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नयी पुरानी हलचल....... बुधवारीय

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आज की हलचल 
सच में  नयी पुरानी हलचल ही है......
रविवार और बुधवार के बीच में 
ये बुधवार तीसरा दिन है...
सोमवार व मंगलवार को
प्रकाशित रचनाओं से रूबरू करवा रही हूँ आज..........


सुधिनामा में
विनती सुनो मेरी
साधना वैद



अनकही बातें में
आपके इस भैंसे को भी हंसायेंगे...
विशाल चर्चित



किताबों की दुनिया -102 में
'संभाल कर रखना '
नीरज गोस्वामी



सपने में
रूखे रूखे आखर
शशि पुरवार



मन पाए विश्राम जहाँ पर
चम्पा सा खिल जाने दें मन
अनीता निहलानी



चिकोटी में
संकट में बाबा लोग
अंशुमाली रस्तोगी



चाँद की सहेली में
खुद को खरीदा है खुद से
"ज़ोया"  



अभिनव रचना में
कर रहे निरन्तर श्रम वे, बिना स्वप्न-संसार लिये...
ममता त्रिपाठी



"सुरभित सुमन"में
शब्द और मन की श्रेष्ठता …
सुमन



हिन्दीकुंज में
विकास के लिए भारतीय भाषाऐं जरूरी क्यों?
आशुतोष दुबे



स्वप्न मेरे में
गांधी की तस्वीर लगाई होती है ...
दिगम्बर नासवा



जज़्बात...दिल से दिल तक में
सवेरा
इमरान अंसारी



! कौशल !
 ''दीपक तले अँधेरा ''.

शालिनी कौशिक


at Ocean of Bliss
साहस
रेखा जोशी



भारतीय नारी
उनके अश्कों को
डा श्याम गुप्त



मेरे गीत ! में
विश्वास बिकेंगे अक्सर पर, अरविन्द नहीं हारा होगा
सतीश सक्सेना



"एहसास ज़िंदगी का".! में
जल्द ही सबको सम्भलना होगा
राकेश आरके सिंह



मन का मंथन में
प्रकृति की तरह...
कुलदीप ठाकुर



उलूक टाइम्स में 
कुछ करने वाले खुद नहीं लिखते हैं 
अपने किये कराये पर किसी से लिखाते हैं
सुशील कुमार जोशी 



हल्द्वानी लाइव में
आस्था के डेरे किधर जा रहे हैं?
गोविन्द सिंह




आज की हलचल 

तनिक से अधिक लम्बी बन गई
आज्ञा दीजिये
फिर मिलते हैं....
यशोदा



 



 


 



 


 




 



 



 



 



 



 



 



 







एक सपना, एक जीवन....हम...... फिर मिलेंगे

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नमस्ते !
हलचल की गुरुवारीय प्रस्तुति मे आपका स्वागत है
इन चुने हुए लिंक्स के साथ-

एक सपना, एक जीवन 

 निहत्थी औरतें




 

चाहतों के ये दौर फिर रहे न रहे.. 

  तराजू

और अंत मे इस गीत का आनंद लेते हुए इजाज़त दीजिये यशवंत यश को - 

 

ममता..........जयशंकर प्रसाद

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जयशंकर प्रसाद (३० जनवरी १८८९ - १४ जनवरी १९३७) हिन्दी कवि, नाटकार, कथाकार, उपन्यासकार तथा निबन्धकार थे। वे हिन्दी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। उन्होंने हिंदी काव्य में छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ी बोली के काव्य में कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई और वह काव्य की सिद्ध भाषा बन गई।

आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहास में इनके कृतित्व का गौरव अक्षुण्ण है। वे एक युगप्रवर्तक लेखक थे जिन्होंने एक ही साथ कविता, नाटक, कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में हिंदी को गौरव करने लायक कृतियाँ दीं। कवि के रूप में वे निराला, पन्त, महादेवी के साथ छायावाद के चौथे स्तंभ के रूप में प्रतिष्ठित हुए है; नाटक लेखन में भारतेंदु के बाद वे एक अलग धारा बहाने वाले युगप्रवर्तक नाटककार रहे जिनके नाटक आज भी पाठक चाव से पढते हैं। इसके अलावा कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में भी उन्होंने कई यादगार कृतियाँ दीं। विविध रचनाओं के माध्यम से मानवीय करूणा और भारतीय मनीषा के अनेकानेक गौरवपूर्ण पक्षों का उद्घाटन। ४८ वर्षो के छोटे से जीवन में कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास और आलोचनात्मक निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाएं की।

उन्हें 'कामायनी'पर मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था। उन्होंने जीवन में कभी साहित्य को अर्जन का माध्यम नहीं बनाया, अपितु वे साधना समझकर ही साहित्य की रचना करते रहे। कुल मिलाकर ऐसी विविध प्रतिभा का साहित्यकार हिंदी में कम ही मिलेगा जिसने साहित्य के सभी अंगों को अपनी कृतियों से समृद्ध किया हो।


प्रस्तुत है उनकी एक कहानी -ममता

रोहतास-दुर्ग के प्रकोष्ठ में बैठी हुई युवती ममता, शोण नदी के तीक्ष्ण गंभीर प्रवाह को देख रही है। ममता विधवा थी। उसका यौवन शोण के समान ही उमड़ रहा था। मन में वेदना, मस्तक में आंधी, आंखों में पानी की बरसात लिए वह सुख के कंटक-शयन में विकल थी। वह रोहताश दुर्गपति के मंत्री चूड़ामणि की अकेली दुहिता थी, फिर उसके लिए कुछ अभाव होना असंभव था, परंतु वह विधवा थी... हिंदू-विधवा संसार में सबसे तुच्छ निराश्रय प्राणी है तब उसकी विडंबना का कहां अंत था?

चूड़ामणि ने चुपचाप उसके प्रकोष्ठ में प्रवेश किया। शोण के प्रवाह में, उसके कल-नाद में, अपना जीवन मिलाने में वह बेसुध थी। पिता का आना न जान सकी। चूड़ामणि व्यथित हो उठे। स्नेहपालिता पुत्री के लिए क्या करें, यह स्थिर न कर सकते थे। लौटकर बाहर चले गए। ऐसा प्राय: होता, पर आज मंत्री के मन में बड़ी दुश्चिंता थी। पैर सीधे न पड़ते थे।

एक पहर बीत जाने पर वे फिर ममता के पास आए। उस समय उनके पीछे दस सेवक चांदी के बड़े थालों में कुछ लिए हुए खड़े थे; कितने ही मनुष्यों के पद-शब्द सुन ममता ने घूमकर देखा। मंत्री ने सब थालों को रखने का संकेत किया। अनुचर थाल रखकर चले गए।

ममता ने पूछा, 'यह क्या है पिताजी?'

'तेरे लिए बेटी! उपहार है।'चूड़ामणि ने उसका आवरण उलट दिया। स्वर्ण का पीलापन उस सुनहली संध्या में विकीर्ण होने लगा। ममता चौंक उठी, 'इतना स्वर्ण। यह कहां से आया?'

'चुप रहो ममता, यह तुम्हारे लिए है।'

'तो क्या आपने म्लेच्छ का उत्कोच स्वीकार कर लिया? पिताजी! यह अनर्थ है, अर्थ नहीं। लौटा दीजिए। हम लोग ब्राह्मण हैं, इतना सोना लेकर क्या करेंगे?'

इस पतनोन्मुख प्राचीन सामंत-वंश का अंत समीप है, बेटी। किसी भी दिन शेरशाह रोहिताश्व पर अधिकार कर सकता है; उस दिन मंत्रित्व न रहेगा, तब के लिए बेटी!'

'हे भगवान, तबके लिए! विपद के लिए! इतना आयोजन! परम पिता की इच्छा के विरुद्ध इतना साहस! पिताजी, क्या भीख न मिलेगी? क्या कोई हिंदू भू-पृष्ठ पर न बचा रह जाएगा, जो ब्राह्मण को दो मुट्ठी अन्न दे सके? यह असंभव है। फेर दीजिए पिताजी, मैं कांप रही हूं- इसकी चमक आंखों को अंधा बना रही है।'

'मूर्ख है!'चूड़ामणि चले गए।

दूसरे दिन जब डोलियों का तांता भीतर आ रहा था, ब्राह्मण मंत्री चूड़ामणि का हृदय धक-धक करने लगा। वह अपने को रोक न सका। उसने जाकर रोहिताश्व दुर्ग के तोरण पर डोलियों का आवरण खुलवाना चाहा। पठानों ने कहा, 'यह महिलाओं का अपमान है।'

बात बढ़ गई। तलवारें खिंचीं। ब्राह्मण वहीं मारा गया। राजा-रानी और कोष- सब छली शेरशाह के हाथ पड़े; निकल गई ममता। डोली में भरे हुए पठान सैनिक दुर्ग भर में फैल गए, पर ममता न मिली।

काशी के उत्तर धर्मचक्र विहार, मौर्य और गुप्त, सम्राटों की कीर्ति का खंडहर था। भग्न चूड़ा, तृण गुल्मों से ढके हुए प्राचीर, ईंटों की ढेर में बिखरी हुई भारतीय शिल्प की विभूति, ग्रीष्म की चंदिका में अपने को शीतल कर रही थी।

जहां पंचवर्गीय भिक्षु गौतम का उपदेश ग्रहण करने के लिए पहले मिले थे, उसी स्पूत के भग्नावशेष की मलिन छाया में एक झोपड़ी के दीपालोक में एक स्त्री पाठ कर रही थी,

'अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते...'

पाठ रुक गया। एक भीषण और हताश आकृति दीप के मंद प्रकाश में सामने खड़ी थी। स्त्री उठी, उसने कपाट बंद करना चाहा। परंतु उस व्यक्ति ने कहा, 'माता! मुझे आश्रय चाहिए।'

'तुम कौन हो?'स्त्री ने पूछा।

'मैं मुगल हूं। चौसा युद्ध में शेरशाह से विपन्न होकर रक्षा चाहता हूं। इस रात अब आगे चलने में असमर्थ हूं।'

'क्या शेरशाह से!'स्त्री ने होंठ काट लिए।

'हां, माता।'

'परंतु तुम भी वैसे ही क्रूर हो, वही भीषण रक्त की प्यास, वही निष्ठुर प्रतिबिंब, तुम्हारे मुख पर भी है! सैनिक! मेरी कुटी में स्थान नहीं, जाओ कहीं दूसरा आश्रय खोज लो।'

'गला सूख रहा है- साथी छूट गए हैं, अश्व गिर पड़ा है- इतना थका ह़आ हूं, इतना कहते-कहते वह व्यक्ति धम-से बैठ गया और उसके सामने ब्रह्मांड घूमने लगा। स्त्री ने सोचा, यह विपत्ति कहां से आई! उसने जल दिया, मुगल के प्राणों की रक्षा हुई। वह सोचने लगी, 'सब विधर्मी दया के पात्र नहीं, मेरे पिता का वध करने वाले आततायी!'घृणा से उसका मन विरक्त हो गया।

स्वस्थ होकर मुगल ने कहा, 'माता! तो फिर मैं चला जाऊं, स्त्री विचार कर रही थी, 'मैं ब्राह्मणी हूं, मुझे तो अपने धर्म अतिथिदेव की उपासना का पालन करना चाहिए। परंतु यहां... नहीं, नहीं, सब विधर्मी दया के पात्र नहीं। परंतु यह दया तो नहीं... कर्तव्य करना है। तब?'

मुगल अपनी तलवार टेक कर उठ खड़ा हुआ। ममता ने कहा, 'क्या आश्चर्य है कि तुम भी छल करो; ठहरो।'

'छल! नहीं, तब नहीं स्त्री! जाता हूं, तैमूर का वंशधर स्त्री से छल करेगा? जाता हूं। भाग्य का खेल है।'

ममता ने मन में कहा, 'यहां कौन दुर्ग है! यही झोपड़ी न; जो चाहे ले ले, मुझे तो अपना कर्तव्य करना पड़ेगा।'वह बाहर चली आई और मुगल से बोली, 'जाओ भीतर, थके हुए भयभीत पथिक! तुम चाहे कोई हो, मैं तुम्हें आश्रय देती हूं। मैं ब्राह्मणी-कुमारी हूं; सब अपना धर्म छोड दें, तो मैं भी क्यों छोड़ दूं?'मुगल ने चंद्रमा के मंद प्रकाश में वह महिमामय मुखमंडल देखा, उसने मन ही मन नमस्कार किया। ममता पास की टूटी हुई दीवारों में चली गई। भीतर, थके पथिक ने झोपड़ी में विश्राम किया।

प्रभात में खंडहर की संधि से ममता ने देखा, सैकड़ों अश्वारोही उस प्रांत में घूम रहे हैं। वह अपनी मूर्खता पर अपने को कोसने लगी। अब उस झोपड़ी से निकलकर उस पथिक ने कहा, 'मिरजा! मैं यहां हूं।'

शब्द सुनते ही प्रसन्नता की चीत्कार ध्वनि से वह प्रांत गूंज उठा। ममता अधिक भयभीत हुई। पथिक ने कहा, 'वह स्त्री कहां है? उसे खोज निकालो।'ममता छिपने के लिए अधिक सचेष्ट हुई। वह मृग-दाव में चली गई। दिन भर उसमें से न निकली। संध्या में जब उन लोगों को जाने का उपक्रम हुआ, तो ममता ने सुना, पथिक घोड़े पर सवार होते हुए कह रहा है, 'मिरजा! उस स्त्री को मैं कुछ न दे सका। उसका घर बनवा देना, क्योंकि मैंने विपत्ति में यहां विश्राम पाया था। यह स्थान भूलना मत।'इसके बाद वे चले गए।

चौसा के मुगल-पठान युद्ध को बहुत दिन बीत गए। ममता अब सत्तर वर्ष की वृद्धा है। वह अपनी झोपड़ी में एक दिन पड़ी थी। शीतकाल का प्रभात था। उसका जीर्ण कंकाल खांसी से गूंज रहा था। ममता की सेवा के लिए गांव की दो-तीन स्त्रियां उसे घेरकर बैठी थीं, क्योंकि वह आजीवन सबके सुख-दुख की समभागिनी रही।

ममता ने जल पीना चाहा, एक स्त्री ने सीपी से जल पिलाया। सहसा एक अश्वारोही उसी झोपड़ी के द्वार पर दिखाई पड़ा। वह अपनी धुन में कहने लगा, 'मिरजा ने जो चित्र बनाकर दिया है, वह तो इसी जगह का होना चाहिए। वह बुढि़या मर गई होगी, अब किससे पूछूं कि एक दिन शहंशाह हुमायूं किस छप्पर के नीचे बैठे थे? यह घटना भी तो सैंतालीस वर्ष से ऊपर की हुई!'

ममता ने अपने विकल कानों से सुना। उसने पास की स्त्री से कहा, 'उसे बुलाओ।'

अश्वारोही पास आया। ममता ने रुक-रुक कर कहा, 'मैं नहीं जानती कि वह शंहशाह था या साधारण मुगल; पर एक दिन इसी झोपड़ी के नीचे वह रहा। मैंने सुना था कि वह मेरा घर बनवाने की आज्ञा दे चुका था। मैं आजीवन अपनी झोपड़ी खोदवाने के डर से भयभीत ही थी। भगवान से सुन लिया, मैं आज इसे छोड़े जाती हूं। अब तुम इसका मकान बनाओ या महल, मैं अपने चिर विश्राम-गृह में जाती हूं।'

वहां एक अष्टकोण बना और उस पर शिलालेख लगा- 'सातों देश के नरेश हुमायूं ने एक दिन यहां विश्राम किया था। उनके पुत्र अकबर ने उनकी स्मृति में यह गगनचुंबी मंदिर बनाया।'पर उसमें ममता का कहीं नाम नहीं। 



प्राप्ति स्रोत के लिये लिंक पर जाएं 
चित्र सौजन्यः गूगल  


 




नयी पुरानी हलचल का शनिवारीय अंक

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प्रेम और स्पर्श
दो ऐसी भावना है
जिससे कोई भी

विलग हो ही नही सकता

आईये चलते हैं आज की चुनिन्दा रचनाओं की ओर......

आज एक नये ब्लाग का प्रवेश..
ki-jaana-main-kaun में
Quiz on Indian Miniature Painting
How do we know
 



दिल की बातें में
युग
रमा अजय शर्मा


नया दिन नयी कविता में
नहीं हूँ मैं नश्वर
अशोक व्यास


सर्वश्रेष्ठ हिन्दी ब्लॉग सूची में
ख्वाजा दीन दुनिया में - राग अनुराग
Smart Indian


प्रज्ञान-विज्ञान में
सम्बन्ध कवि-कविता का
जयप्रकाश तिवारी



कविता रावत में
तन-मन की थकन दूर करती है योग निन्द्रा
कविता रावत



मुशायरा में
अज़ीब शख़्स था, आँखों में ख़्वाब छोड़ गया
'श्रद्धा'जैन



उच्चारण में
"दम घुटता है आज वतन में"
रूपचन्द्र शास्त्री मयंक



उलूक टाइम्स में
और अंधा ‘उलूक’ देखने चला आता है
सुशील कुमार जोशी



खामोशियाँ...!!! में
आओ फिर से मुठ्ठी बांधे
मिश्रा राहुल



भारती दास में
प्रभु की लाठी
भारती दास



दिल का दर्पण में
गीत
मोहिन्दर कुमार





आज बस इतना ही...
आज्ञा मांगती है यशोदा
सादर




 



 



 



 




















बच्चों का अनोखा सत्याग्रह .....!

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नमस्ते !
हलचल की रविवारीय प्रस्तुति मे पेश हैं कुछ चुने हुए लिंक्स -







और अंत मे इस गीत का आनंद लेते हुए इजाज़त दीजिये यशवंत यश को-
 

रोटी और स्वाधीनता -रामधारी सिंह "दिनकर"

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(1)
आजादी तो मिल गई, मगर, यह गौरव कहाँ जुगाएगा ?
मरभुखे ! इसे घबराहट में तू बेच न तो खा जाएगा ?
आजादी रोटी नहीं, मगर, दोनों में कोई वैर नहीं,
पर कहीं भूख बेताब हुई तो आजादी की खैर नहीं।
(2)
हो रहे खड़े आजादी को हर ओर दगा देनेवाले,
पशुओं को रोटी दिखा उन्हें फिर साथ लगा लेनेवाले।
इनके जादू का जोर भला कब तक बुभुक्षु सह सकता है ?
है कौन, पेट की ज्वाला में पड़कर मनुष्य रह सकता है ?
(3)
झेलेगा यह बलिदान ? भूख की घनी चोट सह पाएगा ?
आ पड़ी विपद तो क्या प्रताप-सा घास चबा रह पाएगा ?
है बड़ी बात आजादी का पाना ही नहीं, जुगाना भी,
बलि एक बार ही नहीं, उसे पड़ता फिर-फिर दुहराना भी।

 साभार -कविता कोश 

आज नयी पुरानी हलचल में

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यशोदा आपके सम्मुख है
नयी पुरानी हलचल का
बुधवारीय अंक लेकर....नमस्कार

चलते हैं आज की शांत हलचल की ओर ........


शान्तम् सुखाय में
आप कहते हैं
भगीरथ कनकानी



स्पंदन में
जिम्मेदार कौन ???
शिखा वर्ष्णेय



लम्हों का सफ़र में
झाँकती खिड़की
डॉ. जेन्नी शबनम 



आवारगी में
दयार -ए -दिल की रात में,
लोरी अली



अनकही बातें पर
सोचें तो वो कि जिन्हें है चाहत छूने की आसमान...
विशाल चर्चित



हृदयानुभूति में
समर्पित !
इन्दुरवि सिंह



अनकही बातें पर
सोचें तो वो कि जिन्हें है चाहत छूने की आसमान...
विशाल चर्चित



स्वप्न मेरे में
मील के पत्थर कभी इस रह-गुज़र के देखना ...
दिगम्बर नासवा



कविता रावत में
तीस बरस बीत गए भोपाल गैस त्रासदी के
कविता रावत



चिकोटी में
ज्योतिष और शिक्षा मंत्री
अंशुमाली रस्तोगी



जो मेरा मन कहे में
यूं ही इसी तरह
यशवन्त यश



उधेड़-बुन में
बर्फ़ चली गई और सर्दी छोड़ गई
राहुल उपाध्याय



मनोरमा में
सुन गूँगे की बोल
श्यामल सुमन


आज बस इतना ही
फिर मिलेंगे

इज़ाज़त दें
यशोदा


 


 


 


 



 


 



 


 



 



 


 


 


 





शांत झील के दर्पण पर

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नमस्ते 
हलचल की गुरुवारीय प्रस्तुति मे आपका स्वागत है-

क्या जो मैनें पा लिया 




 

और अंत मे इस गीत के साथ ही इजाज़त दीजिये यशवंत यशको-
 

शहर और हादसा.....दो कविताएं..... अमृता प्रीतम

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 अमृता प्रीतम
अमृता प्रीतम (१९१९-२००५) पंजाबी के सबसे लोकप्रिय लेखकों में से एक थी। पंजाब के गुजराँवाला जिले में पैदा हुईं अमृता प्रीतम को पंजाबी भाषा की पहली कवयित्री माना जाता है। उन्होंने कुल मिलाकर लगभग १०० पुस्तकें लिखी हैं जिनमें उनकी चर्चित आत्मकथा 'रसीदी टिकट'भी शामिल है। अमृता प्रीतम उन साहित्यकारों में थीं जिनकी कृतियों का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। अपने अंतिम दिनों में अमृता प्रीतम को भारत का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान पद्मविभूषण भी प्राप्त हुआ। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से पहले ही अलंकृत किया जा चुका था।

अमृता प्रीतम का जन्म १९१९ में गुजरांवाला पंजाब में हुआ। बचपन बीता लाहौर में, शिक्षा भी वहीं हुई। किशोरावस्था से लिखना शुरू किया: कविता, कहानी और निबंध। प्रकाशित पुस्तकें पचास से अधिक। महत्त्वपूर्ण रचनाएं अनेक देशी विदेशी भाषाओं में अनूदित की गई।

१९५७ में साहित्य अकादमी पुरस्कार, १९५८ में पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत, १९८८ में बल्गारिया वैरोव पुरस्कार;(अन्तर्राष्ट्रीय) और १९८२ में भारत के सर्वोच्च साहित्त्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित। उन्हें अपनी पंजाबी कविता अज्ज आखाँ वारिस शाह नूँ के लिए बहुत प्रसिद्धी प्राप्त हुई। इस कविता में भारत विभाजन के समय पंजाब में हुई भयानक घटनाओं का अत्यंत दुखद वर्णन है और यह भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में सराही गयी।
.......मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से


आज पढ़िये उनकी चुनी हुई कविताओं में से दो कविता


बरसों की आरी हंस रही थी
घटनाओं के दांत नुकीले थे
अकस्मात एक पाया टूट गया
आसमान की चौकी पर से
शीशे का सूरज फिसल गया

आंखों में ककड़ छितरा गये
और नजर जख्मी हो गयी
कुछ दिखायी नहीं देता
दुनिया शायद अब भी बसती है 


मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है
सड़कें - बेतुकी दलीलों-सी…
और गलियाँ इस तरह
जैसे एक बात को कोई इधर घसीटता
कोई उधर

हर मकान एक मुट्ठी-सा भिंचा हुआ
दीवारें-किचकिचाती सी
और नालियाँ, ज्यों मुँह से झाग बहता है

यह बहस जाने सूरज से शुरू हुई थी
जो उसे देख कर यह और गरमाती
और हर द्वार के मुँह से
फिर साईकिलों और स्कूटरों के पहिये
गालियों की तरह निकलते
और घंटियाँ-हार्न एक दूसरे पर झपटते

जो भी बच्चा इस शहर में जनमता
पूछता कि किस बात पर यह बहस हो रही?
फिर उसका प्रश्न ही एक बहस बनता
बहस से निकलता, बहस में मिलता…

शंख घंटों के साँस सूखते
रात आती, फिर टपकती और चली जाती

पर नींद में भी बहस ख़तम न होती
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है…. 

प्राप्ति स्रोत
1) मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
2) कविता कोष से.....
कृपया कविता के शीर्षक को क्लिक कर  
में जा कर अमृता प्रीतम जी की
लोकप्रिय कविताओं का पठन कर सकते हैं

हलचल शनिवार की

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हलचल शनिवार की
थोड़ी आसान सी
शुरुआत ....
बृहस्पतिवार को प्रकाशित ब्लागों से...


आइये चलें.. 


कतरब्योंत में
जीतेगा सबसे बड़ा झुट्ठा
अशोक मिश्रा



अमृता तन्मय में
मेरे ग्रीष्म !
अमृता तन्मय



रचनाकार में
प्रमोद यादव का व्यंग्य - भाई जी की मूर्ति
रविशंकर श्रीवास्तव



काव्यसुधा में
माँ है मेरी वो
नीरज कुमार नीर



हिन्दीकुंज में
सो जा बिटिया रानी
आशुतोष दुबे



सरोकार में
गृहस्थी : कुछ क्षणिकाएं
अरुण चन्द्र रॉय 



उलूक टाइम्स में
बिना नोक की कील जैसा लिखा नहीं
ठोका जा सकता सोच में
कितना भी बड़ा हो हथौड़ा
सुशील कुमार जोशी



लहरें में
सम पीपल वॉक इनटु योर लाईफ 

जस्ट फॉर द पर्फेक्ट गुडबाय
पूजा उपाध्याय



आपका ब्लॉग में
एहसासों की प्यास .....
इंतज़ार सेठी 



मन का मंथन में
केवल शस्त्र चलाते हैं अश्वस्थामा की तरह।
कुलदीप ठाकुर



आकांक्षा में
सर्दी में
आशा सक्सेना



आधा सच में
आखिर कैमरे पर पकड़े गए केजरीवाल !
महेन्द्र श्रीवास्तव



उड़ान में
दूरियां
अनुषा मिश्रा



Love में
हँसी
रेवा टिबड़ेवाल
 

और अंत में शुभकामनाएं
चिर जीवहि जोरी जुगल

उच्चारण में
"42वीं वैवाहिक वर्षगाँठ"
रूपचन्द्र शास्त्री मयंक 


आज्ञा दें
यशोदा


 


 



 




 



 



 



 




 



 


 



 

उम्मीद महज़..........मोहब्बत है !!

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नमस्ते
हलचल की रविवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है
इन चुनिन्दा लिंक्स के साथ -









और अंत मे इस गीत का आनंद लेते हुए  इजाज़त दीजिये यशवन्त यश को

शैल चतुर्वेदी..... एक ऐसे कवि जो आल इन वन थे

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 शैल चतुर्वेदी
29 जून 1936 -29 अक्टूबर 2007
आप हिंदी के प्रसिद्ध हास्य कवि, गीतकार
और बॉलीवुड के चरित्र अभिनेता थे। 

प्रस्तुत है उनकी एक व्यंग्य कविता

 

हमनें एक बेरोज़गार मित्र को पकड़ा
और कहा, "एक नया व्यंग्य लिखा है, सुनोगे?"
तो बोला, "पहले खाना खिलाओ।"
खाना खिलाया तो बोला, "पान खिलाओ।"
पान खिलाया तो बोला, "खाना बहुत बढ़िया था
उसका मज़ा मिट्टी में मत मिलाओ।
अपन ख़ुद ही देश की छाती पर जीते-जागते व्यंग्य हैं
हमें व्यंग्य मत सुनाओ
जो जन-सेवा के नाम पर ऐश करता रहा
और हमें बेरोज़गारी का रोजगार देकर
कुर्सी को कैश करता रहा।

व्यंग्य उस अफ़सर को सुनाओ
जो हिन्दी के प्रचार की डफली बजाता रहा
और अपनी औलाद को अंग्रेज़ी का पाठ पढ़ाता रहा।
व्यंग्य उस सिपाही को सुनाओ
जो भ्रष्टाचार को अपना अधिकार मानता रहा
और झूठी गवाही को पुलिस का संस्कार मानता रहा।
व्यंग्य उस डॉक्टर को सुनाओ
जो पचास रूपये फ़ीस के लेकर
मलेरिया को टी०बी० बतलाता रहा
और नर्स को अपनी बीबी बतलाता रहा।

व्यंग्य उस फ़िल्मकार को सुनाओ
जो फ़िल्म में से इल्म घटाता रहा
और संस्कृति के कपड़े उतार कर सेंसर को पटाता रहा।
व्यंग्य उस सास को सुनाओ
जिसने बेटी जैसी बहू को ज्वाला का उपहार दिया
और व्यंग्य उस वासना के कीड़े को सुनाओ
जिसने अपनी भूख मिटाने के लिए
नारी को बाज़ार दिया।
व्यंग्य उस श्रोता को सुनाओ
जो गीत की हर पंक्ति पर बोर-बोर करता रहा
और बकवास को बढ़ावा देने के लिए
वंस मोर करता रहा।

व्यंग्य उस व्यंग्यकार को सुनाओ
जो अर्थ को अनर्थ में बदलने के लिए
वज़नदार लिफ़ाफ़े की मांग करता रहा
और अपना उल्लू सीधा करने के लिए
व्यंग्य को विकलांग करता रहा।

और जो व्यंग्य स्वयं ही अन्धा, लूला और लंगड़ा हो
तीर नहीं बन सकता
आज का व्यंग्यकार भले ही "शैल चतुर्वेदी"हो जाए
'कबीर'नहीं बन सकता।


शैल चतुर्वेदी
प्राप्ति स्रोत
कविता कोश 



यूँ माना ज़ि‍न्दगी है चार दिन की ...... फ़िराक़ गोरखपुरी

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यूँ माना ज़ि‍न्दगी है चार दिन की
बहुत होते हैं यारो चार दिन भी

ख़ुदा को पा गया वायज़ मगर है
ज़रूरत आदमी को आदमी की

बसा-औक्रात1दिल से कह गयी है
बहुत कुछ वो निगाहे-मुख़्तसर भी

मिला हूँ मुस्कुरा कर उससे हर बार
मगर आँखों में भी थी कुछ नमी-सी

महब्बत में करें क्या हाल दिल का
ख़ुशी ही काम आती है न ग़म की

भरी महफ़ि‍ल में हर इक से बचा कर
तेरी आँखों ने मुझसे बात कर ली

लड़कपन की अदा है जानलेवा
गज़ब ये छोकरी है हाथ-भर की

है कितनी शोख़, तेज़ अय्यामे-गुल2पर
चमन में मुस्कुहराहट कर कली की

रक़ीबे-ग़मज़दा3अब सब्र कर ले
कभी इससे मेरी भी दोस्ती थी

1- कभी-कभी, 2- बहार के दिन, 3- दुखी प्रतिद्वन्द्वी 

बुधवारीय हलचल....

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आज तो मैं सो ही गई थी
अभी याद आया अरे...........

कल बुधवार है
पेश है आनन-फानन पोस्ट.....



काव्य संसार में
अपनी अपनी अर्जी
मदनमोहन बाहेती 'घोटू'



शब्दों का सफर में
 //थाँके टिपे नी काँईं ?//
अजित वडनेरकर 



मेरे हिस्से की धूप में 
समाधान हमारे हाथ में है ............
सरस दरबारी



फूल और काँटे में
संस्मरण -वह चाँद सा मुखड़ा
सुधाकल्प 



ज़िन्दगी रंग शब्द में
सब तिलस्मयी
जयश्री वर्मा



देहात में
इच्छा मृत्यु बनाम संभावित मृत्यु की जानकारी
राजीव कुमार झा



राम राम भाई में
कदली सीप भुजंग मुख ,स्वाति एक गुण तीन ,
वीरेन्द्र कुमार शर्मा



उलूक टाइम्स में
किसी के दिल को कैसे टटोला जाता है कहीं भी तो नहीं बताया जाता है
सुशील कुमार जोशी



स्पर्श में
मुट्ठियाँ
दीप्ति शर्मा



जिंदगी की राहें में
समझिये, आप प्यार में हैं !!
मुकेश कुमार सिन्हा



आज बस इतना ही
इज़ाज़त दीजिये यशोदा को


सादर


 



 


 


 




 


 


 


 





आज की हलचल में देश के लिए दौड़'

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नमस्ते !
हलचल की गुरुवारीय प्रस्तुति मे 
पेश ए खिदमत हैं 
कुछ चुनिन्दा लिंक्स -





 


 घर 




और अंत में इस गीत के साथ ही इजाज़त दीजियेयशवन्त यश को -



छोटी सी बात: कारिन बुवेए की एक कविता

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स्वीडिश से हिन्दी अनुवाद : अनुपमा पाठक जी 

क्या आप एक और कदम नहीं चल सकते,
उठा नहीं सकते क्या अपना मस्तक एकबार,
कराहते हों जब आप थके हारे निराशाजनक धुंधलेपन में --
तब हो संतुष्ट, आभार मानिए सामान्य सी, छोटी चीज़ों का,
जो है धीरज देने वालीं व बाल-सुलभ.
आपके पास जेब में है एक सेब,
घर पर परियों की कहानियों की है एक क़िताब --
छोटी छोटी तुच्छ चीज़ें, जो रहीं तिरस्कृत
जीवन के उन्मुक्त, जीवंत समय में,
उन्होंने ही थामे रखा मृत्यु की सी नीरवता के अन्धकार में.


मूल स्वीडिश कविता-
Små ting

Orkar du inte ett steg mer,
inte lyfta ditt huvud,
dignar du trött under hopplös gråhet --
tacka då nöjd de vänliga, små tingen,
tröstande, barnsliga.
Du har ett äpple i fickan,
en bok med sagor där hemma --
små, små ting, föraktade
i den tid, som strålade levande,
men milda fästen under de döda timmarna.

-Karin Boye 

स्रोत -अनुपमा जी का ब्लॉग 

आइफोन-6 और पत्नी की जिद्द.... शनिवार के अंक मे

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बहुत बड़ी गलती हो गई आज
लिंक चयन का सूचना मे दिनांक
गलत लिख दी
वास्तव में

चल गया है दिमाग मेरा
और कुछ ज़ियादा ही चल गया
खैर.... भूल सुधार कर रही हूँ

प्रस्तुत है आज की चुनिन्दा रचनाओ के शीर्षक......

कबाड़खाना में
मृत्यु सिर्फ़ मृत्यु को देखती है - अदूनिस
अशोक पाण्डे



उजाले उनकी यादों के में
छोटा जादूगर / जयशंकर प्रसाद
कुलदीप ठाकुर 



चिकोटी में
आइफोन-6 और पत्नी की जिद्द
अंशुमाली रस्तोगी



लालित्यम् में
'हलो ,हलो,' - क्यों करते हैं ?
प्रतिभा सक्सेना



मन पाए विश्राम जहाँ में
इक अकुलाहट प्राणों में
अनीता निहलानी



प्रतिभा की दुनिया में
तुम्हारा होना...
प्रतिभा कटियार



सपने में
"माँ सहेली खो गई है "
शशि पुरवार



ज़िन्दगी…एक खामोश सफ़र में
'तुम्हारा तुमको अर्पण'
वन्दना गुप्ता


क्यूं जीते-जी हिम्मत हारें 
क्यूं फ़रियादें 
क्यूं ये पुकारे
होते-होते हो जाएगा 

आख़िर जो भी होना होगा

और ज्यादा गलतियाँ न हो
इस अंक को यहीं विराम देती हूँ

आज्ञा....मांगती हूँ आज
यशोदा


बड़ा शहर vs अपना शहर

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एक हिन्दी व्यंग्य और फिल्म पटकथा लेखक.....के पी सक्सेना

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के पी सक्सेना (जन्म: 1934 बरेली- मृत्यु: 31 अक्टूबर 2013 लखनऊ) भारत के एक हिन्दी व्यंग्य और फिल्म पटकथा लेखक थे। साहित्य जगत में उन्हें केपी के नाम से अधिक लोग जानते थे।

उनकी गिनती वर्तमान समय के प्रमुख व्यंग्यकारों में होती है। हरिशंकर परसाई और शरद जोशी के बाद वे हिन्दी में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले व्यंग्यकार थे। उन्होंने लखनऊ के मध्यवर्गीय जीवन को लेकर अपनी रचनायें लिखीं। उनके लेखन की शुरुआत उर्दू में उपन्यास लेखन के साथ हुई थी लेकिन बाद में अपने गुरु अमृत लाल नागर की सलाह से हिन्दी व्यंग्य के क्षेत्र में आ गये। उनकी लोकप्रियता इस बात से ही आँकी जा सकती है कि आज उनकी लगभग पन्द्रह हजार प्रकाशित फुटकर व्यंग्य रचनायें हैं जो स्वयं में एक कीर्तिमान है। उनकी पाँच से अधिक फुटकर व्यंग्य की पुस्तकों के अलावा कुछ व्यंग्य उपन्यास भी छप चुके हैं।

भारतीय रेलवे में नौकरी करने के अलावा हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के लिये व्यंग्य लिखा करते थे। उन्होंने हिन्दी फिल्म लगान, हलचल और स्वदेश की पटकथायें भी लिखी थी ।

उन्हें 2000 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। वे कैंसर से पीड़ित थे। उनका निधन 31 अक्टूबर 2013 को लखनऊ में हुआ।


पढिये उनकी एक व्यंग्य रचना.........



आँख मुलमुल...गाल...गुलगुल...बदन थुलथुल, मगर आवाज बुलबुल ! वे मात्र वन पीस तहमद में लिपटे, स्टूल पर उकडूं बैठे, बीड़ी का टोटा सार्थक कर रहे थे ! रह-रह कर अंगुलियों पर कुछ गिन लेते और बीड़ी का सूंटा फेफड़ों तक खींच डालते थे! जहां वे बैठे थे वहाँ कच्ची पीली ईंट का टीन से ढका भैंसों का एक तवेला था ! न कोई खिड़की न रौशनदान ! शायद उन्हें डर था कि भैंसें कहीं रोशनदान के रास्ते ख़िसक ने जाएं ! सुबह सवेरे का टाइम था और भैंसें शायद नाश्तोपराँत टहलने जा चुकी थीं ! तवेला खाली पड़ा था ! उन्होंने मुझे भर आँख देखा भी नहीं और बीड़ी चूसते हुए अंगुलियों पर अपना अन्तहीन केल्क्यूलेशन जोड़ते रहे !...

मैंने उनसे सन्दलवुड चिल्डन स्कूल का रास्ता पूछा तो उनकी आंखों और बीड़ी में एक नन्ही सी चमक उभरी !...धीरे से अंगुली आकाश की ओर उठा दी गोया नया चिल्ड्रन स्कूल कहीं अन्तरिक्ष में खुला हो ! मगर मैं उनका संकेत समझ गया ! नजर ऊपर उठाई तो तवेले की टीन के ऊपर एक तख्ती नजर आई, जिस पर गोराशाही अंग्रेजी में कोयले से लिखा था-दि सन्दलवुड चिल्ड्रन स्कूल !...प्रवेश चालू ! इंगलिश मीडियम से कक्षा ६ तक मजबूत पढ़ाई ! प्रिन्सिपल से मिलें !...

'तख्ती पढ़कर मैं दंग रह गया !...यही है चंदन लकड़ी स्कूल ?...चंदन दर किनार, कहीं तारपीन या कोलतार तक की बू नहीं थी ! मेरी मजबूरी अपनी जगह थी ! मुहल्ले के गनेशी लाल के पोते के दाखले की जिम्मेदारी मुझ पर थी ! खुद गनेशी लाल उम्र भर पढ़ाई लिखाई की इल्लत से पाक रहे और अपने बेटे को भी पाक रखा ! सिर्फ गुड़ की किस्में जान लीं और खान्दानी कारोबार चलाते रहे ! मगर पोता ज्यों ही नेकर में पांव डालने की उम्र को पहुंचा, उनकी पतोहू ने जिद पकड़ ली कि छुटकन्ना पढ़ि़ है जरूर, और वह भी निखालिस इंगलिश मीडियम से !...उसकी नजर में हिन्दी मीडियम से पढ़ने से बेहतर है कि गुड़ बेच ले !

पतोहू ने अपने मैके में देखा कि अंग्रेजी मीडियम से पढ़े छोकरे कैसे फट-फट आपस में इंगलिश में गाली गलौज करते हैं !...एक स्मार्टनेस सी रहती है सुसरी !...चुनांचे गनेशी लाल मेरे पीछे पड़ गये कि छोकरे को कहीं अंग्रेजी मीडियम में डलवा ही दूं !...उधर जुलाई-अगस्त की झड़ी लगते ही चिल्ड्रन स्कूलों में वह किच-किच होती है कि आदमी अपना मरा हुआ बाप भले ही दोबारा हासिल कर ले, मगर बच्चे को स्कूल में नहीं ठूंस सकता !...

अंग्रेजी के 'डोनेशन'और हिन्दी के 'अनुदान'का फर्क इसी वक्त समझ में आता है आदमी को ! अनुदान के बीस रूपयों में बच्चा हिन्दी मीडियम में धंस जाता है, मगर डोनेशन तीन अंकों से नीचे होता ही नहीं !...अंग्रेजी की ग्रेटनेस का पता यहीं पर चलता है ! खैर...! शिक्षा सन्दर्भ में यह एक अच्छी बात है कि बारिश में फूली लकड़ी पर उगे

कुकुरमुत्तों की तरह, जुलाई-अगस्त में चिल्ड्रन स्कूल भी दनादन उग आते हैं ! हर गली-मुहल्ले में भूतपूर्व लकड़ी की टालों और हलवाईयों की दुकानों पर नर्सरी मोन्टेसरी स्कूलों के बोर्ड टंग जाते हैं ! हर साइन बोर्ड का यही दावा होता है कि हमारे यहाँ बच्चा माँ की गोद जैसा सुरक्षित रहेगा और आगे चलकर बेहद नाम कमायेगा !...ऐसे ही दुर्लभ तथा नये उगे स्कूलों में 'सन्दल वुड चिल्ड्रन स्कूल'का नाम भी मेरे कान में पड़ा था !

नाम में ही चंदन सी महक और हाली-वुड जैसी चहक थी !...और अब मैं टीन जड़ीत, रोशनदान रहित उसी स्कूल के सामने खड़ा था !... बीड़ी तहमद वाले थुलथुल सज्जन ने आखिरी कश खींच कर बीड़ी को सदगति तक पहुंचाया, और तहमद के स्वतन्त्र कोने से मुंह पोंछ कर आंखों ही आंखों में पूछा कि क्या चाहिए ?...मैंने दोनों हाथों से बच्चे का साइज बताया और धीरे से पूछा कि प्रिंसिपल कहाँ हैं...कब उपलब्ध होंगे ? वे भड़क गये ! गुर्रा कर बोले-'हम आपको क्या नजर आवे हैं ? टाई-कमीज अन्दर टंगी है तो हम प्रिन्सिपल नहीं रहे ? जरा बदन को हवा दे रहे थे ! आप बच्चा और फीस उठा लाइए ! भर्ती कर लेंगे ! '

मैं सटपटा गया और इस बार उन्हें उस ढंग से अभिवादन पेश किया जिस ढंग से अमूमन अंग्रेजी मीडियम से होता है ! यह पूछने पर कि बाकी टीचिंग स्टाफ कहाँ है, उन्होंने बताया कि बाकी का स्टाफ भी वह खुद ही हैं ! क्लास थ्री स्टाफ भी, और क्लास फोर (झाडू, पोंछा, सफाई) भी !...दो अदद लेडी टीचर्स भी हैं, जिनमें से एक उनकी मौजूदा पत्नी हैं और दूसरी भूतपूर्व ! फिलहाल दोनों घर में लड़ाई-झगड़े में मसरूफ हैं ! चट से टीचिंग सेशन शुरू होते ही आ जाएगी !...अभी कुल तेईस बच्चे नामजद हुए हैं ! पच्चीस पूरे होते ही ब्लैक बोर्ड मंगवा लेंगे और पढ़ाई जो है उसे शुरू करवा देंगे !...मुझे तसल्ली हुई ! डरते-डरते पूछा-खिड़कियां, रोशनदानों, पंखों और बैंचों वगैरा का झंझट आपने क्यों नहीं रखा ?'...

वे दूरदर्शी हो गए !...आप चाहते हैं कि बच्चों को अभी से आराम तलब बना दें ?... ग्लासगो कभी गए हैं आप ? वहाँ के सन चालीस के पैटर्न पर हमने स्कूल शुरू किया है ! बच्चों को, उसे क्या कहते हैं...हां...हार्डशिप की आदत डालनी होगी !...फिर धीरे-धीरे सब कुछ हो जइहे !...अगले साल रोशनदान खुलवा देंगे...फिर अगले साल पंखों वगैरा की देखी जाएगी !...पईसा चाहिए, कि नाहीं चाहिए ?...पच्चीस बच्चों की फीस लईके सुरू में ही आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी खोल दें का ?...टाइम पास होते-होते सब कुछ हुई जयिहे !...बच्चा ले आवो !...दो ही सीटें बची हैंगी !...

'सो साहब, चंदन वुड चिल्ड्रन स्कूल के प्रधानाचार्य के श्रीवचन सुनकर मैं काफी से भी अधिक प्रभावित हुआ ! सारी हिम्मत बटोर कर एक अन्तिम प्रश्न पूछा- 'माहसाब ! वैसे तो अपने इण्डिया में चारे-भूसे की कमी चाहे भले ही हो, मगर बच्चों का टोटा नहीं है ! फिर भी मगर दो बच्चे और न हाथ लगे तो क्या आप स्कूल डिजाल्व कर देंगे ?'वे पुन: भड़क गये !...आये गए सूबे-सूबे नहूसत फैलाने !... जिस भगवान ने तेईस बच्चे दिये, वह दो और नाहीं भेजिहे का ? डिजालव कर भी दें तो कौन सी भुस में लाठी लग जईहे ?...पहले इस टीन में पक्के कोयला कर गुदाम रहा !...सोचा कि इस्कूल डाल लें ! डाल लिया !...इन्ते पढ़े लिखे हैंगे कि कक्षा ६ तक पढ़ाये ले जावें ! नाहीं चल पईहे इस्कूल तो कोयले का लैसंस कोई खारिज हुई गवा है का ?...लपक के बच्चा लै आओ !...'मैं लपक कर चल पड़ा !...

रास्ते भर प्रधानाचार्य की उस अंग्रेजी से प्रभावित रहा जो एक फिल्मी गाने 'आकाश में पंछी गाइंग...भौरां बगियन में गाइंग'जैसी थी ! मास्साब दूर तक टकटकी बांधे मुझे उम्मीदवार नजरों से देख रहे थे, गोया कह रहे हों-बच्चा लईहे जरूर ! जईहे कहां ? इधर मैं यह सोच रहा था कि गनेशी लाल के पोते के भविष्य के लिए गुड़ बेचना मुनासिब रहेगा या सन्दलवुड चिल्ड्रन स्कूल में अंग्रेजी मीडियम से शिक्षा अर्जित करना ?...


(नोट-यदि किसी स्कूल का नाम यही हो, 
तो अन्यथा न लें ! नाम काल्पनिक है !...)

-के पी सक्सेना

प्राप्ति स्रोतः विकी पीडिया  एवं ब्लाग रचनाकार

एक मध्यवर्गीय कुत्ता - हरिशंकर परसाई

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मेरे मित्र की कार बंगले में घुसी तो उतरते हुए मैंने पूछा,
“इनके यहां कुत्ता तो नहीं है?“
मित्र ने कहा, “तुम कुत्ते से बहुत डरते हो!”
मैंने कहा, “आदमी की शक्ल में कुत्ते से नहीं डरता. उनसे निपट लेता हूं. पर सच्चे कुत्ते से बहुत डरता हूं.“
कुत्तेवाले घर मुझे अच्छे नहीं लगते. वहां जाओ तो मेजबान के पहले कुत्ता भौंककर स्वागत करता है. अपने स्नेही से “नमस्ते“ हुई ही नहीं कि कुत्ते ने गाली दे दी- “क्यों यहां आया बे? तेरे बाप का घर है? भाग यहां से !”
फिर कुत्ते का काटने का डर नहीं लगता- चार बार काट ले. डर लगता है उन चौदह बड़े इंजेक्शनों का जो डॉक्टर पेट में घुसेड़ता है. यूं कुछ आदमी कुत्ते से अधिक ज़हरीले होते हैं. एक परिचित को कुत्ते ने काट लिया था. मैंने कहा,
”इन्हें कुछ नहीं होगा. हालचाल उस कुत्ते का पूछो और इंजेक्शन उसे लगाओ.”
एक नये परिचित ने मुझे घर पर चाय के लिए बुलाया. मैं उनके बंगले पर पहुंचा तो फाटक पर तख्ती टंगी दीखी-
”कुत्ते से सावधान !” मैं फ़ौरन लौट गया.
कुछ दिनों बाद वे मिले तो शिकायत की,
”आप उस दिन चाय पीने नहीं आये.” मैंने कहा,

“माफ़ करें. मैं बंगले तक गया था. वहां तख्ती लटकी थी- ‘कुत्ते से सावधान.‘ मेरा ख़्याल था, उस बंगले में आदमी रहते हैं. पर नेमप्लेट कुत्ते की टंगी हुई दीखी.“
यूं कोई-कोई आदमी कुत्ते से बदतर होता है. मार्क ट्वेन ने लिखा है- ‘यदि आप भूखे मरते कुत्ते को रोटी खिला दें, तो वह आपको नहीं काटेगा.‘ कुत्ते में और आदमी में यही मूल अंतर है.
बंगले में हमारे स्नेही थे. हमें वहां तीन दिन ठहरना था. मेरे मित्र ने घण्टी बजायी तो जाली के अंदर से वही ”भौं-भौं” की आवाज़ आयी. मैं दो क़दम पीछे हट गया. हमारे मेजबान आये. कुत्ते को डांटा- ‘टाइगर, टाइगर!’ उनका मतलब था- ‘शेर, ये लोग कोई चोर-डाकू नहीं हैं. तू इतना वफ़ादार मत बन.‘
कुत्ता ज़ंजीर से बंधा था. उसने देख भी लिया था कि हमें उसके मालिक खुद भीतर ले जा रहे हैं पर वह भौंके जा रहा था. मैं उससे काफ़ी दूर से लगभग दौड़ता हुआ भीतर गया. मैं समझा, यह उच्चवर्गीय कुत्ता है. लगता ऐसा ही है. मैं उच्चवर्गीय का बड़ा अदब करता हूं. चाहे वह कुत्ता ही क्यों न हो. उस बंगले में मेरी अजब स्थिति थी. मैं हीनभावना से ग्रस्त था- इसी अहाते में एक उच्चवर्गीय कुत्ता और इसी में मैं! वह मुझे हिकारत की नज़र से देखता.
शाम को हम लोग लॉन में बैठे थे. नौकर कुत्ते को अहाते में घुमा रहा था. मैंने देखा, फाटक पर आकर दो ‘सड़किया‘ आवारा कुत्ते खड़े हो गए. वे सर्वहारा कुत्ते थे. वे इस कुत्ते को बड़े गौर से देखते. फिर यहां-वहां घूमकर लौट आते और इस कुत्ते को देखते रहते. पर यह बंगलेवाला उन पर भौंकता था. वे सहम जाते और यहां-वहां हो जाते. पर फिर आकर इस कु्ते को देखने लगते. मेजबान ने कहा,
“यह हमेशा का सिलसिला है. जब भी यह अपना कुत्ता बाहर आता है, वे दोनों कुत्ते इसे देखते रहते हैं.“
मैंने कहा, “पर इसे उन पर भौंकना नहीं चाहिए. यह पट्टे और ज़ंजीरवाला है. सुविधाभोगी है. वे कुत्ते भुखमरे और आवारा हैं. इसकी और उनकी बराबरी नहीं है. फिर यह क्यों चुनौती देता है!”
रात को हम बाहर ही सोए. ज़ंजीर से बंधा कुत्ता भी पास ही अपने तखत पर सो रहा था. अब हुआ यह कि आसपास जब भी वे कुत्ते भौंकते, यह कुत्ता भी भौंकता. आखिर यह उनके साथ क्यों भौंकता है? यह तो उन पर भौंकता है. जब वे मोहल्ले में भौंकते हैं तो यह भी उनकी आवाज़ में आवाज़ मिलाने लगता है, जैसे उन्हें आश्वासन देता हो कि मैं यहां हूं, तुम्हारे साथ हूं.
मुझे इसके वर्ग पर शक़ होने लगा है. यह उच्चवर्गीय कुत्ता नहीं है. मेरे पड़ोस में ही एक साहब के पास थे दो कुत्ते. उनका रोब ही निराला ! मैंने उन्हें कभी भौंकते नहीं सुना. आसपास के कुत्ते भौंकते रहते, पर वे ध्यान नहीं देते थे. लोग निकलते, पर वे झपटते भी नहीं थे. कभी मैंने उनकी एक धीमी गुर्राहट ही सुनी होगी. वे बैठे रहते या घूमते रहते. फाटक खुला होता, तो भी वे बाहर नहीं निकलते थे. बड़े रोबीले, अहंकारी और आत्मतुष्ट.
यह कुत्ता उन सर्वहारा कुत्तों पर भौंकता भी है और उनकी आवाज़ में आवाज़ भी मिलाता है. कहता है-
‘मैं तुममें शामिल हूं.‘ उच्चवर्गीय झूठा रोब भी और संकट के आभास पर सर्वहारा के साथ भी- यह चरित्र है इस कुत्ते का. यह मध्यवर्गीय चरित्र है. यह मध्यवर्गीय कुत्ता है. उच्चवर्गीय होने का ढोंग भी करता है और सर्वहारा के साथ मिलकर भौंकता भी है. तीसरे दिन रात को हम लौटे तो देखा, कुत्ता त्रस्त पड़ा है. हमारी आहट पर वह भौंका नहीं,
थोड़ा-सा मरी आवाज़ में गुर्राया. आसपास वे आवारा कुत्ते भौंक रहे थे, पर यह उनके साथ भौंका नहीं. थोड़ा गुर्राया और फिर निढाल पड़ गया. मैंने मेजबान से कहा,
“आज तुम्हारा कुत्ता बहुत शांत है.“
मेजबान ने बताया, “आज यह बुरी हालत में है. हुआ यह कि नौकर की गफ़लत के कारण यह फाटक से बाहर निकल गया. वे दोनों कुत्ते तो घात में थे ही. दोनों ने इसे घेर लिया. इसे रगेदा. दोनों इस पर चढ़ बैठे. इसे काटा. हालत ख़राब हो गयी. नौकर इसे बचाकर लाया. तभी से यह सुस्त पड़ा है और घाव सहला रहा है. डॉक्टर श्रीवास्तव से कल इसे इंजेक्शन दिलाउंगा.“
मैंने कुत्ते की तरफ़ देखा. दीन भाव से पड़ा था. मैंने अन्दाज़ लगाया. हुआ यों होगा-
यह अकड़ से फाटक के बाहर निकला होगा. उन कुत्तों पर भौंका होगा. उन कुत्तों ने कहा होगा-
“अबे, अपना वर्ग नहीं पहचानता. ढोंग रचता है. ये पट्टा और ज़ंजीर लगाये हैं. मुफ़्त का खाता है. लॉन पर टहलता है. हमें ठसक दिखाता है. पर रात को जब किसी आसन्न संकट पर हम भौंकते हैं, तो तू भी हमारे साथ हो जाता है. संकट में हमारे साथ है, मगर यों हम पर भौंकेगा. हममें से है तो निकल बाहर. छोड़ यह पट्टा और ज़ंजीर. छोड़ यह आराम. घूरे पर पड़ा अन्न खा या चुराकर रोटी खा. धूल में लोट.“ यह फिर भौंका होगा. इस पर वे कुत्ते झपटे होंगे. यह कहकर-
‘अच्छा ढोंगी. दग़ाबाज़, अभी तेरे झूठे दर्प का अहंकार नष्ट किए देते हैं.‘
इसे रगेदा, पटका, काटा और धूल खिलायी.
कुत्ता चुपचाप पड़ा अपने सही वर्ग के बारे में चिन्तन कर रहा है.

साभार-गद्य कोश 
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