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नया कवि : आत्म-स्वीकार -अज्ञेय

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किसी का सत्य था,
मैंने संदर्भ में जोड़ दिया ।
कोई मधुकोष काट लाया था,
मैंने निचोड़ लिया ।

किसी की उक्ति में गरिमा थी
मैंने उसे थोड़ा-सा संवार दिया,
किसी की संवेदना में आग का-सा ताप था
मैंने दूर हटते-हटते उसे धिक्कार दिया ।

कोई हुनरमन्द था:
मैंने देखा और कहा, 'यों!'
थका भारवाही पाया -
घुड़का या कोंच दिया, 'क्यों!'

किसी की पौध थी,
मैंने सींची और बढ़ने पर अपना ली।
किसी की लगाई लता थी,
मैंने दो बल्ली गाड़ उसी पर छवा ली ।

किसी की कली थी
मैंने अनदेखे में बीन ली,
किसी की बात थी
मैंने मुँह से छीन ली ।

यों मैं कवि हूँ, आधुनिक हूँ, नया हूँ:
काव्य-तत्त्व की खोज में कहाँ नहीं गया हूँ ?
चाहता हूँ आप मुझे
एक-एक शब्द पर सराहते हुए पढ़ें ।
पर प्रतिमा--अरे, वह तो
जैसी आप को रुचे आप स्वयं गढ़ें ।

साभार-कविता कोश 

दहेज : एक अभिशाप या एक हथियार

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नमस्ते !
हलचल की बुधवारीय प्रस्तुति में कुछ चुनिन्दा लिंक्स 
यशवन्त यश द्वारा -

दहेज : एक अभिशाप या एक हथियार 







 और अंत मे सुनिए यह गीत-


कुछ कभी न पूरे होने वाले ख्वाब

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नमस्ते !
हलचल की गुरुवारीय प्रस्तुति मे आपका स्वागत है 
इन लिंक्स के साथ-


दूध देने वाली गायों को
बकरी कटने वाले
कारखाने के रास्ते
पर दौड़ाते हैं
सीख लेते हैं
इस कलाकारी
को जो भी कलाकार
दीवार पर लगी सीढ़ी में
बहुत ऊपर तक
चढ़े नजर आते हैं
इस नये वर्ष में आप हर्षित रहें,
ख्याति-यश में सदा आप चर्चित रहें।
आज उपवन में महकें सुगन्धित सुमन,
राष्ट्र के यज्ञ में आप अर्पित रहें।।





 और अंत मे पेश है यह गीत -

कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ -- काका हाथरसी

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प्रकृति बदलती क्षण-क्षण देखो,
बदल रहे अणु, कण-कण देखो|
तुम निष्क्रिय से पड़े हुए हो |
भाग्य वाद पर अड़े हुए हो|

छोड़ो मित्र ! पुरानी डफली,
जीवन में परिवर्तन लाओ |
परंपरा से ऊंचे उठ कर,
कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ |

जब तक घर मे धन संपति हो,
बने रहो प्रिय आज्ञाकारी |
पढो, लिखो, शादी करवा लो ,
फिर मानो यह बात हमारी |

माता पिता से काट कनेक्शन,
अपना दड़बा अलग बसाओ |
कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ |

करो प्रार्थना, हे प्रभु हमको,
पैसे की है सख़्त ज़रूरत |
अर्थ समस्या हल हो जाए,
शीघ्र निकालो ऐसी सूरत |

हिन्दी के हिमायती बन कर,
संस्थाओं से नेह जोड़िये |
किंतु आपसी बातचीत में,
अंग्रेजी की टांग तोड़िये |

इसे प्रयोगवाद कहते हैं,
समझो गहराई में जाओ |
कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ |

कवि बनने की इच्छा हो तो,
यह भी कला बहुत मामूली |
नुस्खा बतलाता हूँ, लिख लो,
कविता क्या है, गाजर मूली |

कोश खोल कर रख लो आगे,
क्लिष्ट शब्द उसमें से चुन लो|
उन शब्दों का जाल बिछा कर,
चाहो जैसी कविता बुन लो |

श्रोता जिसका अर्थ समझ लें,
वह तो तुकबंदी है भाई |
जिसे स्वयं कवि समझ न पाए,
वह कविता है सबसे हाई |

इसी युक्ती से बनो महाकवि,
उसे "नई कविता"बतलाओ |
कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ |

चलते चलते मेन रोड पर,
फिल्मी गाने गा सकते हो |
चौराहे पर खड़े खड़े तुम,
चाट पकोड़ी खा सकते हो |

बड़े चलो उन्नति के पथ पर,
रोक सके किस का बल बूता?
यों प्रसिद्ध हो जाओ जैसे,
भारत में बाटा का जूता |

नई सभ्यता, नई संस्कृति,
के नित चमत्कार दिखलाओ |
कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ |

पिकनिक का जब मूड बने तो,
ताजमहल पर जा सकते हो |
शरद-पूर्णिमा दिखलाने को,
'उन्हें'साथ ले जा सकते हो |

वे देखें जिस समय चंद्रमा,
तब तुम निरखो सुघर चाँदनी |
फिर दोनों मिल कर के गाओ,
मधुर स्वरों में मधुर रागिनी |
( तू मेरा चाँद मैं तेरी चाँदनी ..)

आलू छोला, कोका-कोला,
'उनका'भोग लगा कर पाओ |
कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ|

साभार-कविता कोश 

इस शनिवार को...नयी पुरानी हलचल में

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क्षमा....बुध को नहीं आ पाई
अभी भी मैं बाहर ही हूँ
आँखो का ऑपरेशन हेतु

नया लेंस जो लगना है
आज की पोस्ट भी ये ही लगा रहे हैं
मैं मात्र बोल रही हूँ.....
आज की चुनी रचनाओं से रूबरु करवाती हूँ....



उजाले उनकी यादों के में
संदेह / जयशंकर प्रसाद
कुलदीप ठाकुर



कबाड़खाना में
खोल दो
अशोक पाण्डेय



लालित्यम् में
एक प्रयोग
प्रतिभा सक्सेना 



आवारगी में
वह जब से शहर-ए -ख़राबात को रवाना हुआ
लोरी अली



Ocean of Bliss में
चलें दूर गगन के द्वारे
रेखा जोशी



JINDGI SE MUTHBHED में
पिया गंध मोरे सांसन में है
अज़ीज़ जौनपुरी



अभिव्यक्ति में
कहीं सांकलों में जंग लग गयी तो
मंजू मिश्रा



आज बस इतना ही
संम्भवतः मैं अगले हफ्ते भी नहीं आ पाऊँगी

सादर
यशोदा


 


 



 


 



 


 



 


लोग तो लाखों है पर , क्या थोड़े से भी इंसान है

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 नमस्ते !
हलचल की रविवारीय प्रस्तुति में आपका हार्दिक स्वागत है इन लिंक्स के साथ -




और अंत मे आनंद लीजिये इस गीत का - 
 

एक थी गौरा - अमरकांत

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लंबे क़द और डबलंग चेहरे वाले चाचा रामशरण के लाख विरोध के बावजूद आशू का विवाह वहीं हुआ । उन्होंने तो बहुत पहले ही ऐलान कर दिया था कि 'लड़की बड़ी बेहया है।'
आशू एक व्यवहार-कुशल आदर्शवादी नौजवान है, जिस पर मार्क्स और गाँधी दोनों का गहरा प्रभाव है । वह स्वभाव से शर्मीला या संकोची भी है । वह संकुचित विशेष रूप से इसलिए भी था कि सुहागरात का वह कक्ष फ़िल्मों में दिखाए जाने वाले दृश्य के विपरीत एक छोटी अंधेरी कोठरी मे था, जिसमें एक मामूली जंगला थ और मच्छरों की भन-भन के बीच मोटे-मोटे चूहे दौड़ लगा रहे थे ।
लेकिन आशू की समस्या इस तरह दूर हुई कि उसके अंदर पंहुचते ही गौरा नाम की दुल्हन ने घूँघट उठा कर कहा, लीजिए मैं आ गई । आप जहाँ रहते, मैं वहीं पहुँच जाती । अगर आप कॉलेज में पढ़ते होते और मैं भी उसी कॉलेज में पढ़ती होती तो मैं ज़रूर आपके प्रेम बँधन मे बँध गई होती । आप अगर इंग्लैंड में पैदा होते तो मैं भी वहाँ ज़रूर किसी-न-किसी तरह पहुँच जाती । मेरा जन्म तो आपके लिए ही हुआ है ।
कोई चूहा कहीं से कूदा, खड़-खड़ की अवाज़ हुई और उसके कथन में भी व्यवधान पड़ा । वह फिर बोलने लगी, 'मेरे बाबूजी बड़े सीधे-सादे हैं । इतने शीधे हैं कि भूख लगने पर भी किसी से खाना न माँगें। इसलिए जब वह खाने के पीढ़े पर बैठते हैं तो अम्मा कहीं भी हों, दौड़ कर चली आती हैं । वह ज़िद करके उन्हें ठूँस-ठूँस कर खिलाती हैं, उनकी कमर की धोती ढीली कर देती हैं ताकि वह पूरी खुराक ले सकें । हमारे बाबूजी ने बहुत सहा है । लेकिन हमारी अम्मा भी बड़ी हिम्मती हैं ।'वह चुप हो गई । उसे संदेह हुआ था कि आशू उसकी बात ध्यान से नहीं सुन रहा है । पर ऐसी बात नहीं थी । वस्तुतः आशू को समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे । फिर उसकी बातें भी दिलचस्प थीं ।
उसका कथन जारी था, बाबूजी असिस्टेंट स्टेशन मास्टर थे । बड़े बाबू दिन में ड्यूटी करते थे और हमारे बाबूजी रात में । एक बार बाबूजी को नींद आ गई । प्लेटफ़ार्म पर गाड़ी आकर खड़ी हो गई । गाड़ी की लगातार सीटी से बाबूजी की नींद खुली । गार्ड अँग्रेज़ था, बाबूजी ने बहुत माफ़ी माँगी, पर वह नहीं माना । यह डिसमिस कर दिए गए । नौकरी छूट गई, गाँव में आ गए । खेती-बारी बहुत कम होने से दिक़्क़त होने लगी । बाबूजी ने अपने छोटे भाई के पास लिखा मदद के लिए तो उन्होंने कुछ फटे कपड़े बच्चे के लिए भेज दीजिए । यह व्यवहार देखकर बाबूजी रोने लगे ।
इतना कहकर वह अँधेरे में देखने लगी । आशू भी उसे आँखें फाड़कर देख रहा था । यह क्या कह रही है? और क्यों? क्या यह दुख-कष्ट बयान करने का मौक़ा है ! न शर्म और संकोच, लगातार बोले जा रही है !
उसने आगे कहना शुरू किया, 'लेकिन मैंने बताया था न, मेरी माँ बड़ी हिम्मती थी । एक दिन वह भैया लोगों को लेकर सबसे बड़े अफ़सर के यहाँ पहुँच गई । भैया लोग छोटे थे । वह उस समय गई जब अफ़सर की अँग्रेज़ औरत बाहर बरामदे में बैठी थी । अम्मा का विश्वास था कि औरत ही औरत का दर्द समझ सकती है । अफ़सर की औरत मना करती रही, कुत्ते भी दौड़ाए पर अम्मा नहीं मानी और दुखड़ा सुनाया । अंग्रेज़ अफ़सर की पत्नी ने ध्यान से सन कुछ सुना । फिर बोली, 'जाओ हो जाएगा ।'अम्मा गाँव चली आई । कुछ दिन बाद बाबूजी को नौकरी पर बहाल होने का तार भी मिल गय । तार मिलते ही बाबूजी नौकरी जॉइन करने के लिए चल पड़े । पानी पीट रहा था पर वह नहीं माने, बारिश में भीगते ही स्टेशन के लिए चल पड़े ।
उनकी रुहेलखण्ड रेलवे में नियुक्ति हो गई । बनबसा, बरेली, हलद्वानी, काठगोदाम, लालकुआँ । हम लोग कई बार पहाड़ों पर पैदल ही चढ़कर गए हैं । भीमताल की चढ़ाई, राजा झींद की कोठी । उधर के स्टेशन क्वार्टरों की ऊँची-ऊँची दीवारें । शेर-बाघ, जंगली जानवरों का हमेशा खतरा रहता है । एक बार हम लोग जाड़े में आग ताप रहे थे तो एक बाघ ने हमला किया, लेकिन आग की वज़ह से हम लोग बाल-बाल बच गए । वह इस पार से उस पार कूद कर भाग गया ।'
वह रुक कर आशू को देखने लगी । फिर बोली, 'मैं तभी से बोले जा रही हूँ...आप भी कुछ कहिए...।'
आशू सकपका गया फिर धीमे से संकोचपूर्वक बोला, 'मैं...मेरे पास कहने को कुछ खास नहीं है । हाँ, मैं लेखक बनना चाहता हूँ... मैं लोगों के दुख-दर्द की कहानी लिखना चाहता हूँ, लेकिन मेरे अंदर आत्मविश्वास की कमी है । पता नहीं, मैं लिख पाऊँगा कि नहीं...।'
क्यों नहीं लिख पाएँगे ? ज़रूर लिखेंगे । मेरी वज़ह से आपके काम में कोई रुकावट न होगी । मुझसे जो भी मदद होगी, हो सकेगी, मैं ज़रूर दूँगी... आप निश्चिंत रहिए । मेरे भैया ने कहा है कि 'तुम्हें अपने पति की हर मदद करनी होगी...जिससे वह अपने रास्ते पर आगे बढ़ सकें...।'मुझे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए...आप जो खिलाएँगे और जो पहनाएँगे, वह मेरे लिए स्वादिष्ट और मूल्यवान होगा । आप बेफ़िक्र होकर लिखिए, पढ़िए...आपको निरंतर मेरा सहयोग प्राप्त होगा...।'
उसकी आँखें भारी हो रही थीं और अचानक वह नींद के आगोश में चली गई ।
आशू कुछ देर तक उसके मुखमंडल को देखता रहा । वह सोचने लगा कि गौरा नाम की इस लड़की के साथ उसका जीवन कैसे बीतेगा...लेकिन लाख कोशिश करने पर भी वह सोच नहीं पाया । वह अँधेरे में देखने लगा ।

साभार -गद्य कोश 

अरुंधती - शिवानी

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उसका साथ यद्यपि तीन ही वर्ष रहा, पर उस संक्षिप्त अवधि में भी हम दोनों अटूट मैत्री की डोर में बँध गए। उन दिनों पूरा आश्रम ही संगीतमय था। कभी 'चित्रांगदा'का पूर्वाभ्यास, कभी 'माचेर-खेला', कभी 'श्यामा'और कभी 'ताशेर देश'। उन दिनों आश्रम में सुरीले कंठों का अभाव नहीं था। खुकू दी (अमिता), मोहर (कनिका देवी), स्मृति, इंदुलेखा घोष, विश्री जगेशिया, सुचित्रा ऐसी ही कोकलकंठी सुगायिकाओं के कंठों में एक कड़ी और जुड़ी। जैसा ही कंठ, वैसी ही खाँटी बंगाली जोतदारी ठसक। बूटा-सा कद, उज्ज्वल गौर वर्ण, बड़ी-बड़ी फीरोजी शरबती आँखें, जो पल-पल गिरगिट-सा रंग बदलती थीं। पहले ही दिन उसने संगीत सभा में बाउल गीत गाया -
कंठे आमार
शेष रागिनीर वेदन बाजे बाउल शेजेगो!
तो पूरा आश्रम झूम उठा और फिर तो वह देखते-ही-देखते लोकप्रिय गायिकाओं में अग्रणी हो गई। यद्यपि वह छात्रावास में कभी नहीं रही। पहले खेल के मैदान के छोर पर और बाद में आश्रम के सीमांत पर बनी एक पुरानी कोठी को किराए पर लेकर उसकी विधवा माँ अपने परिवार को लेकर रहने लगी।
उसी ने बताया कि वे अठारह भाई-बहन हैं, पर सब इधर-उधर। कुछ बहनों का विवाह हो गया था, कुछ को विदेश भेजा। वे प्रवासिनी बन गई थीं। बड़े भाई की मृत्यु हो चुकी थी। केवल दो भाई गोपाल और बादल आश्रम में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। उनका रहन-सहन, ओढ़ना-पहनना, खान-पान एकदम जमीनदाराना था। कई दास-दासियाँ थीं। खाना पकाने वाला उड़िया ठाकुर था, जिसकी अद्भुत पाक-कला से नुकू (यही अरुंधती का 'पुकारने का नाम'था) की पूरी मित्र-मंडली बुरी तरह प्रभावित हो चली थी। एक ओर उनका आभिजात्य, दूसरी ओर वैसी ही विनम्र शिष्टता। उसकी माँ, जिन्हें हम 'माशी माँ'कहते थे, दीर्घांगी व्यक्तित्व सम्पन्न तेजस्वी महिला थीं। बहुत कम बोलती थीं, पर स्नेह-धारा जैसे उनकी विषादपूर्ण आँखों से निरंतर झरती रहती थी। प्राय: ही हमें खाने को बुलातीं और स्वयं हाथ का पंखा झलतीं। हमें परमतृप्ति से खाते देख स्वयं भी तृप्त हो उठतीं।
मैंने नुकू के जितने भी भाई-बहन देखे, सबका रंग-रूप-ठप्पा प्राय: एक-सा ही था। केवल छोटे भाई प्रवीर या बादल को छोड़ कर। वही ऐंग्लोइंडियनी रंग और हरी-हरी आँखें। कभी भी किसी अनुष्ठान में वंदेमातरम गाने का अवसर आता, तो हम दोनों को ही एक साथ बुलाया जाता। हमारे संगीत गुरु शैलजा रंजन मजूमदार कहते थे, 'तादेरे गला बेश मिते जाए। तारोई जाबी।' ('तुम दोनों का कंठस्वर मेल खाता है, इसी से तुम्हीं दोनों को जाना होगा।')
एक बार यही 'वंदेमातरम'गान गाने के लिए हमें शिउड़ी ग्राम जाना पड़ा था। बैलगाड़ी में हिचकोले खाते-खाते जब शिउड़ी पहुँचे, तो संध्या हो गई। उद्बोधिनी संगीत के बाद ही लौटना पड़ा। मार्ग में अँधेरा हो गया। सहसा आँधी आई और बैलगाड़ी में लटकी लालटेन भी बुझ गई। यद्यपि हमारे साथ और भी लोग थे, पर सुना था वह मार्ग बहुत सुविधा का नहीं हैं। पास ही में कहीं कापालिकों की आराध्या अट्टहास देवी का मंदिर भी है।
बार-बार गाड़ीवान कह रहा था, 'भय पाबेन ना दीदीमनीरा, किस्सू हौबे ना!' (डरिएगा मत दोदीमनी, कुछ नहीं होगा) पर जब तक बोलपुर नहीं पहुँचे, हम दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़े भय से काँपती रही थीं।
अरुंधती का चेहरा विधाता ने अवकाश ही में गढ़ा होगा। खड्ग की धार-सी नाक, छोटे दो रसीले अधर और मद-भरी आँखें। न कोई मेकअप, न सज्जा, फिर भी अष्टभुजा का-सा दिव्य रूप।
एक घटना बरबस अतीत की ओर खींच रही है। एक बार आश्रम के मेले में आश्रम की कुछ छात्राओं ने चाय का एक स्टॉल लगाया। सबने सफेद साड़ी पहनी, संथाली जूड़ों में जवापुष्प खोंसा और सिर पर धरी तिरछी गांधी कैप। 'मेनू'की सज्जा सँवारी जया अप्पास्वामी ने। देखते-ही-देखते हमारी दुकान पर भीड़ लग गई। आश्रम का चाय वाला बूढ़ा कालू, जिसका स्टॉल ठीक हमारे स्टॉल के सामने था, हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगा, 'दीदीमनीरा, आमार दोकाने जे केइ आशछे ना। सब दादा बाबूरा तो अपना देरई दोकाने!' (दीदीमनी, मेरी दुकान में तो ग्राहक फटक ही नहीं रहे हैं, सब दादा बाबू तो आप ही की दुकान पर जा रहे हैं।)
हमने उसे आश्वस्त किया कि हम अपनी दुकान चार बजे ही उठा लेंगे। कोई नहीं आया तो हम सब छात्राएँ उसी के स्टॉल पर खाकर उसकी क्षतिपूर्ति करेंगी। एक तो हमारे स्टॉल पर वे सर्वथा नवीन स्वादवाली सामग्री परिवेशित हो रही थी, जो बंगाल की जिह्वा के लिए अभिनव थी। इडली बड़ा, उधर उत्तर-प्रदेशी समोसे, बिहार का तिलबुग्गा और अनरसे। सर अकबर हैदरी भी हमारी दुकान पर पधारे तो उन्हें एक समोसा खिला हमने दस रुपए उगाह लिए। वह भी तब, जब एकन्नी में मसाले से ठँसा-फँसा समोसा अन्यत्र उपलब्ध था। मृणाल दी (मृणालिनी साराभाई), बूढ़ी दी (नंदिता कृपलानी), दक्षिण को लीला एप्पन, चकर-चकर चहकने वाली चेट्टी, चीन की मारी बाँग सब परिवेशन के लिए फौजी अनुशासन में खड़ी थीं। जिस मेज पर मैं और नुकू थे, देखा उसी ओर एक अपरिचित जोड़ा चला आ रहा है। अपरूप सुंदरी यौवनाक्रांता छरहरी कनक छड़ी-सी तरुणी और उतना ही काला-कदंब बौना-सा सहचर।
मैंने नुकू के कान में फुसफुसा कर कहा, 'एई दैख नुकू ब्यूटी एँड बीस्ट!'वह हँस कर चुप रही। दोनों हमारी मेज पर बड़ी देर तक खाते, बतियाते हँसते-खिलखिलाते रहे, फिर उस व्यक्ति ने नुकू को बुलाकर कहा, 'एई नुकू बिल निए आय!'
मैं चौंकी। तब क्या वह इन्हें जानती थी? पर तब ही, उसने बड़ी दुष्टता से हँसकर मेरा हाथ पकड़ उन दोनों के सम्मुख खींचकर कहा, 'जानो छोट दी, आमार बंधु तोमादेर की बोलछे? ब्यूटी एँड बीस्ट!'
मैं लज्जा से कट कर रह गई। मुझे क्या पता था कि छोट दी नुकू की सगी बड़ी बहन हैं और कल ही कलकत्ता से आई हैं और उनके सहचर, जिन्हें मैंने अज्ञानवश 'बीस्ट'की उपाधि से विभूषित किया था, वे उसके सगे जीजा हैं। पर उसके रसिक जीजा ने शायद मेरी अपदस्थता भाँप ली थी। बड़े अधिकार से मेरा हाथ खींच, अपने पास बिठाकर बोले, 'बेश करेछो हे, आमार सुंदरी गिन्नी के ब्यूटी बलेछो तो थेंक्स!'
उन्हें 'बीस्ट'कहा था, यह वह आह्लादी उदार व्यक्ति भूल गया। इसके बाद दो बार उनसे मिलना हुआ। वही प्रसंग और वैसे ही उदार हँसी। यही नहीं, पूजा में उन्होंने मेरे लिए विशेष उपहार के रूप में एक हाँडी संदेश ही नहीं भिजवाए, एक सुंदर धानी घनरेवाली साड़ी भी भेजी। साथ में था एक पत्र -
ओहे शालीर बंधु ए साड़ी तोमाके खूब मानाबे आमादेर भालबाशा निमो - ब्यूटी एँड बीस्ट।
(अरी, साली की सखी, यह साड़ी तुम पर खूब फबेगी। हमारा प्यार लो - ब्यूटी एँड बीस्ट।)
आज भी वह स्नेहप्रवण चेहरा याद आते ही अपनी बचकानी उक्ति पर लज्जा आती है। छोट दी अभी भी आश्रम में हैं। जमाई बाबू नहीं रहे। वही दो वर्ष पूर्व नुकू ने मुझे बंबई में मिलने पर बताया था। वह अपने पति प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक श्री तपन सिन्हा के साथ जसलोक में अपनी बायपास सर्जरी कराने आई थी। अंत तक शल्यक्रिया नहीं हुई। अस्पताल के व्यवहार से वह क्षुब्ध होकर मेरे यहाँ चली आई और दिन भर हम दोनों ने साथ बिताया।
कितनी बातें कीं। कितनी ही अनकही रह गईं। अरुंधती ने अपने जीवन-काल में ही प्रचुर ख्याति बटोरी थी। पहले स्वयं चलचित्रों के माध्यम से अपने अपूर्व अभिनय द्वारा, गायिका के रूप में और 'यात्रिक', 'क्षुधित पाषाण', 'महाप्रस्थानेर पथे', 'छुटी', 'गोपाल'आदि चलचित्रों की निर्देशिका के रूप में!
देखना, कभी तेरे किसी उपन्यास पर भी फिल्म बनाऊँगी, पर हिंदी तो आता नहीं। तू ही बँगला में सिनॉप्सिस बनाना। यही कभी माणिक दा (सत्यजीत रे) ने भी कहा था, किन्तु मन-की-मन में रह गई। मेरे उपन्यास धरे ही रह गए, नुकू चली गई।
जब उसे बंबई में देखा, तो धक्का लगा था। कहाँ गया वह रूप, वह रंग! जब आश्रम के असंख्य छात्रों के हृदय वह अपनी फीरोजी आँखों की चिलमन में दाबे, गर्वोन्नत मरालग्रीवा उठाए, राजमहिषी की-सी चाल में घूमती थी। मग्न दंतपंक्ति, काल धूसर गौरवर्ण, जिसकी पीताभ आभा पर सुदीर्घ व्याधि ने स्याही-सी फेर कर रख दी थी। कौन कहेगा यह कभी आश्रम की सर्वश्रेष्ठ सुरसुंदरी के रूप में जानी जाती थी। ठीक ही कहा है शायद -
मा कुरु धनजन यौवन गर्वम् हरति निमेषे काल: सर्वम्।
बहुत पहले पक्षाघात का एक सशक्त झटका उसके पैरों में भी अपने कुटिल हस्ताक्षर छोड़ गया था। 'देखद्दीश तो पायेर की दुरवस्था! (देख रही है, पैरों की कैसी दुरवस्था हो गई है!) मेरी आँखों में आँसू आ गए।
एक बार उसकी सज्जा करने में जुटी गौरी दी (नंदलाल बोस की बड़ी पुत्री) ने मेरी ही उपस्थिति में कहा था, 'आहा, ऐकेबारे मुगल ब्यूटी!' (आहा, एकदम मुगल ब्यूटी!)
पर आँखें अब भी वैसी ही थीं - अमिय हलाहल मद भरे। ठीक जैसे किसी ऐतिहासिक बुलंद इमारत के खँडहर में अनूठे कँगूरों से विभूषित झरोखे, ज्यों के त्यों धरे हों। इसके बाद उसका एक ही पत्र मिला था। वह बायपास के लिए विदेश जा रही है, पर वहाँ से भी कोरी ही लौटी, फिर पहुँची बेंगलौर। उसने भी शल्यक्रिया को निरापद नहीं बताया। कई धमनियाँ रक्त के थक्कों से अवरुद्ध हो गई थीं, फिर एक दिन वह बिना किसी से विदा लिए चुपचाप चली गई।

इस बुध की नयी पुरानी हलचल में

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मकर संक्रान्ति की शुभ कामनाएं









 मैं दिग्विजय अग्रवाल
आप सभी का अभिनन्दन करता हूँ

आज की हलचल मेरी पसंद की
थोड़ा तो कष्ट होगा पर

अच्छा भी लगेगा बदलाव....
तो बढ़ें आगे.......


मकर राशि में आ गये, अब सूरज भगवान।
नदिया में स्नान कर, करना रवि का ध्यान।‍१।
उच्चारण में रूपचन्द्र शास्त्री मयंक

 



नहीं. आज मैं चीखूंगी. 'आई लव यू पापा
दुनिया में अगर सिर्फ तीन लोगों से प्यार किया है
तो बस पापा से,
मंटो से और तुमसे
लहरें में पूजा उपाध्याय



“दादा जी ! जब आपको कहीं जाना होगा
तो मैं आपको अपनी नई साईकिल से ले चलूँगा ।”
कबाड़ में अर्चना तिवारी



वैसे मैं अपने इस ब्लॉग पर कवितायें ही पोस्ट करता रहा हूँ ।
पर इस बार एक कहानी
काव्य सुधा में नीरज कुमार नीर



तुम मेरे घर आना
खोल अपनी लाल पोटली
जग में रश्मि बिखराना
मधुर गुंजन में ऋता शेखर



निःशब्द और अक्षर का
निर्जन गीत लिख रहा था !
हिन्दी कविता मंच पर ऋषभ शुक्ला



कंजूस मक्खीचूस
एक लघुकथा
पिट्सबर्ग में एक भारतीय में स्मार्ट इण्डियन 



संसार में सबसे अच्छा ,
सबसे सच्चा और सबसे प्यारा शब्द
सिर्फ और सिर्फ "मां "ही है !
कविताओं के मन से....!!!! में विजय कुमार सप्पत्ति  



कभी ख़त्म नहीं होता सिलसिला
यादें
स्वप्न मेरे में दिगम्बर नासवा



नया विहान शब्दों का संसार रचें महान
नदिया तीरे
सपने में शशि पुरवार
 


 मैं आज का स्थानापन्न चर्चा कार
दिग्विजय अग्रवाल आप सबसे
यहीं विदा लेता हूँ......


 


 


 


 



 





 


 

लोग क्या कहेंगे---?

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नमस्ते ! हलचल की गुरुवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है इन लिंक्स के साथ - लोग क्या कहेंगे---? Duck morning - Mattina papera - बतखमयी सुबह धीरज मन का टूट न जाये  अपवित्र : पुरुष सोच न कि नारी शरीर "संदेश" कुच्छ तो कहें किसी से तो कहें दिल की बातें यूँ ही ...  और अंत में आनंद लीजिये इस गीत का -

चलना हमारा काम है -शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

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गति प्रबल पैरों में भरी फिर क्यों रहूं दर दर खडा जब आज मेरे सामने है रास्ता इतना पडा जब तक न मंजिल पा सकूँ, तब तक मुझे न विराम है, चलना हमारा काम है। कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया कुछ बोझ अपना बँट गया अच्छा हुआ, तुम मिल गई कुछ रास्ता ही कट गया क्या राह में परिचय कहूँ, राही हमारा नाम है, चलना हमारा काम है। जीवन अपूर्ण लिए हुए पाता कभी खोता कभी आशा निराशा से घिरा, हँसता कभी रोता कभी

नहीं न छोड़ूंगा पीछा...... आज का शनिवारीय

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आज की हलचल पुनः मेरी ही कलम से सादर अभिवादन....सूर्य ने रास्ता बदल लिया है दिन अब शैनेः शैनेः बड़ा होने लगेगा कितनी ऊटपटांग है प्रकृति भीजब भीषण गर्मी होती है  तो दिन बड़ा होता हैऔर जब कड़ाके की ठण्ड रहती है  तो दिन और भी छोटा हो जाता है पता नहीं मैं कैसे और क्या-क्या कहने लगाप्रकृति के खिलाफ.....क्षमा प्रकृति देवीचलिए चलते हैं मेरी पसंद की ओर.... लोगों के सीखने का तरीका अलग अलग होता है. कुछ

जिंदगी तो जिंदगी है जैसे कोई कील.........ख्यालों की

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नमस्ते ! हलचल की रविवारीय प्रस्तुति में पेश ए खिदमत हैं कुछ खास और चुनिन्दा लिंक्स - शिल्पा जी के अनुसार जिंदगी तो जिंदगी है  डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक" जी के ब्लॉग पर  "डूबा नया जमाना"  वंदना गुप्ता जी के ब्लॉग पर है  कील.........ख्यालों की सुबह की चुस्की लीजिये राहुल जी के साथ  आरती जी को भाता है मीठा भ्रम इंतज़ार साहब के इंतज़ार में  मोगरे के फूल पर चाँदनी सोई हुई प्रतिभा जी

अपत्नी - ममता कालिया

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हम लोग अपने जूते समुद्र तट पर ही मैले कर चुके थे। जहाँ ऊँची-ऊँची सूखी रेत थी, उसमें चले थे और अब हरीश के जूतों की पॉलिश व मेरे पंजों पर लगी क्यूटेक्स धुंधली हो गयी थी। मेरी साड़ी क़ी परतें भी इधर-उधर हो गयीं थीं। मैं ने हरीश से कहा- उन लोगों के घर फिर कभी चलेंगे। - हम कह चुके थे लेकिन! - मैं ने आज भी वही साडी पहनी हुई है। -मैं ने बहाना बनाया। वैसे बात सच थी। ऐसा सिर्फ लापरवाही से हुआ था।

धाराधीश की दान-धारा -अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

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महाराज भोज की गणना भारतवर्षीय प्रधान दानियों में होती है। वे अपने समय के धन-कुबेर तो थे ही, दानि-शिरोमणि भी थे। यदि वे मुर्तिमन्त दान थे तो उनकी धारानगरी दानधारा-तरंगिणी थी। हृदय इतना उदार था कि उनके सामने याचक हाथ फैलाकर अयाच्य हो जाता था।
प्रात:काल का समय था। भगवान भुवन-भास्कर की किरणें उषा देवी से गले मिलकर धरातल को ज्योति प्रदान कर रही थीं। समीर धीरे-धीरे बह रहा था। दिशाएँ प्रफुल्ल थीं। धारा अंक विलसिता सरिता विहँसिता थी। लोल लहरें नर्तन-रत थीं और किरणों के साथ कल्लोल कर रही थीं। सरिता-तट पर खड़े भोजराज अंभोजोपम नेत्रों से इस दृश्य को देख रहे थे और प्रकृति सुन्दरी की मनोहारिणी छवि अवलोकन कर विमुग्ध थे। इसी समय उन्हांने सरिता में से एक ब्राह्मण को निकलकर वस्त्र बदलते देखा और पूछा-'नद्यां कियज्जलं विप्र'हे विप्र, नदी में कितना जल है? उसने कहा-'जानुदध्नम् नराधिप''हेनराधिप, जाँघ भर'। कहा जाता है, यह 'जानुदध्नम्'वाक्य महाराज को इतना प्रिय हुआ, और उसके विन्यास को उन्होंने इतना पसन्द किया कि उसको एक लाख रुपए का पुरस्कार दिया। सम्भव है, यह कहा जावे कि यह गढ़ी हुई बात है,इसमें अत्युक्ति है, तिल को तोड़ बनाया गया है। प्राय: देखा जाता है कि किसी राजा-महाराज अथवा महज्जन की साधारण बातों को भी चापलूस असाधारण बना देते हैं। फिर भी यह कथानक उनकी दानशीलता और उदार वृत्ति पर अच्छा प्रकाश डालता है। क्योंकि, ख्याति प्राय: साधार होती है, निराधार नहीं। विशेषता का अधिकारी विशिष्ट पुरुष ही होता है।
धाराधीश के प्रबल दान-धारा-प्रवाह और उनकी सबल मुक्तहस्तता से ज्ञात होता है कि काल पाकर राज्य के व्यवस्थापक विचलित हुए और उन लोगों ने एक चाल चली। किसी योग्य विद्वान् के समादर में उन लोगों को कोई आपत्ति न थी। परन्तु, प्रति दिवस साधारण-से-साधारण संस्कृतज्ञों का नये श्लोक बनाकर सभा में पहुँचना और श्लोक में किसी विशेषता के न होने पर पुरस्कृत हो जाना उन लोगों को सहन न हुआ। अतएव, उन लोगों ने राज-सभा के तीन ऐसे विद्वानों को चुना, जिनमें एक को एक बार, दूसरे को दो बार और तीसरे को तीन बार सुनने पर कोई श्लोक कंठ हो जाता। नियम यह रक्खा गया कि अब उसी विद्वान को पुरस्कार दिया जावेगा, जिसके श्लोक को ये तीनों विद्वान् सहमत होकर नया बतावेंगे। जिसका परिणाम यह हुआ कि पंडितों का पुरस्कृत होना उतना सुगम नहीं रह गया, जितना पहले था। जब कोई पण्डित सभा में आकर श्लोक पढ़ता तो सभा का पहला विद्वान् कहता कि 'यह श्लोक पुराना है। देखो,मुझको याद है।'कारण यह था कि उसको एक बार श्लोक सुनने से ही याद हो जाता था। आगत पण्डित ने श्लोक पढ़ा नहीं कि उसे श्लोक याद हो जाता और वह उसे पढ़ यथातथ्य सुना देता। क्रमश: श्लोक पढ़े जाने पर दूसरे और तीसरे विद्वान् को भी श्लोक याद हो जाता और वे भी उसको सुनाकर यही कहते कि यह श्लोक प्राचीन है। ऐसी अवस्था में आगत पण्डित उनका मँह देखता रह जाता। सम्मानार्ह पूज्य विद्वानों के साथ यह व्यवहार नहीं होता था। उन्हीं लोगों के सिर यह बला आती जो लाख रुपए के मोह में पड़कर साधारण-से-साधारण श्लोक रचकर राजसभा में उपस्थित होते। प्रतिभा-सम्पन्न विद्वान् सभा में सदा पुरस्कृत होते रहे और धारा नगराधीश की दान-धारा सदा प्रवाहित होती रही। एक बार एक विद्वान् ने राज सभा में आकर यह श्लोक सुनाया-
राजन्श्रीभोजराजत्रिभुवनविजयी धार्मिकस्तेपिताऽभूत।
पित्रतेनगृहीता नवनवतिमिता रत्नकोटिर्मदीया।
तां त्वं देहि त्वदीयैस्सकलबुधवरै : ज्ञायते वृत्त मेतत्।
नो चेज्जानन्ति तेवै नवकृतमथवा देहि लक्षम् ततो मे।
'हे त्रिभुवन-विजयी महाराज भोज! आपके पितृदेव धार्मिक थे। उन्होंने निन्यानवे करोड़ रत्न मुझ से ऋण लिए। आप उसको दीजिए। आपके विवुधवर इसको जानते हैं। यदि वे नहीं जानते हैं, और मेरा यह श्लोक नवकृत है, तो जाने दीजिए, मुझको एक लाख ही दीजिए।'
इस श्लोक को सुनकर राजसभा के विवुध चिन्तित हो गये। उन्होंने सोचा कि यदि हम इसे प्राचीन कहते हैं, तो निन्नानवे करोड़ का झगड़ा सामने आता है। इसलिए उनको विवश होकर श्लोक को नया कहना पड़ा और श्लोक में कोई उल्लेखनीय काल-क्रम न होने पर भी महाराज भोज ने कवि को एक लाख मुद्रा प्रदान किया। श्लोक में अभद्रता है, असंयत भाव है। अतएव आधुनिक पण्डित जब इस श्लोक को सुनते हैं, नाक-भौं सिकोड़ते हैं और कहते हैं, यह श्लोक कदापि पुरस्कार योग्य नहीं है। मैं कथानक को सत्य नहीं मानता। एक दूसरे विद्वान् की राय यह है कि श्लोक में रचना-चातुरी है, निर्भीकता है, एक विरोधी संगठन का मानमर्दन है और है विलक्षण प्रतिभा-विकास। इसलिए वह पुरस्कार योग्य अवश्य है। मतभिन्नता स्वाभाविक है;किन्तु, जिसमें सहृदयता, उदारता, द्रवणशीलता, लोकपरायणता और परोपकार-प्रवृत्ति होती है,साथ ही जिसके हाथ में विशेषाधिकार और उत्तरदायित्व भी होता है, उसकी सूझ-बूझ भी असाधारण होती है। अनेक अवस्थाओं में वह सर्व-साधारण को बोधगम्य नहीं होती। धाराधीश की दान-धारा ऐसी ही है। अतएव वह प्रशंसनीय है, और उनकी कलित कीर्ति की वह कान्त ध्वजा है, जो आज तक भारत-धारा में उड़-उड़कर उनको उन गौरवों से गौरवित कर रही है,जिसका अधिकारी उन जैसा कोई महादानी हो सकता है।

साभार-गद्य कोश 

सफ़र वही, सोच नई ज़िन्दगी जैसे गुनगुनाई है

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__/\__नमस्ते ! __/\__
हलचल की बुधवारीय प्रस्तुति में आपका हार्दिक स्वागत है 

साधना आंटीके अनुसार -
अच्छा ही है
जो दूर हो तुम !
धधकते हृदय में इस वक्त

पूनम जीबस यूं ही गुनगुना रही हैं -
शाम कुछ इस तरह से आई है
ज़िन्दगी जैसे गुनगुनाई है ...!

अरमान जी के आसपास-
अचानक कुछ बदल गया था
अजीब बदसूरती में ढल गया था

प्रतीक बाबूका  

अंजू दीदीका कहना है -
इन दिनों साहनी जी 92.7 बिग ऍफ़ एम (कार्यक्रम : सुहाना सफर विद अन्नू कपूर) पर सुनाये जाने वाले किस्सों- कहानियों को फेसबुक पर प्रस्तुत कर रहे हैं! ऍफ़ एम से नोट कर उन्हें टाइप करने और फिर पोस्ट से सम्बंधित तस्वीरें ढूंढकर लगाने में कितना भी वक़्त लगे पर जगमोहन जी ये रोचक तथ्य परोसने में खासी ख़ुशी महसूस करते हैं!   

दिगंबर नासवा जी कह रहे हैं -
चाहता हूँ पूछना जानवर से
जानवर होने की प्रवृति क्या आम है उनमें
या जरूरी है इंसान होना इस काबलियत के लिए

ज्योति देहलीवाल जी बता रही हैं कि 
पहुंचने की कोशिश करती हूँ  या पहुँच ही जाती हूँ 

राजेश राय जीकहते हैं 
समन्दर की प्यास देखकर मुझको यही लगा
जैसे किसी अमीर की दस्तार बिक गयी।

इंतज़ार जीदिखा रहे हैं 
खुले आसमान का सपना  

कविता रावत जी की कहानी 
बाहर ठंड का प्रकोप बढ़ता जा रहा था। आसमान गरज-चमक दिखाकर ओले बरसा रहा था।सारा गांव ठंड से अपने घरौंदों में दुबका हुआ था।


और अंत मे आनंद लीजिये इस गीत का -

उठो - खड़े होओ - आगे बढ़ो....

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कंधे श्रवणकुमार के -हरिशंकर परसाई

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एक सज्जन छोटे बेटे की शिकायत करते हैं - कहना नहीं मानता और कभी मुँहजोरी भी करता है। और बड़ा लड़का? वह तो बड़ा अच्छा है। पढ़-लिखकर अब कहीं नौकरी करता है। सज्जन के मत में दोनों बेटों में बड़ा फर्क है और यह फर्क कई प्रसंगों में उन्हें दिख जाता है। एक शाम का प्रसंग है। वे नियमित संध्यावंदन करते हैं (यानी शराब पीते हैं), कोई बुरा नहीं करते। बहुत लोग पीते हैं। गंगाजल खुलेआम पीते हैं, शराब छिपकर - गो शराब ज्यादा मजा देती है। आदमी बेमजा खुलकर बात करता है। और बामजा को छिपाकर, यानी सुख शर्म की बात मानी जाती है। लेकिन बात उन सज्जन की उठी थी। उन्हें सोडा की जरूरत पड़ती है। बड़ा लड़का कहते ही फौरन किताब के पन्नों में पेन्सिल रखकर सोडा लेने दौड़ जाता था। लाता छोटा भी है, पर फौरन नहीं उठता। पैराग्रफ पूरा करके उठता है। भारतीय पिता को यह अवज्ञा बरदाश्त नहीं। वह सीमांतों पर संबंध रखता है। या तो बेटे को पीटेगा या उसके हाथ से पिटेगा। बीच की स्थिति उसे पसंद नहीं। छोटा बेटा भी हरकत करता है। पिता जल्दी मचाते हैं, तो कह भी देता है ‘जाता तो हूँ’ ! उसके मन में सवाल और शंका भी उठती है। सोचता है - यह पिता फीस रोकर देता है, कपड़े बनवाना टालता जाता है, फिर यह नहीं सोचता कि इसे पढ़ाई के बीच से नहीं उठना चाहिए।
बड़े लड़के के मन में कभी सवाल और शंका नहीं उठे। वह मेरी ही उम्र का होगा। उसने वही किताब पढ़ी होंगी, जो मैंने पढ़ी थीं। हम सब गलत किताबों की पैदावार हैं। ये सवालों को मारने की किताबें थीं। स्कूल प्रार्थना से शुरू होता था -‘शरण में आए हैं हम तुम्हारी, दया करो हे दयालु भगवन!’ - क्यों शरण में आए हैं, किसके डर से आए हैं - कुछ नहीं मालूम। शरण में आने की ट्रेनिंग अक्षर-ज्ञान से पहले हो जाती थी। हमने गलत किताबें पढ़ीं हैं और आँखों को उनमें जड़ दिया। छोटा लड़का दूसरी किताबें पढ़ता है और आँखें उनमें गड़ाता नहीं है, आसपास भी देख लेता है। वह अपनी आँखों को फूटने से बचाने की कोशिश कर रहा है। इससे सारे पिता-स्वरूप लोग परेशान हैं - भौतिक पिता, गुरु, बड़े-बूढ़े शासक और नेता। हमारी किताबों में पिता-स्वरूप लोग सवाल और शंका से ऊपर होते थे। शिष्य पक्षपाती गुरु को अँगूठा काटकर दे देता था और दोनों ‘धन्य’ कहलाते थे। अब शिष्य उपकुलपति से रिपोर्ट कर देता है कि अमुक अध्यापक शिष्यों के अँगूठे कटवाते हैं। यदि उपकुलपति ध्यान नहीं देते, तो वह विद्यार्थियों का जुलूस लेकर विश्वविद्यालय पर धावा बोल देता है। हमें तो तीसरी कक्षा में ही उस भक्त की कथा पढ़ा दी गई थी, जो अपने पुत्र को आरे से चीरता है। कुछ लोगों के लिए आदमी और कद्दू में कोई फर्क नहीं। दोनों ही चीरे जा सकते हैं। उस भक्त का नाम मोरध्वज था। ऐसी सारी कथाओं का अंत ऐसा होता है जिससे चिरनेवालों को प्रोत्साहन मिले। भगवान प्रकट होते हैं और जिस पार्टी का जो नुकसान हुआ है, पूरा कर देते हैं - मृत को जिला देते हैं, जायदाद चली गई है, तो वापस दिला देते हैं, किसी को मुआवजे के रूप में स्वर्ग भेज देते हैं। कथा के इस अंत ने कितनी पीढ़ियों को आरे से चिरवा दिया होगा।
इस कथा पर न मैंने शंका की थी, न सज्जन के बड़े बेटे ने। मगर छोटा लड़का पूछेगा - पिताजी, चीरने से पहले यह बताइए कि भगवान इससे खुश होते हैं इसका सबूत क्या है? फिर इसकी क्या गारंटी कि वे आ ही जाएँगे? उन्हें हजार काम लगे रहते हैं। फिर इसका क्या भरोसा कि वे कटे को जोड़ देते हैं? अगर यह सब हो भी, तो भी आपके सत्यकल्पित विश्वास आपके अपने हैं। उनके लिए आप अपने को कटवाइए और अपनी हठ निभाइए। पहले जन्मे लोग अपनी सही-गलत मान्यता के लिए पीछे जन्मों को क्यों काटें? एक पीढ़ी के लिए दूसरी पीढ़ी क्यों चीरी जाए?
लड़के मुँहजोरी करने लगे हैं। कंबख्तों की किताबें बदल गई हैं। कोर्स इतनी जल्दी क्यों बदलने लगे हैं? बड़े लड़के से कह दिया था कि अपनी किताबें सँभालकर रखना छोटे के काम आएँगी! पर किताबें बदल गईं। पुरानी किताबें किसी के काम नहीं आ रही हैं। एक ही किताब पीढ़ियों क्यों नहीं चलती? पिताओं को यह चिंता है। बड़ा लड़का फौरन किताब में पेन्सिल रखकर सोडा लेने भाग जाता था। छोटा पैराग्राफ पूरा करके उठता है। भीष्म की कथा भी हमें तभी पढ़ा दी गई थी। हमने भीष्म को ‘धन्य’ कहा था। छोटा लड़का शांतनु को ‘धिक्कार’ कहेगा। ‘धन्य’ और ‘धिक्कार’ की जगहें बदल गई हैं। लोगों को पता नहीं है। छोटा लड़का भीष्म से कहेगा - क्या तुमने भी वही किताबें पढ़ी थीं, जो हमारे बड़े भाई ने? तुम पिता से क्यों नहीं कह सके कि जीवन भर के भोग के बाद भी आप की लिप्सा बनी हुई है, तो मैं क्या करूँ? अपना संयम दे सकता, तो थोड़ा दे देता, जीवन कैसे दे दूँ? राज्य से आप मुझे वंचित कर सकते हैं, पर मनुष्य का स्वाभाविक अधिकार मैं हरगिज नहीं छोड़ूँगा।
छोटा टिप्पणी करेगा - भीष्म ऐसा नहीं कह सके। उन्हें पिता ने आदमी से तीर चलानेवाली मशीन बना दिया। ऑटोमेटिक धनुष ! महाभारत का यह सबसे भला, तेजस्वी, आदरणीय, ज्ञानी व्यक्ति सबसे दयनीय भी है। मगर देख रहा हूँ कि श्रवणकुमार के कंधे दुखने लगे हैं। यह काँवड़ हिलाने लगा है। काँवड़ में अंधे परेशान हैं। विचित्र दृश्य है यह। दो अंधे एक आँख वाले पर लदे हैं और उसे चला रहे हैं। जीवन से कट जाने के कारण एक पीढ़ी दृष्टिहीन हो जाती है, तब वह आगामी पीढ़ी के ऊपर लद जाती है। अंधी होते ही उसे तीर्थ सूझने लगते हैं। वह कहती है - हमें तीर्थ ले चलो। इस क्रियाशील जन्म का भोग हो चुका है। हमें आगामी जन्म के भोग के लिए पुण्य का एडवांस देना है। आँखवाले की जवानी अंधों को ढोने में गुजर जाती है। वह अंधों के बताए रास्ते पर चलता है। उसका निर्णय और निर्वाचन का अधिकार चला जाता है। उसकी आँखें रास्ता नहीं खोजतीं, सिर्फ राह के काँटे बचाने के काम आती हैं।
कितनी काँवड़े हैं - राजनीति में, साहित्य में, कला में, धर्म में, शिक्षा में। अंधे बैठे हैं और आँखवाले उन्हें ढो रहे हैं। अंधे में अजब काँइयाँपन आ जाता है। वह खरे और खोटे सिक्के को पहचान लेता है। पैसे सही गिन लेता है। उसमें टटोलने की क्षमता आ जाती है। वह पद टटोल लेता है, पुरस्कार टटोल लेता है, सम्मान के रास्ते टटोल लेता है। बैंक का चेक टटोल लेता है। आँखवाले जिन्हें नहीं देख पाते, उन्हें वह टटोल लेता है। नए अंधों के तीर्थ भी नए हैं। वे काशी, हरिद्वार, पुरी नहीं जाते। इस काँवड़वाले अंधे से पूछो - कहाँ ले चलें? वह कहेगा - तीर्थ! कौन सा तीर्थ? जवाब देगा केबिनट! मंत्रिमंडल! उस काँवड़वाले से पूछो, तो वह भी तीर्थ जाने को प्रस्तुत है। कौन-सा तीर्थ चलेंगे आप? जवाब मिलेगा अकादमी, विश्वविद्यालय! मगर काँवड़े हिलने लगी हैं। ढोनेवालों के मन में शंका पैदा होने लगी है। वे झटका देते हैं, तो अंधे चिल्लाते हैं - अरे पापी! यह क्या करते हो? क्या हमें गिरा दोगे? और ढोनेवाला कहता है - अपनी शक्ति और जीवन हम अंधों को ढोने में नहीं गुजारेंगे। तुम एक जगह बैठो। माला जपो। आदर लो, रक्षण लो। हमें अपनी इच्छा से चलने दो। अनुभव दे दो, दृष्टि मत दो! वह हम कमा लेंगे।
राजनीति, साहित्य आदि तो बड़े प्रगट क्षेत्र हैं। अप्रगट रूप से भी, विभिन्न क्षेत्रों में श्रवणकुमार काँवड़ उतारने के लिए हिला रहे हैं। वे किन्हीं विश्वासों की आरी से चिरने को तैयार नहीं हैं। मैं कॉफी हाउस के कोने में बैठे उस युवक की बात नहीं कर रहा हूँ, जिसने गुस्से में दाढ़ी बड़ा ली है, जैसे उसकी दाढ़ी एक खास साइज और आकार की होते ही क्रांति हो जाएगी। बढ़ी दाढ़ी, ड्रेन पाइप और ‘सो ह्वाट’ वालों से यह नहीं हो रहा है। चुस्त कपड़े, हेयर स्टाइल और ‘ओ वंडरफुल’ वालियों से भी यह नहीं हो रहा है। ये तो न विश्वास में सच्चे, न शंका में। यह बिना प्रदर्शन और शोर शराबे के घरों और परिवारों में हो रहा है। सुशील, विनम्र और आज्ञाकारी युवक-युवती काँवड़े उतारने लगे हैं किसी के विश्वास के ओर से कटने से इनकार करने लगे हैं। एक परिचित है, जिसका ज्योतिष में विश्वास है। उनकी शिक्षिता जवान लड़की है। जिससे वह शादी करना चाहती थी, उससे ग्रह नहीं मिले। एक-दो और योग्य वरों से मिलान किया पर ग्रह यहाँ भी नहीं मिले। उसके ग्रहों ने किसी नालायक से मिलने के लिए स्थिति सँभाली होगी। लड़की एक दो साल घुटती रही। एक दिन उसने नम्रता से परिवार से कह दिया - ‘आप लोगों का इस ज्योतिष में विश्वास है, पर मेरा नहीं है। जो मेरा विश्वास ही नहीं है, उस पर मेरा बलिदान नहीं होना चाहिए।’ परिवार कुछ देर तो चमत्कृत रहा, फिर उसकी इच्छा से शादी कर दी। देख रहा हूँ कि मोरध्वज का आरा छीनकर फेंका जा रहा है। श्रवणकुमार के कंधे दुखने लगे हैं। वह काँवड़ को उतार कर रखने लगा है। वे सज्जन परेशान हैं। छोटा लड़का पैराग्राफ पूरा करके उठता है। बड़ा तो फौरन पेन्सिल रखकर दौड़ जाता था।

साभार-गद्य कोश 

रहा काम अपना तो बस वक्त के साथ गुनगुनाना..

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नमस्ते !
आप सभी को बसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएँ
हलचल की शनिवारीय प्रस्तुति में पेश हैं कुछ चुनिन्दा लिंक्स-

है हवा कुछ बोलती सी
बसंत के मौसम में  

रहा काम अपना तो बस वक्त के साथ गुनगुनाना..   
शिल्पा जी की अभिव्यक्ति

देश सेवा में एफ़.डी.आई.
फुरसतिया जी के विचार 

छाई है बसन्त की लाली
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक"जी की रचना 

गाँव अपने जब भी जाऊं
अपनी मंजिल और आपकी तलाश में 

सरोज सिंह की कवितायें 
स्व्यंसिद्धा पर 

कन्या भ्रूणहत्या :सिर्फ शीघ्र सुनवाई हल नहीं   
कानूनी ज्ञान 


और अंत मे सुनिए यह गीत-


 

दुनिया एक छलावा है

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नमस्ते !
हलचल की रविवारीय प्रस्तुति मे आपका स्वागत है इन लिंक्स के साथ-


रूप चंद्र शास्त्री जी की गजल 
गधे इस देश के

आशा आंटी का कहना है 
दुनिया एक छलावा है 

ज्योति जी के ब्लॉग पर पढ़िये 
लघुकथा - 'फर्क '

सुशील जी के उलूक टाइम्स पर 
"शैतान बदरिया"

विक्रम प्रताप सिंह जी का कहना है
माँ बाप, उस अखबार की तरह होते है.......

 अनूप जी का कहना है 
रोजी बाजार दिलाता है  

अंत में सुनिए यह गीत-

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