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आस्तिक और नास्तिक के मध्य...आज की हलचल

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सादर अभिवादन स्वीकारें
बिना किसी लाग-लपेट के
चलिये चलें...

आज की चुनिन्दा रचनाओं के शीर्षक की ओर......


मन के - मनके में
एक बार एक नगर में ऐसा हुआ----
मन के - मनके (डा० उर्मिला सिंह)



उधेड़-बुन में 
सब एक-दूसरे को आईना दिखाते हैं
राहुल उपाध्याय



स्वप्न मेरे में
पल दो पल ज़िंदगानी अभी है प्रिये ...
दिगम्बर नासवा 



प्रतिभा की दुनिया में
रू-ब-रू जिंदगी है...
प्रतिभा कटियार



बातें अपने दिल की में
दस साल बाद
निहार रंजन 



मेरे मन की में
भोर का राग
अर्चना चावजी



घुघूतीबासूती में
वाह, बारहखड़ी!
Mired Mirage


ये पन्ने ........सारे मेरे अपने में
जानते हो न मीता -
दिव्या शुक्ला



नयी उड़ान में
चाँद का ग्रहण से गहरा नाता है....!
उपासना सियाग


आज बस इतना ही
विदा दीजिये यशोदा को
फिर मिलते हैं



 



 



 


 


 


 



 



 



अल्ला तुम्हारा नहीं है आतंकवादियों....

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नमस्ते !
हलचल के सभी सदस्यों और पाठकों की ओर से 
हम पाकिस्तान मे कायराना आतंकी हमले मे मारे गए 
सभी मासूम बच्चों को हार्दिक श्रद्धांजलि देते हैं । 


"दोहे-आतंक को पाल रहा नापाक" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')


बच्चों की मौतबच्चों की मौत 

अंत मे इस दुनिया को एक अच्छी जगह बनाने की कामना करते
इस अङ्ग्रेज़ी गीत को सुनते हुए इजाज़त दीजियेयशवन्त यशको-
 

जागो मन के सजग पथिक ओ! -- फणीश्वर नाथ रेणु

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मेरे मन के आसमान में पंख पसारे
उड़ते रहते अथक पखेरू प्यारे-प्यारे!
मन की मरु मैदान तान से गूँज उठा
थकी पड़ी सोई-सूनी नदियाँ जागीं
तृण-तरू फिर लह-लह पल्लव दल झूम रहा
गुन-गुन स्वर में गाता आया अलि अनुरागी
यह कौन मीत अगनित अनुनय से
निस दिन किसका नाम उतारे!
हौले, हौले दखिन-पवन-नित
डोले-डोले द्वारे-द्वारे!
बकुल-शिरिष-कचनार आज हैं आकुल
माधुरी-मंजरी मंद-मधुर मुस्काई
क्रिश्नझड़ा की फुनगी पर अब रही सुलग
सेमन वन की ललकी-लहकी प्यासी आगी
जागो मन के सजग पथिक ओ!
अलस-थकन के हारे-मारे
... ... ... ... ... ... ...
... ... ... ... ... ... ...
कब से तुम्हें पुकार रहे हैं
गीत तुम्हारे इतने सारे!

साभार- कविता कोश 

जख्म माँ के......... आज के अंक में

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आज कुछ जल्दी ही आ गई
इसका फायदा मिला कुछ गुरुवार रात में 
प्रकाशित रचनाओं के शीर्षक मिल गए
आप भी लुत्फ उठाइए........











पेशावर आतंकी हमले पर....
दीप्ति शर्मा
 

विद्रोही स्व-स्वर में
दो कलियाँ आज भी प्रेरक फिल्म
विजय राज बली माथुर


काव्यसुधा में
कौआ बोला कांव कांव : एक बाल कविता
नीरज कुमार नीर


रूप-अरूप में
मेरे शहर का मि‍ज़ाज तेरे जैसा है....
रश्मि शर्मा


रोषी में
जख्म माँ के ..
रोषी अग्रवाल


पूनम मटिया


मेरे गीत ! में
इस्लाम की छाती पे , ये निशान रहेंगे
सतीश सक्सेना 


कविता रावत में
क्रांतिकारी कवि रूप में बिस्मिल की याद
कविता रावत



उच्चारण में
"दोहे-बापू जी के देश में बढ़ने लगे दलाल"
रूपचन्द्र शास्त्री मयंक



तमाशा-ए-जिंदगी में
हे वृक्ष
तुषार राज रस्तोगी



ज़िन्दगी…एक खामोश सफ़र में
समय तुम अपंग हो गए हो
वन्दना गुप्ता



छान्दसिक अनुगायन में
एक गीत -मौसम सूफ़ी गाएगा
जयकृष्ण राय तुषार



मन पाए विश्राम जहाँ में
मन को जरा पतंगा कर ले
अनीता निहलानी



आज बस
विदा दीजिये
यशोदा को
 

सादर.....


समय तुम अपंग हो गए हो आज की हलचल में

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नमस्ते !
हलचल की अविवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है, इन लिंक्स के साथ-



 




और अंत में इस गीत के साथ ही इजाज़त दीजिये यशवन्त यशको -
 

तक़सीम - गुलज़ार

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जिन्दगी कभी-कभी जख्मी चीते की तरह छलाँग लगाती दौड़ती है, और जगह जगह अपने पंजों के निशान छोड़ती जाती है। जरा इन निशानों को एक लकीर से जोड़ के देखिए तो कैसी अजीब तहरीर बनती है।
चौरासी-पिचासी (84-85) की बात है जब कोई एक साहब मुझे अमृतसर से अक्सर खत लिखा करते थे कि मैं उनका 'तंकसीम'में खोया हुआ भाई हूं। इकबाल सिंह नाम था उनका और गालेबन खालसा कॉलिज में प्रोफेसर थे। दो चार खत आने के बाद मैंने उन्हें तफसील से जवाब भी दिया कि मैं तकसीम के दौरान देहली में था और अपने माता-पिता के साथ ही था, और मेरा कोई भाई या बहन उन फिसादों में गुम नहीं हुआ था, लेकिन इकबाल सिंह इसके बावजूद इस बात पर बजिद रहे कि मैं उनका गुमशुदा भाई हूं। और शायद अपने बचपन के वाकेआत से नावाकिफ हूं या भूल चुका हूं। उनका खयाल था कि मैं बहुत छोटा था जब एक काफिले के साथ सफर करते हुए गुम हो गया था। हो सकता है कि जो लोग मुझे बचाकर अपने साथ ले आये थे, उन लोगों ने बताया नहीं मुझे, या मैं उनका इतना एहसानमन्द हूं कि अब कोई और सूरत-ए-हाल मान लेने के लिए तैयार नहीं। मैंने यह भी बताया था उन्हें कि 1947 में इतना कम उम्र भी नहीं था। करीब ग्यारह बरस की उम्र थी मेरी। लेकिन इकबाल सिंह किसी सूरत मानने के लिए तैयार नहीं थे। मैंने जवाब देना बन्द कर दिया। कुछ अरसे बाद खत आने भी बन्द हो गये।
करीब एक साल गुजरा होगा कि बम्बई की एक फिल्मकार, संई परांजपे से उनका एक पैगाम मिला। कोई हर भजन सिंह साहब हैं देहली में, मुझसे बम्बई आकर मिलना चाहते हैं। मुलाकत क्यों करना चाहते हैं, इसकी वजह संई ने नहीं बतायी, लेकिन कुछ भेद भरे सवाल पूछे जिनकी मैं उनसे उम्मीद नहीं करता था। पूछने लगीं
“तकसीम के दिनों में तुम कहाँ थे?”
“देहली में” मैंने बताया। “क्यों?”
“यूँ ही।”
संई बहुत खूबसूरत उर्दू बोलती हैं, लेकिन आगे अँग्रेजी में पूछा
“और वालिदेन तुम्हारे?”
“देहली में थे। मैं साथ ही था उनके, क्यों?”
थोड़ी देर बात करती रही, लेकिन मुझे लग रहा था जैसे अँग्रेजी का परदा डाल रही है बात पर, क्योंकि मुझ से हमेशा उर्दू में बात करती थी जिसे वह हिंदी कहती है। संई आखिर फूट ही पड़ीं।
“देखो गुलंजार यूँ है कि आई ऐम नाट एपोज्ड टू टैल यू, लेकिन देहली में कोई साहब हैं जो कहते हैं कि तुम तकसीम में खोए हुए उनके बेटे हो”।
यह एक नई कहानी थी।
करीब एक माह बाद बम्बई के मशहूर अदाकर अमोल पालेकर का फोन आया। कहने लगे-
“मिसेज दण्डवते तुम से बात करना चाहती हैं। देहली में हैं।”
“मिसेज दण्डवते कौन?” मैंने पूछा।
“ऐक्स फाइनेंस मिनिस्टर ऑफ जनता गवरनमेंट, मिस्टर मधू दण्डवते की पत्नी।”
“वह क्यों?”
“पता नहीं! लेकिन वह किसी वक्त तुम्हें कहाँ पर फोन कर सकती हैं?”
मेरा काई सरोकार नहीं था मिस्टर या मिसेज मधु दण्डवते के साथ। कभी मिला भी नहीं था। मुझे हैरत हुई। अमोल पालेकर को मैंने दफ्तर और घर पर मिलने का वक्त बता दिया।
अफसाना बल खा रहा था। मुझे नहीं मालूम था यह भी उसी संई वाले अफसाने की कड़ी है, लेकिन अमोल चूँकि अदाकार हैं और अच्छा अदाकार अच्छी अदाकारी कर गया और मुझे इसकी वजह नहीं बतायी?, लेकिन मुझे यकीन है कि वह उस वक्त भी वजह जानता होगा।
कुछ रोज बाद प्रमिला दण्डवते का फोन आया। उन्होंने बताया कि देहली से एक सरदार हरभजन सिंह जी बम्बई आकर मुझसे मिलना चाहते हैं क्योंकि उनका खयाल है कि मैं तकसीम में खोया हुआ उनका बेटा हूं। वह नवम्बर का महीना था। इतना याद है। मैंने उनसे कहा मैं जनवरी में देहली आ रहा हूं। इंटरनेशनल फिल्म उत्सव में। दस जनवरी में देहली में हूंगा, तभी मिल लूँगा। उन्हें यहाँ मत भेजिए। मैंने उनसे यह भी पूछा कि सरदार हरभजन सिंह कौन है? उन्होंने बताया जनता राज के दौरान वह पंजाब में सिविल सप्लाई मिनिस्टर थे। जनवरी में देहली गया। अशोका होटल में ठहरा था। हरभजन सिंह साहब के यहाँ से फोन आया कि वह कब मिल सकते हैं। तब तक मुझे यह अन्दाजा हो चुका था कि वह कोई बहुत आस्थावान बुजुर्ग इनसान हैं। बात करने वाले उनके बेटे थे। बड़ी इंज्जत से मैंने अर्ज किया:
“आज उन्हें जेहमत न दें। कल दोपहर के वक्त आप तशरीफ लावें। मैं आपके साथ चल कर उनके दौलतखाने पर मिल लूँगा।
हैरत हुई यह जानकर कि संई भी वहाँ थी, अमोल पालेकर भी वहीं थे और मेरे अगले रोज की इस एपोइंटमेन्ट के बारे में वह दोनों जानते थे।
अगले रोज दोपहर को जो साहब मुझे लेने आये वह उनके बडे बेटे थे। उनका नाम इकबाल सिंह था। पंजाबियों की उम्र हो जाती है लेकिन बूढ़े नहीं होते। उठकर बड़े प्यार से मिले! मैंने बेटे की तरह ही “पैरी पौना” किया। उन्होंने मां से मिलाया।
“यह तुम्हारी मां है, बेटा”
मां को भी “पेरी पोना” किया। बेटे उन्हें दार जी कह के बुलाते थे। दूसरे बेटे, बहुएं, बच्चे अच्छा खासा एक परिवार था। काफी खुला बड़ा घर। यह खुलापन भी पंजाबियों के रहन सहन में ही नहीं, उनके मिजाज में भी शामिल है।
तमाम रस्मी बातों के बाद कुछ खाने को भी आ गया, पीने को भी आ गया और दार जी ने बताया कि मुझे कहाँ खोया था।
“बड़े सख्त दंगे हुए जी हर तरफ आग ही आग थी और आग में झुलसी हुई खबरें, पर हम भी टिके ही रहे। जमींदार मुसलमान था और हमारे पिताजी का दोस्त था और बड़ा मेहरबान था हम पर और सारा कस्बा जानता था कि उसके होते कोई बेवंक्त हमारे दरवांजे पर दस्तक भी नहीं दे सकता। उसका बेटा स्कूल में मेरा साथ पढ़ा था (शायद अयाज नाम लिया था) लेकिन जब पीछे से आने वाले काफिले हमारे कस्बे से गुजरते थे तो दिल दहल जाता था। अन्दर ही अन्दर काँप जाते थे हम। जमींदार रोज सुबह और शाम को आकर मिल जाता था। हौसला दे जाता था। मेरी पत्नी को बेटी बना रखा था उसने।
एक रोज चीखता-चिल्लाता एक ऐसा कांफिला गुंजरा कि सारी रात छत की मुंडेर पर खडे ग़ुजरी। हमीं नहीं सारा कस्बा जाग रहा था। लगता था वही आखिरी रात है, सुबह प्रलय आने वाली है। हमारे पा/व उखड़ गये। पता नहीं क्यों लगा कि बस यही आखिरी कांफिला है। अब निकल लो। इसके बाद कुछ नहीं बचेगा। अपने मोहसिन, अपने जमींदार से दगा करके निकल आये।”
वह रोज कहा करता था
“मेरी हवेली पर चलो, मेरे साथ रहो। कुछ दिन के लिए ताला मार दो घर को। कोई नहीं छुएगा।” लेकिन हम झूठमूठ का हौसला दिखाते रहे। अन्दर ही अन्दर डरते थे। सच बताऊँ सम्पूर्ण काका ईमान हिल गये थे, जड़ें काँपने लगी थीं। सारे कफिले उसी रास्ते से गुजर रहे थे। सुना था मियाँवली से हो के जम्मू में दाखिल हो जाओ तो आगे नीचे तक जाने के लिए फौज की टुकड़ी मिल जाएगी।
घर वैसे के वैसे ही खुले छोड़ आये। सच तो यह है कि दिल ने बांग दे दी थी, अब वतन की मिट्टी छोड़ने का वक्त आ गया। कूच कर चलो। दो लड़के बड़े, एक छोटी लड़की आठ साल नौ साल की और सब से छोटे तुम! दो दिन का सफर था मियाँवाली तक पैदल। खाने को जिस गाँव से गुजरते कुछ न कुछ मिल जाता था। दंगे सब जगह हुए थे, हो भी रहे थे लेकिन दंगेवालों के लश्कर हमेशा बाहर ही से आते थे। मियाँवाली तक पहुँचते-पहुँचते कांफिला बहुत बड़ा हो गया। कई तरफ से लोग आ-आकर जुड़ते जाते थे। बड़ी ढाढ़स होती थी बेटा, अपने जैसे दूसरे बदहाल लोगों को देखकर। मियाँवाली हम रात को पहुँचे। इसी बीच कई बार बच्चों के हाथ छूटे हम से, बदहवास होकर पुकारने लगते थे। और भी थे वो हम जैसे, एक कोहराम सा मचा रहता था।
“पता नहीं कैसे यह खबर फैल गयी कि उस रात मियाँवली पर हमला होने वाला है। मुसलमानों का लश्कर आ रहा हैखौफ और डर का ऐसा सन्नाटा कभी नहीं सुनारात की रात ही सब चल पड़े। दार जी कुछ देर के लिए चुप हो गये। उनकी आँखें नम हो रही थीं। लेकिन मां चुपचाप टकटकी बांधे मुझे देखे जा रही थी। कोई इमोशन नहीं था उनके चेहरे पर। दार जी बड़े धीरे से बोले :
“बस उसी रात उस कूच में छोटे दोनों बच्चे हम से छूट गये। पता नहीं कैसे? पता हो तो...”
“तो...”
वह जुमला अधूरा छोड़कर चुप हो गये।
मुझे बहुत तफसील से याद नहीं बेटे, बहुए कुछ उठीं। कुछ जगहें बदल के बैठ गये। दार जी ने बताया “जम्मू पहुंचकर बहुत अरसा इन्तंजार किया। एक-एक कैम्प जाकर ढूँढते थे और आने वाले कांफिलों को देखते थे। बेशुमार लोग थे जो काफिला की शक्ल में ही कुछ पंजाब की तरफ चले गये, कुछ नीचे उतर गये। जहां-जहां जिस किसी के रिश्तेदार थे। जब मायूस हो गये हम, तो पंजाब आ गये। वहां के कैम्प खोजते रहे। बस एक तलाश ही रह गयी। बच्चे गुम हो चुके थे, उम्मीद छूट चुकी थी।”
बाइस साल बाद एक जत्था हिन्दुस्तान से जा रहा था। गुरुद्वारा पंजा साहब की यात्रा करने बस दर्शन के लिए। अपना घर देखने का भी कई बार खयाल आया था लेकिन यह भली मानस हमेशा इस ंखयाल से ही टूट के निढाल हो जाती थी। उन्होंने अपनी बीवी की तरफ इशारा करते हुए कहा -
“और फिर यह गिल्ट भी हम से छूटा नहीं कि हमने अपने कस्बे के जमींदार का ऐतबार नहीं किया, सोच के एक शर्मिन्दगी का एहसास होता था।
“बहरहाल हमने जाने का फैसला कर लिया, और जाने से पहले मैंने एक खत लिखा जमींदार के नाम और उनके बेटे अयांज के नाम भी, अपने हिजरत के हालात भी बताये, परिवार के सभी और दोनों गुमशुदा बच्चों का जिक्र भी कियासत्या और सम्पूर्ण का। खयाल था शायद अयाज तो न पहचान सके, लेकिन जमींदार अफजल हमें नहीं भूल सकता। खत मैंने पोस्ट नहीं किया, सोचा वहीं जा के करूँगा। बीस पच्चीस दिन का दौरा है अगर मिलना चाहेगा तो चाचा अफजल जरूर जवाब देगा। बुलवाया तो जाएंगे, वरनाअब क्या फायदा कबरें खोल के? क्या मिलना है?”
एक लम्बी सांस लेकर हरभजन सिंह जी बोले:
“वह खत मेरी जेब ही में पड़ा रहा पन्ना जीमन माना ही नहीं। वापसी में कराची से होकर आया और जिस दिन लौट रहा था, पता नहीं क्या सूझी, मैंने डाक में डाल दिया।”
“न चाहते हुए भी एक इन्तजार रहा, लेकिन कुछ माह गुजर गये तो वह भी ंखत्म हो गया। आठ साल के बाद मुझे जवाब आया।” “अफजल चाचा का?” मैंने चौंक कर पूछा। वह चुप रहे। मैंने फिर पूछा, “अयाज का?” सर को हलकी-सी जुम्बिश देकर बोले, “हां! उसी खत का जवाब था। खत से पता चला कि तकसीम के कुछ साल बाद ही अफजल चाचा का इन्तकाल हो गया था। सारा जमींदारा अयाज ही संभाला करता था। चन्द रोज पहले ही अयाज का इन्तकाल हुआ था। उसके कागंज-पत्तर देखे जा रहे थे तो किसी एक कमीज की जेब से वह खत निकला। मातमपुरसी के लिए आये लोगों में किसी ने वह खत पढ़के सुनाया, तो एक शख्स ने इत्तला दी कि जिस गुमशुदा लड़की का जिक्र है इस खत में वह अयांज के इन्तकाल पर मातमपुरसी करने आयी हुई है मियाँवाली से। उसे बुलाकर पूछा गया तो उसने बताया कि उसका असली नाम सत्या है। वह तकसीम में अपने मां बाप से बिछुड़ गयी थी और अब उसका नाम दिलशाद है।”
मां की आँखें अब भी खुश्क थीं, लेकिन दारजी की आवांज फिर से रुँध गयी थी। “वाहे गुरु का नाम लिया और उसी रोज रवाना हो गये। दिलशाद वहीं मिली, अफजल चाचा के घर। लो जी उसे सब याद था। पर अपना घर याद नहीं। हमने पूछा, वह खोयी कैसे? बिछड़ी कैसे हम से, तो बोली”मैं चल चल के थक गयी थी। मुझे बहुत नींद आ रही थी। मैं एक घर के आँगन में तन्दूर लगा था उसके पीछे जाके सो गयी थी। जब उठी तो कोई भी नहीं था। सारा दिन ढूंढ के फिर वहीं जाके सो जाती थी। तीन दिन बाद उस घरवाले आये तो उन्होंने जगाया। मियाँ बीवी थे। फिर वहीं रख लिया कि शायद कोई ढूंढता हुआ आ जाए। पर कोई आया ही नहीं। उन्हीं के घर नौकरानी-सी हो गयी। खाना कपड़ा मिलता था। पर बहुत अच्छी तरह रखा उसनेफिर बहुत साल बाद, शायद आठ नौ साल बाद मालिक ने मुझ से निकाह पढ़ाके अपनी बेगम बना लिया। अल्लाह के फजल से, दो बेटे हैं। एक पाकिस्तान एयरफोर्स में है, दूसरा कराची में अच्छे ओहदे पर नौकरी कर रहा है।”
राईटर्स को कुछ किलिशे किस्म के सवालों की आदत होती है, जिसकी ंजरूरत नहीं। “वह हैरान नहीं हुई आपको देखकर? या मिलकर? रोयी नहीं?”
“नहींहैरान तो हुई, लेकिन ऐसी कोई खास प्रभावित नहीं हुई।”
दार जी ने कहा”बल्कि जब भी सोचता हूं उसके बारे में तो लगता है, बार-बार मुस्करा देती थी हमारी बातें सुनकर, जैसे हम कोई कहानी सुनाने आये हैं। उसे लगा नही कि हमी उसके मां बाप है।”
“और सम्पूरन?उसके साथ नहीं थी?”
“नहीं उसे तो याद भी नहीं।”
मां ने फिर वही कहा जो इन बातों के दरमियान दो तीन बार कह चुकी थी, “पिन्नी (सम्पूरन) तू मान क्यूँ नहीं जाता। क्यों छुपाता है हम से। अपना नाम भी छुपा रखा है तूने। जैसे सत्या दिलशाद हो गयी, तुझे भी किसी ने गुलंजार बना दिया होगा।” थोड़े से वक्फे के बाद फिर बोली”गुलंजार किस ने नाम दिया तुझे? नाम तो तेरा सम्पूरन सिंह है।”
मैंने दार जी से पूछा”मेरी खबर कैसे मिली आपको। या कैसे खयाल आया कि मैं आपका बेटा हूं?”
“ऐसा है पुत्तर, वाहे गुरु की करनी तीस-पैंतीस साल बाद मिल गयी, तो उम्मीद बँध गयी शायद वाहे गुरु बेटे से भी मिला दें। इकबाल ने एक दिन तुम्हारा इंटरव्यू पढ़ा किसी परचे में और बताया तुम्हारा असली नाम सम्पूरन सिंह है और तुम्हारी पैदाइश भी उसी तरफ की है पाकिस्तान की तो, उसने तलाश शुरू कर दी। हाँ मैंने यह नहीं बताया तुम्हें कि उसका नाम इकबाल अफंजल चाचा का दिया हुआ था।
मां ने पूछा, “काका तू जहाँ मरजी है रह। तू मुसलमान हो गया है तो कोई बात नहीं पर मान तो ले तू ही मेरा बेटा है, पिन्नी।”
मैं अपने खानदान की सारी तंफसील देकर एक बार फिर हरभजन सिंह जी को नाउम्मीद करके लौट आया।
इस बात को भी सात आठ साल हो गये।
अब सन् 1993 है।
इतने अर्सा बाद इकबाल की चिट्ठी मिली और भोग का कार्ड मिला कि सरदार हरभजन सिंह जी परलोक सिधार गये। मां ने कहलाया है कि छोटे को जरूर खबर देना।
मुझे लगा जैसे सचमुच मेरे दारजी गुजर गये।

साभार :-गद्य कोश 

पद्मश्री प्रभुनाथ गर्ग.................उर्फ काका हाथरसी

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 काका हाथरसी

        सन 1906-1995में हाथरस में जन्मे काका हाथरसी (असली नाम: प्रभुनाथ गर्ग) हिंदी हास्य कवि थे। उनकी शैली की छाप उनकी पीढ़ी के अन्य कवियों पर तो पड़ी ही, आज भी अनेक लेखक और व्यंग्य कवि काका की रचनाओं की शैली अपनाकर लाखों श्रोताओं और पाठकों का मनोरंजन कर रहे हैं।इन्हें पद्मश्री पुरस्कार भी प्राप्त हुआ है
       व्यंग्य का मूल उद्देश्य लेकिन मनोरंजन नहीं बल्कि समाज में व्याप्त दोषों, कुरीतियों, भ्रष्टाचार और राजनीतिक कुशासन की ओर ध्यान आकृष्ट करना है। ताकि पाठक इनको पढ़कर बौखलाये और इनका समर्थन रोके। इस तरह से व्यंग्य लेखक सामाजिक दोषों के ख़िलाफ़ जनमत तैयार करता है और समाज सुधार की प्रक्रिया में एक अमूल्य सहयोग देता है। इस विधा के निपुण विद्वान थे काका हाथरसी, जिनकी पैनी नज़र छोटी से छोटी अव्यवस्थाओं को भी पकड़ लेती थी और बहुत ही गहरे कटाक्ष के साथ प्रस्तुत करती थी। 

उदाहरण के लिये देखिये 
अनुशासनहीनता और भ्रष्टाचार पर काका के दो व्यंग्य :

बिना टिकिट के ट्रेन में चले पुत्र बलवीर
जहाँ ‘मूड’ आया वहीं, खींच लई ज़ंजीर
खींच लई ज़ंजीर, बने गुंडों के नक्कू
पकड़ें टी.टी., गार्ड, उन्हें दिखलाते चक्कू
गुंडागर्दी, भ्रष्टाचार बढ़ा दिन-दूना
प्रजातंत्र की स्वतंत्रता का देख नमूना

या फिर:

राशन की दुकान पर, देख भयंकर भीर
‘क्यू’ में धक्का मारकर, पहुँच गये बलवीर
पहुँच गये बलवीर, ले लिया नंबर पहिला
खड़े रह गये निर्बल, बूढ़े, बच्चे, महिला
कहँ ‘काका'कवि, करके बंद धरम का काँटा
लाला बोले - भागो, खत्म हो गया आटा

इन्हें सुनिये यू ट्यूब पर भी 

 

 

बिलकुल भूल गई.... पता नहीं क्या हुआ है.....आज का हलचल

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बिलकुल भूल गई.... 
पता नहीं क्या हुआ है
लीजिये 
देर आयद दुरुस्त आयद
चलें सीधे.....आज की रचनाओं की ओर.....



जानकीपुल में
बीतता साल और हिंदी किताबों के नए ट्रेंड्स
प्रभात रंजन



एक ज़िद्दी धुन में
ज्योत्सना शर्मा की दो कविताएं
धीरेश सैनी



Ocean of Bliss में
सिलसिला मेरा तुम्हारा
रेखा जोशी




तीखी कलम से
पाकिस्तान को सांप पालने का सबक
नवीन मणी त्रिपाठी



Zindagi se muthbhed में
मिलन की घड़ी में प्रणय दीप पावन
अज़ीज़ जौनपुरी 



आवाज़ में
कुछ एक असमी सिक्यूरिटी गार्ड भी होते हैं :-)
प्रकाश गोविन्द



वंदे मातरम् में
प्रगति की बयार(हवा)
अभिषेक शुक्ला



पूर्वाभास में
डॉ सी एल खत्री की कविता 'टू मिनट साइलेंस'पर व्याख्यान
अवनीश सिंह चौहान



लीजिये हाजिर है
तड़ाक-फड़ाक पोस्ट
आज बुधवार सुबह
8 बज कर 40 मिनट पर 

ये पोस्ट कर रही हूँ
यशोदा


 


 





 


 



 


 



सेंटा क्लॉज आएंगे, गैस सिलेंडर लाएंगे

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नमस्ते 
आप सभी क्रिस्मस की हार्दिक शुभकामनाएँ !

 पेश हैं कुछ खास और चुनिन्दा लिंक्स-

आओ मित्र आह्वान करें तुम हम और सब ईसा का आज ध्यान करें 

मेरी क्रिसमस





और अब अंत मे इस गीत का आनंद लेते हुए इजाज़त दीजिये यशवन्त यश को -

शोर यूँ ही न परिंदों ने मचाया होगा - कैफ़ी आज़मी

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शोर यूँ ही न परिंदों[1]ने मचाया होगा,
कोई जंगल की तरफ़ शहर से आया होगा।

पेड़ के काटने वालों को ये मालूम तो था,
जिस्म जल जाएँगे जब सर पे न साया होगा।

बानी-ए-जश्ने-बहाराँ[2]ने ये सोचा भी नहीं
किस ने काटों को लहू अपना पिलाया होगा।

अपने जंगल से जो घबरा के उड़े थे प्यासे,
ये सराब[3]उन को समंदर नज़र आया होगा।

बिजली के तार पर बैठा हुआ तनहा पंछी,
सोचता है कि वो जंगल तो पराया होगा।
शब्दार्थ:
  1. पक्षियों
  2. वसन्तोत्सव के प्रेरणा स्रोतों
  3. धोखा
साभार - कविता कोश

पुराने को कैसे भूलें...........आज की नयी पुरानी हलचल.....

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मैरी क्रिसमस टू यू
होली को गुजरे नौ माह हो गए
दशहरा और दीपावली भी मन गयी
ईद भी दो बार मनी
परसों क्रिसमस भी मनाया गया
दो हजार चौदह अंतिम सांसे गिन रहा है
लोग आतुर हैं...
दो हजार पन्द्रह की स्वागत हेतु
कितनी तेजी से बीतता जा रहा है ये समय
और  हम......यहीं के यहीं ही हैं
खैर छोड़िये इसे....चलें आज की रचनाओं की ओर



अज़दक में
पुराने को कैसे भूलें, 

और नये का किस तरह स्‍वागत करें..
प्रमोद सिंह
 

 
आवाज़ में
तीन बेचारे :-)
प्रकाश गोविन्द
 



क्रांति स्वर में
89 वर्ष बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी
विजय राज बली माथुर



पूर्वाभास में
शलभ प्रकाशन की पुस्तकों का लोकार्पण
अवनीश सिंह चौहान 



सच्चा शरणम् में
टू बॉडीज (Two Bodies) : ऑक्टॉवियो पाज़
हिमांशु कुमार पाण्डेय



भारतीय नारी में
तडपाई दिल्लगी से तेजाब फैंककर .
शालिनी कौशिक

 



मेरी कलम मेरे जज़्बात में
हिमनद
शालिनी रस्तोगी



उलूक टाइम्स में
मैरी क्रिसमस टू यू
सुशील कुमार जोशी 



आपका ब्लॉग में
फ़रेब .....एक गीत
इंतज़ार 



तमाशा-ए-जिंदगी में
देखा है
तुषार राज रस्तोगी



"पलाश"में
काश और शायद
अपर्णा त्रिपाठी



आकांक्षा में
मैं अकेला
आशा सक्सेना



रचनाकार में
अज्ञेय की कविताएँ
रविशंकर श्रीवास्तव 



"लिंक-लिक्खाड़"में
मेरे सुपुत्र कुमार शिवा "कुश"की रचना -
रविकर 



अंतर्मन में
स्त्री !
मीना पाठक
 



आज बस इतना ही
आज्ञा दीजिये

यशोदा...

 


 




 


 



 


 


 


 


 


 


 





इसके जाने और उसके आने के चरचे जरूर होंगे

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चित्र का शीर्षक - यशपाल

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यराज जाना-माना चित्रकार था। वह उस वर्ष अपने चित्रों को प्रकृति और जीवन के यथार्थ से सजीव बना सकने के लिये, अप्रैल के आरम्भ में ही रानीखेत जा बैठा था। उन महिनों पहाडों में वातावरण खूब साफ और आकाश नीला रहता है। रानीखेत से त्रिशूल , पंचचोली और चौखम्बा की बरफानी चोटियाँ, नीले आकाश के नीचे माणिक्य के उज्ज्वल स्तूपों जैसीं जान पडती है। आकाश की गहरी नीलिमा से कल्पना होती कि गहरा नीला समुद्र उपर चढ क़र छत की तरह स्थिर हो गया हो और उसका श्वेत फेन, समुद्र के गर्भ से मोतियों और मणियों को समेट कर ढेर का ढेर नीचे पहाडों पर आ गिरा हो।
जयराज ने इन दृष्यों के कुछ चित्र बनाये परन्तु मन न भरा। मनुष्य के संसर्ग से हीन यह चित्र बनाकर उसे ऐसा ही अनुभव हो रहा था जैसे निर्जन बियाबान में गाये राग का चित्र बना दिया हो। यह चित्र उसे मनुष्य की चाह और अनुभव के स्पन्दन से शून्य जान पडते थे। उसने कुछ चित्र, पहाडों पर पसलियों की तरह फैले हुए खेतों में श्रम करते पहाडी किसान स्त्री-पुरूषों के बनाये। उसे इन चित्रों से भी सन्तोष न हुआ। कला की इस असफलता से अपने हृदय में एक हाय-हाय का सा शोर अनुभव हो रहा था। वह अपने स्वप्न और चाह की बात प्रकट नहीं कर पा रहा था।
जयराज अपने मन की तडप को प्रकट कर सकने के लिए व्याकुल था।
वह मुठ्ठी पर ठोडी टिकाये बरामदे में बैठा था। उसकी दृष्टि दूर-दूर तक फैली हरी घाटियों पर तैर रही थी। घाटियों के उतारों-चढावों पर सुनहरी धूप खेल रही थी। गहराइयों में चाँदी की रेखा जैसी नदियाँ कुण्डलियाँ खोल रही थीं। दूध के फेन जैसी चोटियाँ खडी थीं। कोई लक्ष्य न पाकर उसकी दृष्टि अस्पष्ट विस्तार पर तैर रही थी। उस समय उसकी स्थिर आँखों के छिद्रों से सामने की चढाई पर एक सुन्दर, सुघड युवती को देखने लगी जो केवल उसकी दृष्टि का लक्ष्य बन सकने के लिए ही, उस विस्तार में जहाँ-तहाँ, सभी जगह दिखाई दे रही थी।
जयराज ने एक अस्पष्ट-सा आश्वासन अनुभव किया। इस अनुभूति को पकड पाने के लिये उसने अपनी दृष्टि उस विस्तार से हटा, दोनों बाहों को सीने पर बाँध कर एक गहरा निश्वास लिया। उसे जान पडा जैसे अपार पारावार में बहता निराश व्यक्ति अपनी रक्षा के लिये आने वाले की पुकार सुन ले। उसने अपने मन में स्वीकार किया, यही तो वह चाहता है ः - कल्पना से सौन्दर्य की सृष्टि कर सकने के लिये उसे स्वयं भी जीवन में सौन्दर्य का सन्तोष मिलना चाहिये; बिना फूलों के मधुमक्खी मधु कहाँ से लाये? ऐसी ही मानासिक अवस्था में जयराज को एक पत्र मिला। यह पत्र इलाहाबाद से उसके मित्र एडवोकेट सोमनाथ ने लिखा था। सोमनाथ ने जयराज का परिचय उसकी कला के प्रति अनुराग और आदर के कारण प्राप्त किया था। कुछ अपनापन भी हो गया था। सोम ने अपने उत्कृष्ट कलाकार मित्र के बहुमूल्य समय का कुछ भाग लेने की घृष्टता के लिये क्षमा माँग कर अपनी पत्नी के बारे में लिखा था - ...ऌस वर्ष नीता का स्वास्थ्य कुछ शिथिल हैं, उसे दो मास पहाड में रखना चाहता हूँ। इलाहाबाद की कडी ग़र्मी में वह बहुत असुविधा अनुभव कर रही है। यदि तुम अपने पडोस में ही किसी सस्ते, छोटे परन्तु अच्छे मकान का प्रबन्ध कर सको तो उसे वहाँ पहुँचा दूँ। सम्भवतः तुमने अलग पूरा बँगला लिया होगा। यदि उस मकान में जगह हो और इससे तुम्हारे काम में विघ्न पडने की आशंका न हो तो हम एक-दो कमरे सबलेट कर लेंगे। हम अपने लिए अलग नौकर रख लेंगे .. आदि-आदि।
दो वर्ष पूर्व जयराज इलाहाबाद गया था। उस समय सोम ने उसके सम्मान में एक चाय-पार्टी दी थी। उस अवसर पर जयराज ने नीता को देखा था और नीता का विवाह हुए कुछ ही मास बीते थे। पार्टी में आये अनेक स्त्री-पुरूष के भीड-भडक्के में संक्षिप्त परिचय ही हो पाया था। जयराज ने स्मृति को ऊँगली से अपने मस्तिष्क को कुरेदा। उसे केवल इतना याद आया कि नीता दुबली-पतली, छरहरे बदन की गोरी, हँसमुख नवयुवती थी; आँखों में बुध्दि की चमक। जयराज ने पत्र को तिपाई पर एक ओर दबा दिया और फिर सामने घाटी के विस्तार पर निरूद्देश्य नजर किये सोचने लगा - क्या उत्तर दे?
जयराज की निरूद्देश्य दृष्टि तो घाटी के विस्तार पर तैर रही थी परन्तु कल्पना में अनुभव कर रहा था कि उसके समीप ही दूसरी आराम कुर्सी पर नीता बैठी है। वह भी दूर घाटी में कुछ देख रही है या किसी पुस्तक के पन्नों या अखबार में दृष्टि गडाये है। समीप बैठी युवती नारी की कल्पना जयराज को दूध के फेन के समान श्वेत, स्फटिक के समान उज्ज्वल पहाड क़ी बरफानी चोटी से कहीं अधिक स्पन्दन उत्पन्न करने वाली जान पडी। युवती के केशों और शरीर से आती अस्पष्ट-सी सुवास, वायु के झोकों के साथ घाटियों से आती बत्ती और शिरीष के फूलों की भीनी गन्ध से अधिक सन्तोष दे रही थी। वह अपनी कल्पना में देखने लगा - नीता उसकी आँखों के सामने घाटी की एक पहाडी पर चढती जा रही है। कडे पत्थरों और कंकडों के ऊपर नीता की गुलाबी एडियाँ, सैन्डल में सँभली हुई हैं। वह चढाई में साडी क़ो हाथ से सँभाले हैं। उसकी पिंडलियाँ केले के भीतर के डंठल के रंग की हैं, चढाई के श्रम के कारण नीता की साँस चढ ग़ई है और प्रत्येक साँस के साथ उसका सीना उठ आने के कारण, कमल की प्रस्फुटनोन्मुख कली की तरह अपने आवरण को फाड देना चाहता है। कल्पना करने लगा - वह कैनवैस के सामने खडा चित्र बना रहा है।
नीता एक कमरे से निकली है। आहट ले उसके कान में विघ्न न डालने क लिए पंजों के बल उसके पीछे से होती हुई दूसरे कमरे में चली जा रही है। नीता किसी काम से नौकर को पुकार रही है। उस आवाज से उसके हृदय का साँय-साँय करता सूनापन सन्तोष से बस गया है ...।
ज़यराज तुरन्त कागज और कलम ले उत्तर लिखने बैठा परन्तु ठिठक कर सोचने लगा - वह क्या चाहता है? ...मित्र की पत्नी नीता से वह क्या चाहेगा? . .तटस्थता से तर्क कर उसने उत्तर दिया - कुछ भी नहीं। जैसे सूर्य के प्रकाश में हम सूर्य की किरणों को पकड लेने की आवश्यकता नहीं समझते, उन किरणों से स्वयं ही हमारी आवश्यकता पूरी हो जाती है; वैसे ही वह अपने जीवन में अनुभव होने वाले सुनसान अँधेरे में नारी की उपस्थिति का प्रकाश चाहता है।
जयराज ने संक्षिप्त-सा उत्तर लिखा - ...भीड-भाड से बचने के लिए अलग पूरा ही बंगला लिया है। बहुत-सी जगह खाली पडी है। सबलेट-का कोई सवाल नहीं। पुराना नोकर पास है। यदि नीताजी उस पर देख-रेख रखेंगी तो मेरा ही लाभ होगा। जब सुविधा हो आकर उन्हें छोड ज़ाओ। पहुँचने के समय की सूचना देना। मोटर स्टैन्ड पर मिल जाऊँगा ...।
अपनी आँखों के सामने और इतने समीप एक तरूण सुन्दरी के होने की आशा में जयराज का मन उत्साह से भर गया। नीता की अस्पष्ट-सी याद को जयराज ने कलाकार के सौन्दर्य के आदेशों की कल्पनाओं से पूरा कर लिया। वह उसे अपने बरामदे में, सामने की घाटी पर, सडक़ पर अपने साथ चलती दिखाई देने लगी। जयराज ने उसे भिन्न-भिन्न रंगों की साडियों में, सलवार-कमीज के जोडों की पंजाबी पोशाक में, मारवाडी अँगिया-लहंगे में फूलों से भरी लताओं के कुंज में, चीड क़े पेड क़े तले और देवदारों की शाखाओं की छाया में सब जगह देख लिया। वह नीता के सशरीर सामने आ जाने की उत्कट प्रतीक्षा में व्याकुल होने लगा; वैसे ही जैसे अँधेरे में परेशान व्यक्ति सूर्य के प्रकाश की प्रतीक्षा करता है।
लौटती डाक से सोम का उत्तर आया - ...तारीख को नीता के लिये गाडी में एक जगह रिजर्व हो गई है। उस दिन हाईकोर्ट में मेरी हाजिरी बहुत आवश्यक है। यहाँ गर्मी अधिक है और बढती ही जा रही है। मैं नीता को और कष्ट नहीं देना चाहता। काठगोदान तक उसके लिए गाडी में जगह सुरक्षित है। उसे बस की भीड में न फँस कर टैक्सी पर जाने के लिए कह दिया है। तुम उसे मोटर स्टैण्ड पर मिल जाना। तुम हम लोगों के लिये जहाँ सब कुछ कर रहे हो, इतना और सही। हम दोनों कृतज्ञ होंगे ...।
ज़यराज मित्र की सुशिक्षित और सुसंस्कृत पत्नी को परेशानी से बचाने के लिए मोटर स्टैण्ड पर पहुँच कर उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहा था। काठगोदाम से आनेवाली मोटरें पहाडी क़े पीछे से जिस मोड से सहसा प्रकट होती थीं, उसी ओर जयराज की आँँख निरन्तर लगी हुई थी। एक टैक्सी दिखाई दी। जयराज आगे बढ ग़या। गाडी रूक़ी। पिछली सीट पर एक महिला अपने शरीर का बोझ सँभाल न सकने के कारण कुछ पसरी हुई-सी दिखाई दी। चेहरे पर रोग की थकावट का पीलापन और थकावट से फैली हुई निस्तेज आँखों के चारों ओर झाइयों के घेरे थे। ज़यराज ठिठका। महिला की आँखों में पहचान का भाव और नमस्कार में उसके हाथ उठते देख जयराज को स्वीकार करना पडा - मैं जयराज हूँ।महिला ने मुस्कराने का यत्न किया - मैं नीता हूँ।
महिला की वह मुस्कान ऐसी थी जैसे पीडा को दबा कर कर्तव्य पूरा किया गया हो। महिला के साधारणतः दुबले हाथ-पाँवों पर लगभग एक शरीर का बोझ पेट पर बँध जाने के कारण उसे मोटर से उतरने में भी कष्ट हो रहा था। बिखरे जाते अपने शरीर को सँभालने में उसे ही असुविधा हो रही थी जैसे सफर में बिस्तर के बन्द टूट जाने पर उसे सँभलना कठिन हो जाता है। महिला लँगडाती हुई कुछ ही कदम चल पायी कि जयराज ने एक डाँडी (डोली) को पुकार उसे चार आदमियों के कंधों पर लदवा दिया।
सौजन्य के नाते उसे डाँडी के साथ चलना चाहिए था परन्तु उस शिथिल और विरूप आकृति के समीप रहने में जयराज को उबकाई और ग्लानि अनुभव हो रही थी।
नीता बंगले पर पहुँच कर एक अलग कमरे में पलंग पर लेट गई। जयराज के कानों में उस कमरे से निरन्तर आह! ऊँह! की दबी कराहट पहुँच रही थी। उसने दोनों कानों में उँगलियाँ दबा कर कराहट सुनने से बचना चाहा परन्तु उसे शरीर के रोम-रोम से वह कराहट सुनाई दे रही थी। वह नीता की विरूप आकृति, रोग और बोझ से शिथिल, लंगडा-लंगडा कर चलते शरीर को अपनी स्मृति के पट से पोंछ डालना चाहता था परन्तु वह बरबस आकर उसके सामने खडा हो जाता। नीता जयराज को उस मकान के पूरे वातावरण में समा गई अनुभव हो रही थी। जयराज का मन चाह रहा था - बंगले से कहीं दूर भाग जाये।
दूसरे दिन सुबह सूर्य की प्रथम किरणें बरामदे में आ रही थीं। सुबह की हवा में कुछ खुश्की थी। जयराज नीता के कमरे से दूर, बरामदे में आरामकुर्सी पर बैठ गया। नीता भी लगातार लेटने से ऊब कर कुछ ताजी हवा पाने के लिये अपने शरीर को सँभाले, लँगडाती-लँगडाती बरामदे में दूसरी कुर्सी पर आ बैठी। उसने कराहट को गले में दबा, जयराज को नमस्कार कर हाल-चाल पूछ कर कहा - मुझे तो शायद सफर की थकावट या नयी जगह के कारण रात नींद नहीं आ सकी ..।
ज़यराज के लिए वहाँ बैठे रहना असम्भव हो गया। वह उठ खडा हुआ और कुछ देर में लौटने की बात कह बँगले से निकल गया। परेशानी में वह इस सडक़ से उस सडक़ पर मीलों घूमता इस संकट से मुक्ति का उपाय सोचता रहा। छुटकारे के लिए उसका मन वैसे ही तडप रहा था जैसे चिडिमार के हाथ में फँस गई चिडिया फडफ़डाती है। उसे उपाय सूझा। वह तेज कदमों से डाकखाने पहुँचा। एक तार उसने सोम को दे दिया - अभी बनारस से तार मिला है कि रोग-शैया पर पडी माँ मुझे देखने के लिए छटपटा रही हैं। इसी समय बनारस जाना अनिवार्य है। मकान का किराया छः महीने का पेशगी दे दिया है। नौकर यहीं रहेगा। हो सके तो तुम आकर पत्नी के पास रहो।
यह तार दे वह बंगले पर लौटा। नौकर को इशारे से बुलाया। एक सूटकेस में आवश्यक कपडे ले उसने नौकर को विश्वास दिलाया कि दो दिन के लिये बाहर जा रहा है। सोम को दी हुई तार की नकल अपने जाने के बाद नीता को दिखाने के लिए दे दी और हिदायत की - बीबी जी को किसी तरह का भी कष्ट न हो।
बनारस में जयराज को रानीखेत से लिखा सोम का पत्र मिला। सोम ने मित्र की माता के स्वास्थ्य के लिये चिन्ता प्रकट की थी और लिखा था कि हाईकोर्ट में अवकाश हो गया है। वह रानीखेत पहुँच गया है। वह और नीता उसके लौट आने की प्रतीक्षा उत्सुकता से कर रहे हैं।
जयराज ने उत्तर में सोम को धन्यवाद देकर लिखा कि वह मकान और नौकर को अपना ही समझ कर निस्संकोच वहाँ रहे। वह स्वयं अनेक कारणों से जल्दी नहीं लौट सकेगा। सोम बार-बार पत्र लिखकर जयराज को बुलाता रहा परन्तु जयराज रानीखेत न लौटा। आखिर सोम मकान और सामान नौकर को सहेज, नीता के साथ इलाहाबाद लौट गया। यह समाचार मिलने पर जयराज ने नौकर को सामान सहित बनारस बुलवा लिया।
जयराज के जीवन में सूनेपन की शिकायत का स्थान अब सौन्दर्य के धोखे के प्रति ग्लानि ने ले लिया। जीवन की विरूपता और वीभत्सता का आतंक उसके मन पर छा गया। नीता का रोग से पीडित, बोझिल कराहता हुआ रूप उसकी आँखों के सामने से कभी न हटने की जिद कर रहा था। मस्तिष्क में समायी हुई ग्लानि से छुटकारा पाने का दृढ निश्चय कर वह सीधा कश्मीर पहुँचा। फिर बरफानी चोटियों क बीच कमल के फूलों से घिरी नीली डल झील में शिकारे पर बैठ उसने सौन्दर्य के प्रति अनुराग पैदा करना चाहा। पुरी और केरल में समुद्र के किनारे जा उसने चाँदनी रात में ज्वार-भाटे का दृश्य देखा। जीवन के संघर्ष से गूँजते नगरों में उसने अपने-आप को भुला देना चाहा परन्तु मस्तिष्क में भरे हुए नारी की विरूपता के यथार्थ ने उसका पीछा न छोडा। वह बनारस लौट आया और अपने ऊपर किये गये अत्याचार का बदला लेने के लिये रंग और कूची लेकर कैनवेस के सामने जा खडा हुआ।
जयराज ने एक चित्र बनाया, पलंग पर लेटी हुई नीता का। उसका पेट फूला हुआ था, चेहरे पर रोग का पीलापन, पीडा से फैली हुई आँखें, कराहट में खुल कर मुडे हुए होंठ, हाथ-पाँव पीडा से ऐंठे हुए।
जयराज यह चित्र पूरा कर ही रहा था कि उसे सोम का पत्र मिला। सोम ने अपने पुत्र के नामकरण की तारीख बता कर बहुत ही प्रबल अनुरोध किया था कि उस अवसर पर उसे अवश्य ही इलाहाबाद आना पडेग़ा। जयराज ने झुंझलाहट में पत्र को मोड क़र फेंक दिया, फिर औचित्य के विचार से एक पोस्टकार्ड लिख डाला - धन्यवाद, शुभकामना और बधाई। आता तो जरूर परन्तु इस समय स्वयं मेरी तबियत ठीक नहीं। शिशु को आशीर्वाद।
सोम और नीता को अपने सम्मानित और कृपालु मित्र का पोस्टकार्ड शनिवार को मिला। रविवार वे दोनों सुबह की गाडी से बनारस जयराज के मकान पर जा पहुँचे। नौकर उन्हें सीधे जयराज के चित्र बनाने की टिकटिकी पर ही चढा हुआ था। सोम और नीता की आँखें उस चित्र पर पडी और वहीं जम गई।
जयराज अपराध की लज्जा से गडा जा रहा था। बहुत देर तक उसे अपने अतिथियों की ओर देखने का साहस ही न हुआ और जब देखा ते नीता गोद में किलकते बच्चे को एक हाथ से कठिनता से सँभाले, दूसरे हाथ से साडी क़ा आँचल होठों पर रखे अपनी मुस्कराहट छिपाने की चेष्टा कर रही थी। उसकी आँखें गर्व और हँसी से तारों की तरह चमक रही थीं। लज्जा और पुलक की मिलवट से उसका चेहरा सिंदूरी हो रहा था।
जयराज के सामने खडी नीता, रानीखेत में नीता को देखने से पहले और उसके सम्बन्ध में बताई कल्पनाओं से कहीं अधिक सुन्दर थी। जयराज के मन को एक धक्का लगा - ओह धोखा! और उसका मन फिर धोखे की ग्लानि से भर गया।
जयराज ने उस चित्र को नष्ट कर देने के लिए समीप पडी छुरी हाथ में उठा ली। उसी समय नीता का पुलक भरा शब्द सुनाई दिया - इस चित्र का शीर्षक आप क्या रखेंगे?
जयराज का हाथ रूक गया। वह नीता के चेहरे पर गर्व और अभिमान के भाव को देखता स्तब्ध खडा था।
कलाकार को अपने इस बहुत ही उत्कृष्ट चित्र के लिए कोई शीर्षक न खोज सकते देख नीता ने अपने बालक को अभिमान से आगे बढा, मुस्कुराकर सुझाया - इस चित्र का शीर्षक रखिये सृजन की पीडा।!

साभार-- गद्य कोश  

नीर भरी दुख की बदली - महादेवी वर्मा

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मैं नीर भरी दु:ख की बदली!


स्पंदन में चिर निस्पंद बसा,
क्रन्दन में आहत विश्व हंसा,
नयनों में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झरिणी मचली!


मेरा पग-पग संगीत भरा,
श्वासों में स्वप्न पराग झरा,
नभ के नव रंग बुनते दुकूल,
छाया में मलय बयार पली,


मैं क्षितिज भॄकुटि पर घिर धूमिल,
चिंता का भार बनी अविरल,
रज-कण पर जल-कण हो बरसी,
नव जीवन अंकुर बन निकली!


पथ को न मलिन करता आना,
पद चिन्ह न दे जाता जाना,
सुधि मेरे आगम की जग में,
सुख की सिहरन बन अंत खिली!


विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी कल थी मिट आज चली!

साभार-कविता कोश

आज की मेरी अंतिम पोस्ट....नयी पुरानी हलचल में

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आज की मेरी अंतिम पोस्ट होगी
क्षमा चाहूँगी 

कि अब इस वर्ष कोई पोस्ट
नहीं लगा पाऊँगी......
हाँ अगले वर्ष....

आप सबसे मिलूँगी जरूर
यहीं इसी जगह
चलिये देखें आज की चुनिन्दा रचनाओं के शीर्षक...



उलूक टाइम्स में
पी के जा रहा है और पी के देख के आ रहा है
सुशील कुमार जोशी  



अभिनव रचना में
कभी भक्त होते, कभी भागते हैं।
ममता त्रिपाठी



ज्ञान दर्पण में
आखिरी तरीका ताऊ गिरी
रतन सिंह शेखावत



लहरें में
जिंदगी। नीट ओल्ड मोंक में मिली किसी सरफिरे की याद है।
पूजा उपाध्याय



सुधिनामा में
अतिथि देवो भव
साधना वैद



उच्चारण में
"शीतल पवन बड़ी दुखदाई"
रूपचन्द्र शास्त्री मयंक 



हिन्दी साहित्य में
सर्दी के दोहे
डॉ. जगदीश व्योम


आज बस इतना ही
ठण्ड से हांथ कुंद हो चले हैं

और अंत में आप सभी को
मेरी और हलचल परिवार की ओर से......
आंग्ल नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं

अब अगले वर्ष ही मिल पाऊँगी
यशोदा..




 


 


 



 


 




 



2015 में मुझे तुमसे कुछ नही चाहिए

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अपाहिज व्यथा / दुष्यंत कुमार

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अपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूँ,
तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ ।

ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं है,
इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ ।

अँधेरे में कुछ ज़िन्दगी होम कर दी,
उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ ।

वे सम्बन्ध अब तक बहस में टँगे हैं,
जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ ।

तुम्हारी थकन ने मुझे तोड़ डाला,
तुम्हें क्या पता क्या सहन कर रहा हूँ ।

मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब,
तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ ।

समालोचको की दुआ है कि मैं फिर,
सही शाम से आचमन कर रहा हूँ ।

साभार-कविता कोश 

वर्ष का तीसरा दिन....नयी पुरानी हलचल में

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वर्ष का तीसरा दिन....
नयी पुरानी हलचल में
इस वर्ष की मेरी पहली प्रस्तुति

देखिये आज की चुनिन्दा रचनाएँ......



सुशील कुमार जोशी उवाच
मजबूत बंधन के लिये गठबंधन की दरकार होती है
उलूक टाइम्स में



पाखी की दुनिया में
नए साल के साथ नई दोस्ती का एहसास
अक्षिता ( पाखी)



'आहुति'में 
मैं तो कही थी नही........!!!
सुषमा 'आहुति' 




कविता रावत में
नए साल के लिए कुछ जरूरी सबक
कविता रावत



ग्रेविटॉन में
दूर जाना चाहता तो ले के मेला चल
सज्जन धर्मेन्द्र



ज़िन्दगी…एक खामोश सफ़र में
मेरे इश्क की दुल्हन
वन्दना गुप्ता



कुछ मेरी कलम से में
एक पिता का पत्र ..
रंजना भाटिया



लम्हों का सफ़र में
नूतन साल (नव वर्ष पर 7 हाइकु)
डॉ. जेन्नी शबनम 



बेचैन आत्मा में
मैं कबीर की इज्जत करता हूँ
देवेन्द्र पाण्डेय



"पलाश"में
कुछ यूं आये साल नया
अपर्णा त्रिपाठी



उलूक टाइम्स में
नया साल कुछ नये सवाल पुराने साल रखे अपने पास पुराने सवाल
सुशील कुमार जोशी



काव्य संसार में
पैसा और पानी

मदनमोहन बाहेती "घोटू"


आज बस इतना ही...
विदा
यशोदा...


 


 


 


 


 


 



 



 


 



डाकिया लौट आया

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नमस्ते !
हलचल की रविवारीय प्रस्तुति में कुछ चुनिन्दा लिंक्स के साथ 
 आपका हार्दिक स्वागत है-


 

Living history - Storia vivente - जीवित इतिहास
 
 


और अंत में इस गीत के साथ ही इजाज़त दीजियेयशवन्त यशको -

बहुरूपिया - फणीश्वर नाथ रेणु

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दुनिया दूषती है
हँसती है
उँगलियाँ उठा कहती है ...
कहकहे कसती है -
राम रे राम!
क्या पहरावा है
क्या चाल-ढाल
सबड़-झबड़
आल-जाल-बाल
हाल में लिया है भेख?
जटा या केश?
जनाना-ना-मर्दाना
या जन .......
अ... खा... हा... हा.. ही.. ही...
मर्द रे मर्द
दूषती है दुनिया
मानो दुनिया मेरी बीवी
हो-पहरावे-ओढ़ावे
चाल-ढाल
उसकी रुचि, पसंद के अनुसार
या रुचि का
सजाया-सँवारा पुतुल मात्र,
मैं
मेरा पुरुष
बहुरूपिया।

साभार-कविता कोश 
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