हम लोग अपने जूते समुद्र तट पर ही मैले कर चुके थे। जहाँ ऊँची-ऊँची सूखी
रेत थी, उसमें चले थे और अब हरीश के जूतों की पॉलिश व मेरे पंजों पर लगी
क्यूटेक्स धुंधली हो गयी थी। मेरी साड़ी क़ी परतें भी इधर-उधर हो गयीं थीं।
मैं ने हरीश से कहा- उन लोगों के घर फिर कभी चलेंगे।
- हम कह चुके थे लेकिन!
- मैं ने आज भी वही साडी पहनी हुई है। -मैं ने बहाना बनाया। वैसे
बात सच थी। ऐसा सिर्फ लापरवाही से हुआ था।
↧