभक उठें हम,
हद् – तंत्री झंकृत कर दे।
[मैं इस महान कवि को नमन करते हुए भगवान से इन की लंबी आयू, और अच्छे स्वास्थय की कामना करता हूं
एक कली दो पत्तियां:***खुद से प्यार करती औरतें
प्रेम करने के लिए उसे ख़ुद बनना होगा प्रेम
जब तक रहेंगी खुद से प्यार करती औरतें
इस दुनिया का वजूद रहेगा
[दीपिका रानी]
KAVYASUDHA ( काव्यसुधा ):**** प्यार और बेड़ियाँ
पर वह नहीं डाल पाती है
उसके पैरों में बेड़ियाँ.
बेड़ियाँ मिलती हैं बाजार में
खरीदी जाती हैं पैसों के बल पर.
[Neeraj Kumar Neer]
Kashish - My Poetry:**** निभाया साथ बहुत है ज़िंदगी तूने
न राह हमने चुनी है, न मंजिल ही,
कहां है जाना वही फैसला लेगा।
गुज़र गया है काफ़िला भी अब आगे,
राह सूनी में चलने का हौसला देगा
[Kailash Sharma]
कविता मंच:*****हो सके तो किसी का सहारा बनो
जन्म आदम का मिलता है भाग्य से।
जरूरी नहीं कि मनुज दोबारा बनो।।
उपकार जितना बन सके करते चलो।
हो सके तो दुखियों की आंख का तारा बनो
[Rajesh Tripathi]
ज्योति-कलश:*** मुक्तक
जीने की जब भी चाह होती है
और मुश्किल अथाह होती है
जीत जाते हैं हालात भी गम से
कोई तो कहीं और राह होती है
[Shanti Purohit]
ग़ज़लकुञ्ज:**** गज़ल-कुञ्ज(गज़ल संग्रह)-(ल) बंजर दिल(२) पठारों से हृदय
हरे बागों,बगीचों, वन वितानों की कमी से -बसन्ती मौसम भी लगता, आज पतझर देखिये ||
मुर्झा गये हैं आस्था की क्यारी के ये "प्रसून"
हुए निर्जल भावना के कई निर्झर देखिये
[देवदत्त प्रसून]
मेरे विचार मेरी अनुभूति:*** गुस्सा
किन्तु जब थमता है गुस्सा का ज्वर
मुँह से निकले शब्द वाण का
सोच नहीं पाता है कोई उत्तर
पश्चाताप का आंसू चाहे भर दे नदी सारे
नहीं भर पाता है जो घाव दिए हैं गहरे |
[कालीपद "प्रसाद "]
धन्यवाद....