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जियो जियो अय हिन्दुस्तान - रामधारी सिंह "दिनकर"

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जाग रहे हम वीर जवान,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान !
हम प्रभात की नई किरण हैं, हम दिन के आलोक नवल,
हम नवीन भारत के सैनिक, धीर,वीर,गंभीर, अचल ।
हम प्रहरी उँचे हिमाद्रि के, सुरभि स्वर्ग की लेते हैं ।
हम हैं शान्तिदूत धरणी के, छाँह सभी को देते हैं।
वीर-प्रसू माँ की आँखों के हम नवीन उजियाले हैं
गंगा, यमुना, हिन्द महासागर के हम रखवाले हैं।
तन मन धन तुम पर कुर्बान,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान !


हम सपूत उनके जो नर थे अनल और मधु मिश्रण,
जिसमें नर का तेज प्रखर था, भीतर था नारी का मन !
एक नयन संजीवन जिनका, एक नयन था हालाहल,
जितना कठिन खड्ग था कर में उतना ही अंतर कोमल।
थर-थर तीनों लोक काँपते थे जिनकी ललकारों पर,
स्वर्ग नाचता था रण में जिनकी पवित्र तलवारों पर
हम उन वीरों की सन्तान ,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान !


हम शकारि विक्रमादित्य हैं अरिदल को दलनेवाले,
रण में ज़मीं नहीं, दुश्मन की लाशों पर चलनेंवाले।
हम अर्जुन, हम भीम, शान्ति के लिये जगत में जीते हैं
मगर, शत्रु हठ करे अगर तो, लहू वक्ष का पीते हैं।
हम हैं शिवा-प्रताप रोटियाँ भले घास की खाएंगे,
मगर, किसी ज़ुल्मी के आगे मस्तक नहीं झुकायेंगे।
देंगे जान , नहीं ईमान,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान।


जियो, जियो अय देश! कि पहरे पर ही जगे हुए हैं हम।
वन, पर्वत, हर तरफ़ चौकसी में ही लगे हुए हैं हम।
हिन्द-सिन्धु की कसम, कौन इस पर जहाज ला सकता ।
सरहद के भीतर कोई दुश्मन कैसे आ सकता है ?
पर की हम कुछ नहीं चाहते, अपनी किन्तु बचायेंगे,
जिसकी उँगली उठी उसे हम यमपुर को पहुँचायेंगे।
हम प्रहरी यमराज समान
जियो जियो अय हिन्दुस्तान!

साभार-कविता कोश  

गणतन्त्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ !!!!

एक कुत्ते की डायरी - प्रभाकर माचवे

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शुनिचैव श्‍वापाके च पंडित: समदर्शिन:। (गीता)
मेरा नाम 'टाइगर'है, गो शक्‍ल-सूरत और रंग-रूप में मेरा किसी भी शेर या 'सिंह'से कोई साम्‍य नहीं। मैं दानवीर लाला अमुक-अमुक का प्रिय सेवक हूँ; यद्यपि वे मुझे प्रेम से कभी-कभी थपथपाते हुए अपना मित्र और प्रियतम भी कह देते हैं। वैसे मैं किस लायक हूँ? मतलब यह है कि लालाजी का मुझ पर पुत्रवत प्रेम है। नीचे मैं अपने एक दिन के कार्यक्रम का ब्‍यौरा आपके मनोरंजनार्थ उपस्थित करता हूँ -
6 बजे सवेरे - घर की महरी बहुत बदमाश हो गई है। मेरी पूँछ पर पैर रख कर चली गई। अंधी हो गई क्‍या? और ऊपर से कहती है - अँधेरा था। किसी दिन काट खाऊँगा। गुर्र-गुर्र... अच्‍छा-चंगा हड्डीदार सपना देख रहा था और यह महरी आ गई - इसने मेरे सपने के स्‍वर्ण-संसार पर पानी फेर दिया। विचार-श्रृंखला टूट गई। बात यह है कि मैं एक शाकाहारी घर में पल रहा हूँ। अत: कभी-कभी मांसाहार का सपना आ जाना पाप नहीं! यह मेरी अतृप्‍त वासना है, ऐसा परसों मालिक से मिलने को आए एक बड़े मनोवैज्ञानिकजी कह रहे थे।... फिर सो गया।
7 बजे - कोई कम्‍बख्‍त आ ही गया। नवागन्‍तुक दिखाई देता है। बहुत भूँका - पर नहीं माना। जरूर परिचित होगा। जाने दो - अपने बाबा का क्‍या जाता है? डेढ़ सौ वर्षों से ब्रिटिश नौकरशाही ने हमें यही सिखाया है - किसी की सॉरी, किसी का सर, अपने से क्‍या? हम तो भुस में आग लगा कर दूर खड़े हैं तापते!
8 बजे - नाश्‍ता-पानी। आज ब्रेकफास्‍ट की चाय पर बहुत गर्मागर्म बहस हो रही है! क्‍या कारण है? मालिक कह रहे हैं कि इन मजदूरों ने आजकल जहाँ देखो वहाँ सिर उठा रखा है। कुचलना होगा इन्‍हें! जान पड़ता है - मजदूर कोई साँप है। मालिक के मित्र बतला रहे थे कि उत्‍पादन में कमी हो रही है। हड़तालों के मारे तबाही मची हुई है। ऐसा कहते हुए उन्‍होंने अपनी नई 'सुपरफाइन'धोती से चश्‍मे की काँच पोंछ कर साफ की थी। मालिक की लड़की कुछ उद्धत जान पड़ती है; बाप से मतभेद रखती है। यही तो कुत्तों की जाति और मानव-जाति में अंतर है - कुत्ता सदा वफादार रहता है; आदमी, ये अहसान-फरामोश हो जाते हैं!
9 बजे - बगीचे में मालिक के छोटे लड़के (और आया उनके साथ) सैर के लिए आए। फूलों के विषय में आया कुछ भिन्‍न मत रखती है; मालिक के लड़के का कुछ और मत है। मेरी दृष्टि से तो ये सब काट-तराश बेकार-सी चीज है - मगर नहीं - मैं अपना मत नहीं दूँगा - पहले मैं यह जान लूँ कि फूलों के बारे में मालिक का क्‍या मत है? तभी अपना मत देना कुछ 'सेफ'होगा।
10 बजे - एक नए ढंग के जानवर से मुलाकात हो गई। यह 'फट् फट् फट्'आवाज बहुत करता है, नथुनों से धुआँ उगलता मालिक चाहता है तब रुकता है, चाहता है तब सरपट दौड़ता है। बड़ी चमकीली आँख है उसकी। मैंने भरसक उसकी नकल में भूँकने और दौड़ने की कोशिश की - मगर यह किसी विदेश से आया हुआ प्राणी जान पड़ता है। जाने दो, अपने को विदेशियों से क्या पड़ी है? अपने राम तो 'स्‍वदेशी'के पुरस्‍कर्ता हैं - चाहे नाम ही स्‍वदेशी हो और बनाने के यंत्र सब विदेश से आते हों।
11 बजे - भोजन। इस संबंध में इतना ही कहना पर्याप्‍त होगा कि अच्‍छे-अच्‍छे तनखावाले बाबुओं को जो नसीब न होगा, ऐसा उम्‍दा पकवान हमें मिल जाता है। सब भगवान की लीला है। जब वह खाता हूँ तो भूल जाता हूँ कि मेरे गले में कोई पट्टा भी है या मुझे भी कभी मालिक ठोकर मारता है। मुझे स्‍वामी की ठोकर अतिशय प्रिय पुचकार की भाँति जान पड़ती है।
12 बजे से 3 बजे तक - विश्रांति।
3 बजे - सहसा किसी का स्‍वर। निश्‍चय ही वह मालिक की बड़ी लड़की का मुलाकाती, भूरे-भूरे बालोंवाला तरुण है! वह मखमल की पैंट पहनता है, पहले मैंने उसे किसी चितकबरी बिल्‍ली का बदन ही समझा - वह गरीबों की बात बहुत करता है! आज उसने जो चर्चा की उसमें कला का भी बहुत उल्‍लेख था। जान पड़ता है कि शिकारी कुत्ते को जैसे एक खास काम के लिए पाल कर बड़ा किया जाता है; वैसे ही यह कलाकार नाम का प्राणी भी समाज में किसी खास हेतु से बढ़ाया जाता है।
4 बजे - शाम की चाय के वक्‍त बहुत मंडली जुटी थी। घर खास चाय घर बन गया था। आज 'हिंदुत्‍व', हिंदू-सभा, 'हिंदू-वीर', 'हिंदू-दर्शन'आदि विषयों पर बड़ी बहस हुई। कई लोग थे जो इस बारे में उदासीन थे कि वे अपने को हिंदू कहें या अहिंदू। दो-चार नौजवान इस बारे में बहुत 'टची'थे। जैसे कुत्ते की थूथड़ी पर कोई बेंत मारे तो वह तिलमिला उठता है; वैसे ही उनके हिंदुत्‍व पर चोट करने से ऐसा जान पड़ता था कि उनके सतीत्‍व पर चोट हो रही है। मैं जानना चाहता हूँ कि हिंदू क्‍या चीज है? यह किस चिड़िया का नाम है? मेरा पुराना मालिक ईरानी था - और तब भी मैं सुखी था - अब भी हूँ। गुलाम का कोई धर्म नहीं होता - कहते हैं अब यहाँ के आदमी आजाद हो गए हैं - मगर पैसे की गुलामी तो अभी बाकी ही है। जैसे प्रसन्‍न हो कर मेरी जाति के प्राणी अपनी पूँछ हिलाने लगते हैं; वैसे मैंने कई विद्वान, चरित्रवान, निष्‍ठावान, धर्मवान (माने जानेवाले) महानुभावों को पैसे की सत्ता के आगे पिघलते हुए देखा है। हिंदुत्‍व बड़ा है या पूँजीत्‍व?
5 बजे - बाहर फिर घूमने के लिए चला। मालकिन मेमसाहिबा खास कपड़े पहने, ऊँची एड़ी के जूते, रंगीन साड़ी वगैरह के साथ थीं। मेरी भी चेन खास ढंग की थी। यह तभी पहनाई जाती है जब मालकिन किसी उत्‍सव-विशेष या बाइस्‍कोप वगैरह में शामिल होती हैं। आज भी कुछ भीड़ देखने को मिलेगी। मेरी दृष्टि में सभा-समाजों की भीड़ और सिनेमा-थिएटर की भीड़ में खास अंतर नहीं।
6 से 8.30 बजे तक - एक सफेद पर्दे पर हिलती-बोलती तस्‍वीरें देखीं। अरे, तो यह आदमी जो अपने आपको बहुत सभ्‍य समझता है सो कुछ नहीं है। जैसे हम लोगों में प्रेमातुरता होती है, वैसे ही इनके चलचित्रों की नायक-नायिकाएँ दिखाती हैं। कोई खास अंतर लड़ने-भिड़ने में भी नहीं - जैसे दो श्‍वान एक हड्डी के लिए लड़ते हैं, दो मानव एक मानवी के लिए या मत के लिए या पराए देश के लिए। अच्‍छा हुआ मैंने यह दृश्‍य देख लिया, जिसे हजारों मानव चुप बैठे हुए आँखों के सहारे निगल रहे थे। मेरा स्‍वप्‍न भंग हो गया। मानव जाति को मैं बड़ा आदर्श समझता था - परंतु वैसी कोई विशेष बात नहीं।
9 बजे - सोया। क्‍योंकि फिर सवेरे जागना है, वही पूँछ हिलाना है - तब डबलरोटी का टुकड़ा शायद मिले; और ज्‍यादा खुशामद करने पर दूध भी मिल सकता है!
अच्‍छा भु: भु: (मानवों की भाषा में अनुवाद : अच्‍छा तो राम-राम!)

साभार-गद्य कोश 

जिन्दगी सुबह की अजान हो गयी

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नमस्ते !
हलचल की बुधवारीय प्रस्तुति में आपका हार्दिक स्वागत है
इन लिंक्स के साथ-

वक़्त के शीशे

खिड़की पर इंतज़ार साहब

पलायन की पीर ................

बयान कर रहे हैं विक्रम जी

जिन्दगी सुबह की अजान हो गयी 

बता रही हैं अनीता जी 

कमज़ोरी को निकाल बाहर करो 

ऐसा कहना है परी जी का 

वक्त के दामन से... 

कुछ पल अरमान साहब के 

और अंत मे सुनिए यह गीत -


मनभावन मृदुल सी आपकी भाषा हो

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नमस्ते !
हलचल की गुरुवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है इन लिंक्स के साथ-

देहात पर राजीव झा  जी   
तुमने फ़िराक को देखा था

वंदना जी का एक प्रयास
अतः सुबह होने को है ..........

साधना आंटी कह रही हैं
कुछ तुम जी लो कुछ मैं जी लूँ  

करो साक्षर देश
डॉ रूप  चंद्र शास्त्री जी के दोहे  

मनभावन मृदुल सी आपकी भाषा हो 
प्रभात जी का आह्वान 

सम्वेदनहीन होता समाज 
अनूप जी का बेहतरीन लेख 

और अंत मे आनंद लीजिये इस गीत का -

 

महात्मा जी के प्रति - सुमित्रानंदन पंत ( गांधी जी की पुण्य तिथि पर स्मरण )

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निर्वाणोन्मुख आदर्शों के अंतिम दीप शिखोदय!--
जिनकी ज्योति छटा के क्षण से प्लावित आज दिगंचल,--
गत आदर्शों का अभिभव ही मानव आत्मा की जय,
अत: पराजय आज तुम्हारी जय से चिर लोकोज्वल!

मानव आत्मा के प्रतीक! आदर्शों से तुम ऊपर,
निज उद्देश्यों से महान, निज यश से विशद, चिरंतन;
सिद्ध नहीं, तुम लोक सिद्धि के साधक बने महत्तर,
विजित आज तुम नर वरेण्य, गणजन विजयी साधारण!

युग युग की संस्कृतियों का चुन तुमने सार सनातन
नव संस्कृति का शिलान्यास करना चाहा भव शुभकर,
साम्राज्यों ने ठुकरा दिया युगों का वैभव पाहन--
पदाघात से मोह मुक्त हो गया आज जन अन्तर!

दलित देश के दुर्दम नेता, हे ध्रुव, धीर, धुरंधर,
आत्म शक्ति से दिया जाति शव को तुमने जीवन बल;
विश्व सभ्यता का होना था नखशिख नव रूपांतर,
राम राज्य का स्वप्न तुम्हारा हुआ न यों ही निष्फल!

विकसित व्यक्तिवाद के मूल्यों का विनाश था निश्चय,
वृद्ध विश्व सामंत काल का था केवल जड़ खँडहर!
हे भारत के हृदय! तुम्हारे साथ आज नि:संशय
चूर्ण हो गया विगत सांस्कृतिक हृदय जगत का जर्जर!

गत संस्कृतियों का आदर्शों का था नियत पराभव,
वर्ग व्यक्ति की आत्मा पर थे सौध धाम, जिनके स्थित;
तोड़ युगों के स्वर्ण पाश अब मुक्त हो रहा मानव,
जन मानवता की भव संस्कृति आज हो रही निर्मित!

किए प्रयोग नीति सत्यों के तुमने जन जीवन पर,
भावादर्श न सिद्ध कर सके सामूहिक-जीवन-हित;
अधोमूल अश्वत्थ विश्व, शाखाएँ संस्कृतियाँ वर,
वस्तु विभव पर ही जनगण का भाव विभव अवलंबित!

वस्तु सत्य का करते भी तुम जग में यदि आवाहन,
सब से पहले विमुख तुम्हारे होता निर्धन भारत;
मध्य युगों की नैतिकता में पोषित शोषित-जनगण
बिना भाव-स्वप्नों को परखे कब हो सकते जाग्रत?

सफल तुम्हारा सत्यान्वेषण, मानव सत्यान्वेषक!
धर्म, नीति के मान अचिर सब, अचिर शास्त्र, दर्शन मत,
शासन जन गण तंत्र अचिर-युग स्थितियाँ जिनकी प्रेषक,
मानव गुण, भव रूप नाम होते परिवर्तित युगपत!

पूर्ण पुरुष, विकसित मानव तुम, जीवन सिद्ध अहिंसक,
मुक्त-हुए-तुम-मुक्त-हुए-जन, हे जग वंद्य महात्मन्!
देख रहे मानव भविष्य तुम मनश्चक्षु बन अपलक,
धन्य, तुम्हारे श्री चरणों से धरा आज चिर पावन!

रचनाकाल: दिसंबर’ ३९

साभार-कविता कोश 

ऐ ज़िन्दगी! कर फिर कोई हंसी सितम..

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नमस्ते !
हलचल की शनिवारीय प्रस्तुति में आपका हार्दिक स्वागत है इन लिंक्स के साथ-


ऐ ज़िन्दगी! कर फिर कोई हंसी सितम..


मुझको दूर बहुत है चलना





 उजाड़ बस्ती 

और अंत में आनंद लीजिये इस गीत का-

हार कैसे मान लूं ....

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नमस्ते !
हलचल की रविवारीय प्रस्तुति में पेश हैं 
कुछ बेहद चुनिन्दा लिंक्स -


मेरे मन मंदिर की मूरत 


शक्ल


और अंत मे आनंद लीजिये इस गीत का-

घायल बसंत / हरिशंकर परसाई

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कल बसन्तोत्सव था। कवि बसन्त के आगमन की सूचना पा रहा था--

प्रिय, फिर आया मादक बसन्त'।

मैंने सोचा, जिसे बसन्त के आने का बोध भी अपनी तरफ से काराना पड़े, उस प्रिय से तो शत्रु अच्छा। ऐसे नासमझ को प्रकृति - विज्ञान पढ़ायेंगे या उससे प्यार करेंगे। मगर कवि को न जाने क्यों ऐसा बेवकूफ पसन्द आता है ।

कवि मग्न होकर गा रहा था –

'प्रिय, फिर आया मादक बसन्त !'

पहली पंक्ति सुनते ही मैं समझ गया कि इस कविता का अन्त ‘हा हन्त’ से होगा, और हुआ। अन्त, सन्त, दिगन्त आदि के बाद सिवा 'हा हन्त'के कौन पद पूरा करता ? तुक की यही मजबूरी है। लीक के छोर पर यही गहरा गढ़ा होता है। तुक की गुलामी करोगे तो आरम्भ चाहे 'बसन्त 'से कर लो, अन्त जरूर 'हा हन्त 'से होगा। सिर्फ कवि ऐसा नहीं करता। और लोग भी, सयाने लोग भी, इस चक्कर में होते है। व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में तुक पर तुक बिठाते चलते है। और 'वसन्त 'से शुरू करके 'हा हन्त'पर पहुंचते हैं। तुकें बराबर फ़िट बैठती हैं, पर जीवन का आवेग निकल भागता है। तुकें हमारा पीछा छोड़ ही नहीं रही हैं। हाल ही में हमारी समाजवादी सरकार के अर्थमन्त्री ने दबा सोना निकालने की जो अपील की, उसकी तुक शुध्द सर्वोदय से मिलायी -- 'सोना दबाने वालो, देश के लिए स्वेच्छा से सोना दे दो।'तुक उत्ताम प्रकार की थी; साँप तक का दिल नहीं दुखा। पर सोना चार हाथ और नीचे चला गया। आखिर कब हम तुक को तिलांजलि देंगे ? कब बेतुका चलने की हिम्मत करेंगे ?

कवि ने कविता समाप्त कर दी थी। उसका 'हा हन्त'आ गया था। मैंने कहा, 'धत्तोरे की !' 7 तुकों में ही टें बोल गया। राष्ट्रकवि इस पर कम -कम-कम 51 तुकें बॉधते। 9 तुकें तो उन्होंने 'चक्र'पर बांधी हैं। ( देखो 'यशोधरा 'पृष्ठ 13 ) पर तू मुझे क्या बतायेगा कि बसन्त आ गया। मुझे तो सुबह से ही मालूम है। सबेरे वसन्त ने मेरा दरवाजा भी खटखटाया था। मैं रजाई ओढ़े सो रहा था। मैंने पूछा – “कौन?” जवाब आया-- “मैं वसन्त।“ मैं घबड़ा उठा। जिस दूकान से सामान उधार लेता हूँ, उसके नौकर का नाम भी वसन्तलाल है। वह उधारी वसूल करने आया था। कैसा नाम है, और कैसा काम करना पड़ता है इसे ! इसका नाम पतझड़दास या तुषारपात होना था। वसन्त अगर उधारी वसूल करता फिरता है, तो किसी दिन आनन्दकर थानेदार मुझे गिरफ्तार करके ले जायेगा और अमृतलाल जल्लाद फॉसी पर टांग देगा !

वसन्तलाल ने मेरा मुहूर्त बिगाड़ दिया। इधर से कहीं ऋतुराज वसन्त निकलता होगा, तो वह सोचेगा कि ऐसे के पास क्या जाना जिसके दरवाजे पर सबेरे से उधारीवाले खड़े रहते हैं ! इस वसन्तलाल ने मेरा मौसम ही खराब कर दिया।

मैंने उसे टाला और फिर ओढ़कर सो गया। ऑखें झंप गयीं । मुझे लगा, दरवाजे पर फिर दस्तक हुई। मैंने पूछा --कौन? जवाब आया—“मैं वसन्त !” मैं खीझ उठा - “कह तो दिया कि फिर आना।” उधर से जवाब आया—“मै। बार-बार कब तक आता रहूंगा ? मैं। किसी बनिये का नौकर नहीं हूं ; ऋतुराज वसन्त हूं। आज तुम्हारे द्वार पर फिर आया हूं और तुम फिर सोते मिले हो। अलाल, अभागे, उठकर बाहर तो देख। ठूंठों ने भी नव पल्लव पहिन रखे हैं। तुम्हारे सामने की प्रौढ़ा नीम तक नवोढ़ा से हाव -भाव कर रही है -- और बहुत भद्दी लग रही है।”

मैने मुंह उधाड़कर कहा-, “भई, माफ़ करना, मैंने तुम्हें पहचाना नहीं। अपनी यही विडम्बना है कि ऋतुराज वसन्त भी आये, तो लगता है, उधारी के तगादेवाला आया। उमंगें तो मेरे मन में भी हैं, पर यार, ठण्ड बहुत लगती है।” वह जाने के लिए मुड़ा। मैंने कहा, “जाते -जाते एक छोटा-सा काम मेरा करते जाना। सुना है तुम ऊबड़ -खाबड़ चेहरों को चिकना कर देते हो ; 'फेसलिफ्टिंग'के अच्छे कारीगर हो तुम। तो जरा यार, मेरी सीढ़ी ठीक करते जाना, उखड़ गयी है। “

उसे बुरा लगा। बुरा लगने की बात है। जो सुन्दरियों के चेहरे सुधारने का कारीगर है, उससे मैंने सीढ़ी सुधारने के लिए कहा। वह चला गया।

मैं उठा और शाल लपेटकर बाहर बरामदे में आया। हज़ारों सालों के संचित संस्कार मेरे मन पर लदे हैं ; टनों कवि - कल्पनाएं जमी हैं। सोचा, वसन्त है तो कोयल होगी ही । पर न कहीं कोयल दिखी न उसकी कूक सुनायी दी। सामने की हवेली के कंगूरे पर बैठा कौआ 'कांव-कांव'कर उठा। काला, कुरूप, कर्कश कौटा-- मेरी सौदर्य-भावना को ठेस लगी। मैंने उसे भगाने के लिए कंकड़ उठाया। तभी खयाल आया कि एक परम्परा ने कौढ को भी प्रतिष्ठा दे दी है। यह विरहणी को प्रियतम के आगमन का सन्देसा देने वाला माना जाता है। सोचा, कहीं यह आसपास की किसी विरहणी को प्रिय के आने का सगुन न बता रहा हो। मै। विरहणियों के रास्ते में कभी नहीं आता ; पतिव्रताओं से तो बहुत डरता हूं। मैंने कंकड़ डाल दिया। कौआ फिर बोला। नायिका ने सोने से उसकी चोंच मढ़ाने का वायदा कर दिया होगा। शाम की गाड़ी से अगर नायक दौरे से वापिस आ गया, तो कल नायिका बाजार से आनेवाले सामान की जो सूची उसके हाथ में देगी, उसमें दो तोले सोना भी लिखा होगा। नायक पूछेगा, “प्रिये, सोना तो अब काला बाजार में मिलता है। लेकिन अब तुम सोने का करोगी क्या?” नायिका लजाकर कहेगी, “उस कौए की चोंच मढ़ाना है, जो कल सेबेरे तुम्हारे आने का सगुन बता गया था।” तब नायक कहेगा, “प्रिय, तुम बहुत भोली हो। मेरे दौरे का कार्यक्रम यह कौआ थेड़े ही बनाता है; वह कौआ बनाता है जिसे हम 'बड़ा साहब'कहते हैं। इस कलूटे की चोंच सोने से क्यों मढ़ाती हो? हमारी दुर्दशा का यही तो कारण है कि तमाम कौए सोने से चोंच मढ़ाये हैं, और इधर हमारे पास हथियार खरीदने को सोना नहीं हैं। हमें तो कौओं की चोंच से सोना खरोंच लेना है। जो आनाकानी करेंगे, उनकी चोंच काटकर सोना निकाल लेंगे। प्रिये, वही बड़ी ग़लत परम्परा है, जिसमें हंस और मोर की चोंच तो नंगी रहे, पर कौए की चोंच सुन्दरी खुद सोना मढ़े।” नायिका चुप हो जायेगी। स्वर्ण - नियन्त्रण कानून से सबसे ज्यादा नुकसान कौओं और विरहणियों का हुआ है। अगर कौए ने 14 केरेट के सोने से चोंच मढ़ाना स्वीकार नहीं किया, तो विरहणी को प्रिय के आगमन की सूचना कौन देगा? कौआ फिर बोला। मैं इससे युगों से घृणा करता हूं ; तब से, जब इसने सीता के पांव में चोंच मारी थी। राम ने अपने हाथ से फूल चुनकर, उनके आभूषण बनाकर सीता को पहनाये। इसी समय इन्द्र का बिगडै़ल बेटा जयन्त आवारागर्दी करता वहां आया और कौआ बनकर सीता के पांव में चोंच मारने लगा। ये बड़े आदमी के बिगडैल लड़के हमेशा दूसरों का प्रेम बिगाड़ते हैं। यह कौआ भी मुझसे नाराज हैं, क्योंकि मैंने अपने घर के झरोखों में गौरैयों को घोंसले बना लेने दिये हैं। पर इस मौसम में कोयल कहां है ? वह अमराई में होगी। कोयल से अमराई छूटती नहीं है, इसलिए इस वसन्त में कौए की बन आयी है। वह तो मौक़ापरस्त है ; घुसने के लिए पोल ढूंढता है। कोयल ने उसे जगह दे दी है। वह अमराई की छाया में आराम से बैठी है। और इधर हर ऊंचाई पर कौआ बैठा'कॉव-कॉव'कर रहा है। मुझे कोयल के पक्ष में उदास पुरातन प्रेमियों की आह भी सुनायी देती है, 'हाय, अब वे अमराइयां यहां कहां है कि कोयलें बोलें। यहां तो ये शहर बस गये हैं, और कारखाने बन गये है।'मैं कहता हूं कि सर्वत्र अमराइयां नहीं है, तो ठीक ही नहीं हैं। आखिर हम कब तक जंगली बने रहते? मगर अमराई और कुंज और बगीचे भी हमें प्यारे हैं। हम कारखाने को अमराई से घेर देंगे और हर मुहल्ले में बगीचा लगा देंगे। अभी थोड़ी देर है। पर कोयल को धीरज के साथ हमारा साथ तो देना था। कुछ दिन धूप तो हमारे साथ सहना था। जिसने धूप में साथ नही दिया, वह छाया कैसे बंटायेगी ? जब हम अमराई बना लेंगे, तब क्या वह उसमें रह सकेगी? नहीं, तब तक तो कौए अमराई पर क़ब्जा कर लेंगे। कोयल को अभी आना चाहिए। अभी जब हम मिट्टी खोदें, पानी सींचे और खाद दें, तभी से उसे गाना चाहिए। मैं बाहर निकल पड़ता हूं। चौराहे पर पहली बसन्ती साड़ी दिखी। मैं उसे जानता हूं। यौवन की एड़ी दिख रही है -- वह जा रहा है -- वह जा रहा है। अभी कुछ महीने पहले ही शादी हुई है। मैं तो कहता आ रहा था कि चाहे कभी ले, 'रूखी री यह डाल वसन वासन्ती लेगी' - (निराला )। उसने वसन वासन्ती ले लिया। कुछ हजार में उसे यह बूढ़ा हो रहा पति मिल गया। वह भी उसके साथ है। वसन्त का अन्तिम चरण और पतझड़ साथ जा रहे हैं। उसने मांग में बहुत -सा सिन्दूर चुपड़ रखा है। जिसकी जितनी मुश्किल से शादी होती है, वह बेचारी उतनी ही बड़ी मांग भरती है। उसने बड़े अभिमान से मेरी तरफ देखा। फिर पति को देखा। उसकी नजर में ठसक और ताना है, जैसे अंगूठा दिखा रही है कि ले, मुझे तो यह मिल ही गया। मगर यह क्या? वह ठण्ड से कांप रही है और 'सीसी'कर रहीं है। वसन्त में वासन्ती साड़ी को कंपकंपी छूट रही है।

यह कैसा वसन्त है जो शीत के डर से कांप रहा है? क्या कहा था विद्यापति ने-- 'सरस वसन्त समय भल पाओलि दछिन पवन बहु धीरे ! नहीं मेरे कवि, दक्षिण से मलय पवन नहीं बह रहा। यह उत्तार से बर्फ़ीली हवा आ रही है। हिमालय के उस पार से आकर इस बर्फ़ीली हवा ने हमारे वसन्त का गला दबा दिया है। हिमालय के पार बहुत- सा बर्फ बनाया जा रहा है जिसमें सारी मनुष्य जाति को मछली की तरह जमा कर रखा जायेगा। यह बड़ी भारी साजिश है बर्फ की साजिश ! इसी बर्फ क़ी हवा ने हमारे आते वसन्त को दबा रखा है। यों हमें विश्वास है कि वसन्त आयेगा। शेली ने कहा है, 'अगर शीत आ गयी है, तो क्या वसन्त बहुत पीछे होगा? वसन्त तो शीत के पीछे लगा हुआ ही आ रहा है। पर उसके पीछे गरमी भी तो लगी है। अभी उत्तार से शीत -लहर आ रही है तो फिर पश्चिम से लू भी तो चल सकती है। बर्फ और आग के बीच में हमारा वसन्त फॅसा है। इधर शीत उसे दबा रही है और उधर से गरमी। और वसन्त सिकुड़ता जा रहा है।

मौसम की मेहरबानी पर भरोसा करेंगे, तो शीत से निपटते-निपटते लू तंग करने लगेगी। मौसम के इन्तजार से कुछ नहीं होगा। वसन्त अपने आप नहीं आता ; उसे लाया जाता है। सहज आनेवाला तो पतझड़ होता है, वसन्त नहीं। अपने आप तो पत्ते झड़ते हैं। नये पत्ते तो वृक्ष का प्राण-रस पीकर पैदा होते हैं। वसन्त यों नहीं आता। शीत और गरमी के बीच से जो जितना वसन्त निकाल सके, निकाल लें। दो पाटों के बीच में फंसा है, देश का वसन्त। पाट और आगे खिसक रहे हैं। वसन्त को बचाना है तो ज़ोर लगाकर इन दोनों पाटों को पीछे ढकेलो - इधर शीत को, उधर गरमी को। तब बीच में से निकलेगा हमारा घायल वसन्त।

साभार-गद्य कोश 

पोल-खोलक यंत्र - अशोक चक्रधर

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ठोकर खाकर हमने
जैसे ही यंत्र को उठाया,
मस्तक में शूं-शूं की ध्वनि हुई
कुछ घरघराया।
झटके से गरदन घुमाई,
पत्नी को देखा
अब यंत्र से
पत्नी की आवाज़ आई-
मैं तो भर पाई!
सड़क पर चलने तक का
तरीक़ा नहीं आता,
कोई भी मैनर
या सली़क़ा नहीं आता।
बीवी साथ है
यह तक भूल जाते हैं,
और भिखमंगे नदीदों की तरह
चीज़ें उठाते हैं।
....इनसे
इनसे तो
वो पूना वाला
इंजीनियर ही ठीक था,
जीप में बिठा के मुझे शॉपिंग कराता
इस तरह राह चलते
ठोकर तो न खाता।
हमने सोचा-
यंत्र ख़तरनाक है!
और ये भी एक इत्तेफ़ाक़ है
कि हमको मिला है,
और मिलते ही
पूना वाला गुल खिला है।

और भी देखते हैं
क्या-क्या गुल खिलते हैं?
अब ज़रा यार-दोस्तों से मिलते हैं।
तो हमने एक दोस्त का
दरवाज़ा खटखटाया
द्वार खोला, निकला, मुस्कुराया,
दिमाग़ में होने लगी आहट
कुछ शूं-शूं
कुछ घरघराहट।
यंत्र से आवाज़ आई-
अकेला ही आया है,
अपनी छप्पनछुरी,
गुलबदन को
नहीं लाया है।
प्रकट में बोला-
ओहो!
कमीज़ तो बड़ी फ़ैन्सी है!
और सब ठीक है?
मतलब, भाभीजी कैसी हैं?
हमने कहा-
भा...भी....जी
या छप्पनछुरी गुलबदन?
वो बोला-
होश की दवा करो श्रीमन्‌
क्या अण्ट-शण्ट बकते हो,
भाभीजी के लिए
कैसे-कैसे शब्दों का
प्रयोग करते हो?
हमने सोचा-
कैसा नट रहा है,
अपनी सोची हुई बातों से ही
हट रहा है।
सो फ़ैसला किया-
अब से बस सुन लिया करेंगे,
कोई भी अच्छी या बुरी
प्रतिक्रिया नहीं करेंगे।

लेकिन अनुभव हुए नए-नए
एक आदर्शवादी दोस्त के घर गए।
स्वयं नहीं निकले
वे आईं,
हाथ जोड़कर मुस्कुराईं-
मस्तक में भयंकर पीड़ा थी
अभी-अभी सोए हैं।
यंत्र ने बताया-
बिल्कुल नहीं सोए हैं
न कहीं पीड़ा हो रही है,
कुछ अनन्य मित्रों के साथ
द्यूत-क्रीड़ा हो रही है।
अगले दिन कॉलिज में
बी०ए० फ़ाइनल की क्लास में
एक लड़की बैठी थी
खिड़की के पास में।
लग रहा था
हमारा लैक्चर नहीं सुन रही है
अपने मन में
कुछ और-ही-और
गुन रही है।
तो यंत्र को ऑन कर
हमने जो देखा,
खिंच गई हृदय पर
हर्ष की रेखा।
यंत्र से आवाज़ आई-
सरजी यों तो बहुत अच्छे हैं,
लंबे और होते तो
कितने स्मार्ट होते!
एक सहपाठी
जो कॉपी पर उसका
चित्र बना रहा था,
मन-ही-मन उसके साथ
पिकनिक मना रहा था।
हमने सोचा-
फ़्रायड ने सारी बातें
ठीक ही कही हैं,
कि इंसान की खोपड़ी में
सैक्स के अलावा कुछ नहीं है।
कुछ बातें तो
इतनी घिनौनी हैं,
जिन्हें बतलाने में
भाषाएं बौनी हैं।

एक बार होटल में
बेयरा पांच रुपये बीस पैसे
वापस लाया
पांच का नोट हमने उठाया,
बीस पैसे टिप में डाले
यंत्र से आवाज़ आई-
चले आते हैं
मनहूस, कंजड़ कहीं के साले,
टिप में पूरे आठ आने भी नहीं डाले।
हमने सोचा- ग़नीमत है
कुछ महाविशेषण और नहीं निकाले।

ख़ैर साहब!
इस यंत्र ने बड़े-बड़े गुल खिलाए हैं
कभी ज़हर तो कभी
अमृत के घूंट पिलाए हैं।
- वह जो लिपस्टिक और पाउडर में
पुती हुई लड़की है
हमें मालूम है
उसके घर में कितनी कड़की है!
- और वह जो पनवाड़ी है
यंत्र ने बता दिया
कि हमारे पान में
उसकी बीवी की झूठी सुपारी है।
एक दिन कविसम्मेलन मंच पर भी
अपना यंत्र लाए थे
हमें सब पता था
कौन-कौन कवि
क्या-क्या करके आए थे।

ऊपर से वाह-वाह
दिल में कराह
अगला हूट हो जाए पूरी चाह।
दिमाग़ों में आलोचनाओं का इज़ाफ़ा था,
कुछ के सिरों में सिर्फ
संयोजक का लिफ़ाफ़ा था।

ख़ैर साहब,
इस यंत्र से हर तरह का भ्रम गया
और मेरे काव्य-पाठ के दौरान
कई कवि मित्र
एक साथ सोच रहे थे-
अरे ये तो जम गया!

साभार-कविता कोश 

परग्रही जीवन की तलाश और उड़न तश्तरीयां

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आखिर न्याय पर पुरुषों का भी हक़ है .

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 नमस्ते !
हलचल की गुरुवारीय प्रस्तुति मे आपका स्वागत है इन लिंक्स के साथ-





 
और अंत मे पेश है यह गीत-
 

अग्निपथ-हरिवंश राय बच्चन

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वृक्ष हों भले खड़े,
हों घने हों बड़े,
एक पत्र छाँह भी,
माँग मत, माँग मत, माँग मत,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

तू न थकेगा कभी,
तू न रुकेगा कभी,
तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

यह महान दृश्य है,
चल रहा मनुष्य है,
अश्रु श्वेत रक्त से,
लथपथ लथपथ लथपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

साभार-कविता कोश 

कुछ तो कहा है समन्दर

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नमस्ते!
हलचल की शनिवारीय प्रस्तुति में आपका हार्दिक स्वागत है इन लिंक्स के साथ -






और अंत मे आनंद लीजिये इस गीत का -
  

नए गुमान से..कुछ भी नहीं.

कलिदास का संक्षिप्त इतिहास- श्रीलाल शुक्ल

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[ लोक - कथाओं के आधार पर]
कालिदास का जन्म एक गड़रिए के घर में हुआ था। उनके पिता मूर्ख थे। उपन्यासकार नागार्जुन ने जिस वीरता से अपने पिता के विषय में ऐसा ही तथ्य स्वीकार किया है, वह वीरता कालिदास में न थी। अत: उन्होंने इस विषय में कुछ नहीं बताया। फिर भी सभी जानते है कि कालिदास के पिता मूर्ख थे। वे भेड़ चराते थे। फलत: कालिदास भी मूर्ख हुए और भेड़ चराने लगे। कभी-कभी गायें भी चराते थे। पर वे बाँसुरी नहीं बजाते थे। उनमें ईश्वरदत्त मौलिकता की कमी न थी। उसका उपयोग उन्होंने अपनी उपमाओं में किया है। यह सभी जानते हैं। जब वे मूर्ख थे, तब वे मौलिकता के सहारे एक पेड़ की डाल पर बैठ गए और उसे उल्टी ओर से काटने लगे। इस प्रतिभा के चमत्कार को वररुचि पंडित ने देखा। वे प्रभावित हुए। उनके राजा विक्रम की लड़की विद्या परम विदुषी थी। विद्या का संपर्क इस मौलिक प्रतिभा से करा के वररुचि ने लोकोपकार करना चाहा। कालिदास की मूर्खता का थोड़ा प्रयोग उन्होंने राजा विक्रम और विद्या पर बारी-बारी से किया। परिणाम यह हुआ कि कालिदास का विद्या से विवाह हो गया। विद्वता से मौलिकता मिल गई।
कुछ इतिहासकार कहते हैं कि वररुचि ने विद्या पर क्रोध कर के उसका विवाह एक मूर्ख से कराया, यह गलत है। यदि वररुचि विद्या से नाराज होते और उन्होंने उसका अहित करना चाहा होता तो वे उसका विवाह किसी भी मूर्ख राजा से करा देते। किसी भी युग में ऐसे राजाओं की कमी नहीं रही है। सच यह है कि वररुचि ने जो किया, लोक-कल्याण के लिए किया।
कालिदास की मूर्खता प्रकट होने पर विद्या ने उनका तिरस्कार किया। वे देवी के एक मंदिर में जा गिरे। उनकी जबान कट गई और देवी पर जा चढ़ी। देवी ने भ्रमवश उन्हें परम भक्त जाना। उनसे वर माँगने को कहा। मूर्ख होने के नाते कालिदास ने अपनी पत्नी के विरुद्ध कुछ कहना चाहा। किंतु जैसे ही उन्होंने कहा, 'विद्या'भ्रमवश देवी ने समझ लिया, विद्या माँग रहा है। फिर क्या था, 'तथास्तु'। बस कालिदास विद्वान हो गए।
आगे का इतिहास मतभेदपूर्ण है। पहले कालिदास किस शताब्दी में पैदा हुए, इसी को लीजिए। सभी जानते हैं वे विक्रमादित्य के समय में उत्पन्न हुए थे। विक्रमादित्य चौथी-पाँचवी शताब्दी के राजा थे। चूँकि कालिदास का विवाह विक्रम की ही कन्या से हुआ था, अत: वे चौथी शताब्दी के पहले पैदा नहीं हो सकते थे। यह भी सब जानते हैं कि महाराज भोज से भी इनकी मेल मुलाकात थी। 'भोजप्रबंध'नामक ग्रंथ में इसके अनेक प्रकरण मिलते हैं। भोज दसवीं शताब्दी के राजा हैं। इसी से सिद्ध होता है कि कालिदास का जन्म चौथी शताब्दी में और अंत दसवीं शताब्दी में हुआ। वे लगभग छ: सौ वर्ष जीवित रहे। मेरा अनुमान है जिस तरकीब से उन्हें विद्या मिली थी उसी से उन्हें दीर्घायु भी मिली।
वे तीन शताब्दियों तक 'मेघदूत', 'कुमारसंभव'और 'रघुवंश'जैसे काव्यग्रंथ लिखते रहे। (ऋतुसंहार अप्रामाणिक है।) बाद में उन्होंने नाटक लिखे क्योंकि जो कविता लिखता है वह सदैव कविता नहीं लिख सकता। कभी-न-कभी अकस्मात आलोचना पर आने के पहले वह नाटक पर अवश्य ही उतरता है। उदयशंकर भट्ट, रामकुमार वर्मा आदि इसके उदाहारण हैं। तीन शताब्दियों में कालिदास के तीन नाटक, 'अभिज्ञान-शाकुंतलम', 'विक्रमोवर्शीय'और 'मालविकाग्मित्न'प्रकट हुए।
अभी कुछ दिन हुए हिंदी पन्नों में 'साधना'शब्द को ले कर काफी विवाद चला था। नए लेखक साधना-विरोधी हैं। पर कालिदास से उन्हें शिक्षा लेनी चाहिए। जन्म से मूर्खता मिलने पर भी भाग्य से उन्हें राज-सम्मान मिला, फिर भी उन्होंने पुस्तकें लिखने में जल्दी न की। छ: सौ वर्षों में उन्होंने छ: ग्रंथ ही प्रकाशित कराए। इसी कारण कालिदास का नाम अब तक चला आ रहा है।
खैर, यह तो विषयांतर हुआ। विवाह के बाद कालिदास कविता लिखने लगे। यहाँ उन कवियों को कालिदास से शिक्षा लेनी चाहिए जो बिना विवाह किए ही कविता लिखने लगते हैं। इसी का फल है कि वे 'तेरे फीरोजी ओठों पर'जैसी पंक्तियों लिख कर ओठों के स्वाभाविक रंग से अपनी अज्ञता का प्रचार करते हैं। 'उभरे थे अंबियों से उरोज'जैसी बात लिख कर और कुरुचि तक दिखा कर, यह नहीं जान पाते कि अंबियाँ गिरती हैं, उभरती नहीं। जो विवाह कर के लिखेगा वह एक तो ऐसी गलतियाँ नहीं करेगा और करेगा भी तो उसको सही प्रमाणित करने का साहस रक्खेगा। इसलिए कालिदास ने यह काम शादी के बाद आरंभ किया। यह बात दूसरी है कि उनको अपने ससुर, विक्रमादित्य से इस विषय में प्रोत्साहन मिला। आज के कवि इतने भाग्यशाली कहाँ? कभी-कभी किसी सभा की सदस्यता पा लेने में, बची-खुची उपाधि हथिया लेने में और साक्षात अपने ससुर से श्लोक-श्लोक पर लाख-लाख मुद्राएँ फटकारने में बड़ा अंतर है। आजकल एक तो समझदार लोग अपनी कन्या का विवाह कवि से न करके ओवरसियर से करना चाहते हैं और कवि से विवाह कर भी दिया तो उमरभर उसके भाग्य पर अकारण रोते हैं। पर कालिदास को ये असुविधाएँ न थीं। इसलिए उनका व्यवसाय अच्छा चला। 'भोजप्रबंध'आदि से विदित होता है कि कुछ दिन बाद वे पक्के व्यवसायी और चतुर व्यक्ति बन गए। जैसे आजकल बहुत से साहित्यकार अपनी रचना को पुरस्कृत कराने के लिए पहले एक पुरस्कार का विधान करा के बाद में अपनी रचना को ही सर्वश्रेष्ठ मनवा लेते हैं, वैसे ही कालिदास स्वयं राजा को समस्या सुझा कर, दूसरे कवियों की रचनाओं में राजा की इच्छा का संशोधन दे कर यह प्रकट करा देते कि श्लोक उन्हीं का है और इस प्रकार सहज प्रशंसा के भागी हो जाते थे।
आज की भाँति पुराने युग में भी लोग ज्ञानवर्धन के लिए यात्रा का महत्व समझते थे। इसीलिए कालिदास ने भी उत्तर-भारत से दक्षिण तक की यात्रा की। आज भी उत्तर-भारत के बहुत से कवि दक्षिण तक जाते हैं। पर उनकी गति कालिदास जैसी नहीं है। सर्वश्री भगवतीचरण वर्मा, नरेंद्र शर्मा, नेपाली, प्रदीप आदि तो बंबई तक ही पहुँचे। श्रीमती विद्यावती, 'कोकिल'और सुमित्रानंदन पंत पांडिचेरी तक जा चुके हैं। फलत: इनके साहित्य में उन स्थानों की हवा का असर है। सबकुछ होने पर भी महर्षि रमण के आश्रम से भी दक्खिन जाने वाले हिंदी कवि बहुत कम हैं। इस हिसाब से कालिदास की सिंहलयात्रा का ऐतिहासिक महत्व बढ़ जाता है। वे सिंहल अर्थात सीलोन तक गए थे। इस बीच में शायद कोई भी महत्वपूर्ण हिंदी कवि सीलोन नहीं गया। आगे भी हमारे यशस्वी कवि सीलोन जाएँगे, यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि रेडियो सीलोन की नीति अभी भली-भाँति निश्चित नहीं हो सकी है। फिर भी यदि वे किसी सांस्कृतिक आदान-प्रदान में सीलोन पहुँच भी जाएँ तब भी कालिदास की यात्रा का महत्व इससे कम नहीं होता, क्योंकि उस युग में उज्जयिनी के राजभवन से सीलोन तक जाना आज के युग में दिल्ली के संसद भवन से पोलैंड तक जाने की अपेक्षा कहीं अधिक कठिन था।
कालिदास को वेश्याओं से प्रेम था। विद्वान जानते ही हैं कि कालिदास ने जिस 'रमणी, सचिव: सखी मिथ: प्रियशिष्या ललिते कलाविधौ'की उदात्त कल्पना की है, वह वेश्याओं में बहुत अधिक मिल सकती है। वे रमणी होती ही हैं। आपके चाहने पर वे सचिव भी हो जाती हैं, और सखी भी। 'अज-विलाप'की नायिका और अपनी वेश्याओं में अंतर केवल 'प्रिय-शिष्या'वाली बातों को ले कर है। वैसे सनातन काल से अपने देश का बड़े-से-बड़ा मूर्ख भी अपनी स्त्री को अपने से अक्ल में छोटा मान कर उसे शिष्या से ऊँचा नहीं उठने देता, वेश्या के साथ ऐसी बात नहीं। आप समझदार हों तो स्वयं उसके शिष्य बन सकते हैं। कई कवियों ने तो इसी शिष्यता के सहारे कवित्त-सवैये की लकीर छोड़ कर गजल की झटकेदार कमंद हथिया ली है। तात्पर्य यह है कि वेश्या का कवि-जीवन में जो महत्व है उसे हमारे जानने के पहले ही कालिदास जान चुके थे।
उनके मन में वेश्या-प्रेम कैसे जागा, इसको ले कर इतिहासकारों ने कई धारणाएँ व्यक्त की हैं। कुछ का कहना है कि वे पत्नीशाप से वेश्या-गामी बने। कुछ कहते हैं कि 'कुमारसंभव'के नवम सर्ग में शिव-पार्वती का संयोग वर्णन इतना यथार्थवादी हो गया कि साक्षात पार्वती को शाप देना पड़ा कि 'ओ कवि, तू स्त्री-व्यसन में मरेगा।'उसी के वशीभूत हो कर कालिदास वेश्यागामी हो गए। वैसे यह कथा विश्वास-योग्य नहीं है। देवी-देवता यदि अपने नाम पर संयोग-वियोग की लीलाएँ सुन कर कवियों को शाप देने लगते तो आज तक कवि-वंश का नाश हो गया होता; नहीं तो बहुत से कवि संस्कारवश मंदिरों के दरवाजों पर बैठ कर बताशे बेचते होते। या कविता करते भी होते तो 'दफ्तर की इमारत', 'चाय से लाभ', 'खेती के लिए उपजाऊ खादें'जैसे दोषहीन विषयों पर कविताएँ लिखते। यदि श्रृंगार-सुख के वर्णन से बुरा मान कर पार्वती कालिदास को शाप दे सकती हैं तो कल कोई रिसर्च का विद्यार्थी यही कहने लगेगा कि तुलसीदास का रत्नावली से वियोग इसीलिए हुआ कि उन्होंने भगवान राम को सीता के वियोग में दु;खी दिखाया था और उनके मन में जड़-चेतन का विवेक मिटा दिया था।
मेरे विचार से कालिदास को वेश्या प्रेमी इसलिए होना पड़ा कि उनके सिर पर उनकी पत्नी का शाप - या प्रताप बोल रहा था। देखने की बात है कि कालिदास की पत्नी उनके प्रति शुरु से ही कठोर रही। पुरुष की विद्या और आचरण ही उसके शास्त्रोक्त गुण हैं। पहले कालिदास के पास विद्या न थी, पर आचरण था। तब वह कालिदास का अपमान विद्याहीनता के कारण करती रही। जब वे विद्वान हो गए और उसे कालिदास को गिराने की कोई तरकीब न सूझी तो उसने शाप दे कर उनके आचरण को नष्ट दिया। और जब किसी सहृदय की पत्नी ही उसे, शाप दे कि 'दुराचारी हो जाओ'तो फिर ऐसा कौन पति है जो इस शाप को स्वीकार न करेगा।
ये सब शोध की बातें हैं। सीधा-सादा इतिहास यह है कि कालिदास सीलोन गए। वहाँ वेश्या के घर रुके। वहाँ उन्होंने पुरस्कार पाने के लालच में एक समस्यापूर्ति की। तब उस वेश्या ने उन्हें मार डाला और उनकी समस्यापूर्ति के श्लोक को ले कर राजा से काफी धन प्राप्त किया। बाद में उसने राजा से कालिदास को मार डालने की बात भी मान ली। इस पर राजा ने वेश्या को माफ कर दिया। स्वयं वे कालिदास के साथ चिता पर जल मरे।
इस घटना से सिंहल देश की तत्कालीन न्याय-पद्धति पर भी प्रकाश पड़ता है। वहाँ यदि अपराधी अपराध स्वीकार कर लेता तो वह छोड़ दिया जाता था। जिसके सामने अपराध स्वीकार किया जाता वह दंड का भागी होता था। शायद इसीलिए अपराधी तब सही-सही बात बता भी देते थे। इस पद्धति का प्रभाव भर्तृहरि-काल में अपने देश में भी था। इसीलिए उन्होंने अपनी रानी को दूसरे पुरुष में आसक्त पा कर उसे कोई दंड नहीं दिया। खुद अपने को देश-निकाला दे दिया।
ये सब विषयांतर की बातें हैं, जो केवल वैधानिक इतिहास में आनी चाहिए। हमारे जानने योग्य तो यही बात है कि कालिदास वेश्या के घर में मारे गए। यदि उनके घर की तलाशी ली गई होती तो शायद बहुत-सा कालिदास-रचित भारतीय साहित्य, जो अब सिंहल देश की राष्ट्रीय-निधि है, हमारे साथ लग जाता। पर उस समय अपने देश का कोई हाई कमिश्नर वहाँ नहीं रहता था। इसी से यह नहीं हो पाया। वास्तव में, जिस प्रकार हमारे बहुत से वेद जर्मनी में पड़े हैं, इतिहास-ग्रंथ इंग्लैंड में है, वैसे ही बहुत-सा काव्य-साहित्य सिंहल देश में है।
कालिदास का इतिहास मैंने जिस सफाई से बखाना है उससे आप यह न समझें कि उसमें मतभेद नहीं है। इतिहास का संबंध सच्ची घटनाओं से है। इसलिए एक-एक घटना पर सौ-सौ मतभेद होते ही हैं। कालिदास के विषयों में भी मतभेद है। पर मैंने लोकप्रचलित कथाओं के आधार पर इसे रचा है। इसे लगभग नब्बे प्रतिशत जनता मानती है। इसलिए विद्वानों को इसे सच्चा इतिहास मानना ही पड़ेगा। यही प्रजातंत्र का मूल सिद्धांत है। इसे सच्चा इतिहास मान कर कालिदास के जीवन से कई शिक्षाएँ लेनी चाहिए। कुछ निम्नलिखित हैं:-
1- यदि कोई जन्म से मूर्ख है तो उसे घबराने की जरूरत नहीं; अच्छा विवाह संबंध हो जाने पर, राज-सम्मान मिल जाने पर या देव के प्रसाद से मूर्ख होने पर भी आदमी अच्छा कवि माना जा सकता है, और यशस्वी हो सकता है। ऐसे यशस्वियों की कभी कमी नहीं रही।
2- समस्या-पूर्ति कर के काफी पैसा पैदा किया जा सकता है, पर पुरस्कार के लिए ही कविता लिखना या समस्या-पूर्ति करना कभी-कभी कुठावँ में मरवाता है।
3- वेश्याओं के यहाँ कभी न जाएँ। जाना ही हो तो उनके यहाँ जा कर कविता न लिखें। लिखें भी तो उसे कभी सुनाएँ ही नहीं। सुना भी दें तो उस पर मिलने वाले पुरस्कार की चर्चा न करें।
4- बिना विवाह किए कविता न लिखें; लिखें भी तो उपयोगितावादी काव्य की साधना करें, 'नव विहान आया', 'कट गई रात जड़ता की, घर-घर हुआ साक्षरता प्रचार'जैसे विषयों पर।
हो सकता है कि कुछ विद्वान कालिदास के इतिहास से सहमत न हों। शायद वे यह सिद्ध करना चाहें कि कालिदास एक उत्तम, धनी कुल में उत्पन्न हुए थे, उनके पिता भी कवि थे, उनकी प्रतिभा से प्रभावित हो कर राजा विक्रमादित्य ने उन्हें अपना जामाता बना लिया था, वे सदाचारी थे, अपनी सदाशया पत्नी को छोड़ कर किसी और स्त्री के, नूपुर के अलावा, कोई और आभूषण तक न पहचानते थे, उनका स्वास्थ्य बड़ा अच्छा था, नब्बे वर्ष की अवस्था में उन्होंने 'हरि: ओम् तत्सत्'कह कर शरीर छोड़ा, आदि-आदि। जो यह सिद्ध कर ले जाएँगे कि कालिदास के विषय में मेरी धारणाएँ असत्य हैं। पर इससे मुझे कोई दु:ख नहीं होगा, क्योंकि उस दशा में भी कालिदास एक आदर्श कवि बने रहेंगे। साथ ही मेरा बड़ा भारी लाभ होगा। अपनी स्थापनाओं के खंडित हो जाने और उनके मिथ्या प्रमाणित होने पर भी मैं अमर हो जाऊँगा, क्योंकि बहुत-से इतिहासकार आज भी इन्हीं कारणों से अमर माने जाते हैं।

साभार-गद्य कोश 

जी-हुजूर क्रान्ति-अमृतलाल नागर

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गदर से लगभग 15 वर्ष बाद ही अंग्रेजी पढ़े-लिखों की बिरादरी काफी बढ़ गई थी। मिडिल और स्कूल लीविंग सर्टिफिकेट ही नहीं, कुछ लोग तो बी.ए. और एम.ए. तक भी ढैया छूने लगे थे।
अंग्रेजी के सर्टिफिकेट बटोरना और फिर चर्चा कर शेखी बधारना अंग्रेजी पढ़े लिखे वर्ग अर्थात् बाबू वर्ग की चलती-फिरती विशेषता बन गई। अंग्रेज हाकिम को नौकरी के लिए अर्जी देते समय हिन्दुस्तानी अदबो-आदाब के बड़े-बड़े अजीबों-गरीब उल्थे किए जाते थे।
अति आदरणीय हुज़ूर,
बडे़ विश्वस्त सूत्र से यह जानकर कि आपके बडें काइंड कंट्रोल में एक क्लर्क की जगह खाली हुई है, मैं बड़ी आज़िजी के साथ, दस्तवस्ता, हुजूर की खिदमत में यह अर्जी लगाता हूं।
मेरी योग्यता के बारे में मोस्ट हम्बली निवेदन है कि मैं बहुत ही रिस्पेक्टेबिल फेमिली का हूं तथा मेरे पुरखे भी सदा से इंग्लैण्ड की क्वीन मलका विक्टोरिया तथा अंग्रेज के लायल रहे हैं।
मैं भी हुजूर को यह आश्वासन दिलाता हूं कि हुजूर को हर मौके पर अपनी लायल्टी से संतुष्ट रखूंगा।
मैं दर्जा....(4-5 क्लाइमेक्स मिडिल तक) अंग्रेजी पढ़ा हूं तथा देव नागरी और फारसी (दोनों या किसी एक) का अच्छा अभ्यास है।
मेरे आदरणीय हुज़ूर, यदि इस मोस्ट हम्बुल एंड लायल सर्वेन्ट को अपने संरक्षण में लेंगे तो मैं हुज़ूर को पूर्ण संतोष प्रदान करने के हेतु कोई पत्थर बगैर उल्टाए न रहूंगा (शैल लीव नो स्टोन अनटर्न्ड)। हुजूर की दीर्घ आयु और उन्नति के लिए हुज़ूर की मेम साहब और बाबा लोगों की उन्नति के लिए जब तक जिऊंगा, गाड़ आलमाइटी से नित्य दुआ मांगा करूंगा और मेरे बाद मेरे बच्चे भी यही दुआ करते रहेंगे और हुज़ूर का यश जब तक सूरज और चांद रहेंगे- (यावत चन्द्र दिवाकरौ) सारी दुनिया में कायम रहेगा।
मैं हूं हुज़ूर का मोस्ट हम्बुल सर्वेन्ट (दासानुदास का अंग्रेजी अनुवाद)
अंग्रेजी भाषाविद्, हुज़ूर के इस दासानुदास ने पगड़ी उतारकर फेल्ट टोपी पहनी और लम्बा कालरदार कोट वास्कट और नेकटाई-पतलून डाटकर उसे अपने-आपको अंग्रेजों से भी अधिक विलायती मानना आरम्भ कर दिया।
एक ऐसी लहर चली कि जिसमें अंग्रेजी पढ़े-लिखे बाबू को हर हिन्दुस्तानी चीज़ से नफरत हो गई थी। अपने अंग्रेज हाकिमों तथा पादरियों के समान ही ये पढ़े-लिखे बाबू भी वेदों को जंगलियों की गीतों की किताब कहने लगे थे। उन्हें हिन्दुस्तानी भोजन से अरुचि होने लगी थी; डबल रोटी और मांस-मदिरा तथा धूम्र-पान उस समय बाबुओं के लिए एक बड़ी क्रान्तिकारी एवं आवश्यक वस्तु हो गई थी। गांधी जी की आत्मकथा में उनके मांसाहार वाले प्रसंग में उनके मित्र का जो तर्क है वह उस समय का प्राय: सार्वभौमिक तर्क माना जा सकता है। मांस खाने वाले जवान अमांसाहारियों से प्राय: यही कहते कि मांसाहार से मनुष्य बलवान होता है, अंग्रेज़ों की बल-बुद्धि का एकमात्र कारण मांस और मदिरा ही है। यह होते हुए भी जहां तक मुझे पुराने बाबू साहबों से पूछताछकर मालूम हुआ है वहां तक मैं निश्चित रूप से यह कह सकता हूं कि हिन्दुओं ने बाबू बनकर भी, विद्रोही बनकर भी अंग्रेजों की समानता पाने के लिए कभी गोमांस ग्रहण नहीं किया। अपवाद रूप में दस-पांच अति विद्रोही बाबू शायद हुए हों तो हुए हों।
जी हुज़ूर बाबू अंग्रेज़ी पढ़कर अंग्रेजों की तरह हिन्दुस्तानी बोलना भी सीख गए। आटा-जाटा, वैडमास, डर्टी निगर, काला आदमी कहने में उन्हें मज़ा आता था। अंग्रेज साहबों के सामने दुम हिलाना और स्वदेशवासियों के सामने गुर्राना एक आम फैशन की बात हो गई थी।
एक सबसे खराबी की बात बाबू दृष्टि से यहां पर यह थी कि उन्हें अंग्रेजों के समान स्वच्छन्दतापूर्वक अपनी मेमों को लेकर बाहर घूमने का मौका नहीं मिलता था। आम तौर पर ये बाबू अपनी पत्नियों और घर की स्त्रियों से घृणा करने लगे थे। स्त्रियां बबुआइनें नहीं हो पाई थीं। जिस प्रकार के खान-पान और आचरण में बाबू का रस उमग चुका था, उसमें भारतीय नारी के लिए अधर्म और अनाचार के सिवा और कुछ भी न था। बाबू ने अपने मनोरंजन के लिए एक समझौता किया, वह वेश्यागामी हो गया। वेश्यागामिता इसके पहले केवल रईसों और सामन्तों के बीच ही अति प्रचलित थी। औसत आमदनी के लोग इस लम्बे खर्च वाले मनोरंजन को बर्दाश्त ही नहीं कर सकते थे। लेकिन बाबू के लिए यही समझौता श्रेयस्कर था। आदाब अल्काब, शीरी गुफ्तगू और मैनोशी के लिए तवायफ का कोठा उम्दा जगह थी। वहां जाकर बाबू की हिन्दुस्तानी ज़बान सुधर जाती थी। नये बढ़ते हुए बाबू वर्ग में वेश्यागामिता प्राय: एक आन्दोलन के रूप में आई। वे दिन भारतीय पत्नियों के लिए बहुत ही बुरे थे। हमारी स्त्रियों द्वारा गाए जाने वाले ढोलक के गीतों में वेश्याओं के विरुद्ध बहुत कुछ कहा गया है :
रंडी घर जाना छोड़ो सनम..........।। रंडी घर.।।
सोने की थलिया में भोजन परोसा
सौतन संग खाना छोड़ो सनम......रंडी घर.।।
सोने की शीशी मीने का प्याला
रंडी संग पीना छोड़ो सनम.....।। रंडी घर.।।
एक गीत में कहा गया है :
जब से चला है रंडी का रखना
कदर बीबी की- कदर प्यारी की गई मेरी जान
इस प्रकार के कई गीत उस ज़माने में रचे गए थे।
इसी जी-हुजूर क्रान्ति में बाबुओं ने अपने नामों के साथ अपने जाति नाम भी जोड़ने शुरू कर दिए थे। शर्मा, वर्मा, राजवंशी, यदुवंशी, सक्सेना, श्रीवास्तव, कपूर, मित्र, बाजपेई, नागर- इन सबकी की जुड़ाई इसी वक्त में हुई। नाम रखने में भी सतर्कताबरती जाने लगी- मांगीलाल, घूरेलाल, सद्दीलाल, मटरूलाल, झब्बनलाल, दूधनाथ आदि किस्मों के नाम भला अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों को क्योंकर पसन्द आ सकते थे। सद्दीमल, एस. माल हो गए, देवीप्रसाद कपूर डी.पी. कैम्फर हो गए, बाबू राजकिशोर अंग्रेजी कोट-पतलून में बहुत अकडे तो शराब के झोंक मे अपने नाम की अंग्रेजी स्पेलिंग को उल्टाकर जे. इरोक्सा हो गए। हां, स्त्रियों के नामों में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम तीन दर्शकों में जन्म देने वाली हमारी दादियां मटका, डिब्बा, चुहिया, कुल्हड़, मीरो, झुन्नो, मुन्नो आदि ही बनी रहीं।
हमारी पितामह पीढ़ी में सब अधर्मी और कुकर्मी ही बने हों सो बात नहीं, बहुतों में अंग्रेजी पढ़ने के बाद राष्ट्रीय भावना और स्वाभिमान भी जागा।
अंग्रेज जाति के प्रति आदर-भाव रखते हुए उन्होंने अपने देश और धर्म को हीन मानने से दृढ़तापूर्वक इंकार किया। गदर के बाद बाबू का व्यापक प्रसार होने के साथ ही साथ हम भी देखते हैं कि इस देश में सामाजिक सुधार आन्दोलनों का जन्म हुआ। वेद, उपनिषद् और गीता ने इस बाबू वर्ग की आध्यात्मिक ही नहीं राष्ट्रीय भावना कों भी बड़ा बल दिया। और इसी बल के साथ उन्होंने मूर्ति-पूजा और रूढ़ियों के खिलाफ जेहाद भी ठाना। बंगाल के ब्रह्म समाज, बम्बई के प्रार्थना समाज और उत्तर भारत के आर्यसमाज के रूप में यह सुधारवादी आन्दोलन बवंडर की तरह उठा और देशव्यापी हुआ।
सनातन धर्मावलम्बियों के लिए यह ब्रह्मचारी आर्य बाबू भी उतने ही बुरे थे जितने कि अंग्रेजी चाल ढाल वाले साहब बाबू।
ये ब्रह्मवादी आर्य बाबू सभा-सोसाइटियां बनाते, पुरानी जातीय पंचायतों के विरुद्ध नये जातीय क्लब बनाते, जातीय ‘समाज’ स्थापित करते, जातीय समस्याओं के सुधारवादी हल लेकर अखबार प्रकाशित करते, बाल-विवाह के विरुद्ध और विधवा-विवाह के पक्ष में लेक्चर देते और लेख लिखते पंडों-पुरोहितों की भी भरपेट खिल्ली उड़ाते तथा विलायत गमन के सिद्धान्त का जोरदार समर्थन करते थे।
बात यदि कहीं तक सीमित रहती तो रूढ़ियों के प्रति निष्ठावान सनातनधर्मी वर्ग इन लोगों को भी धर्मभ्रष्ट म्लेच्छ क्रिस्तान मानकर उपेक्षापूर्वक मुंह फेर लेता, परन्तु ये आर्य बाबूगण साहब बाबुओं के समान चरित्रहीन और पतित नहीं थे- वरन ये लोग वेद मंत्रोच्चार और यज्ञ-होमादि भी करते थे। ब्रह्मसमाजियों, आर्यसमाजियों से उन दिनों सनातनधर्मी लोग सौतों की तरह झोटमझोट जूझे हैं। सनातनधर्मी पण्डितों के लिए सबसे बुरी बात तो यह हुई थी कि जिन वेद-शास्त्रों की धमकी देकर वे अपने समाज पर स्वेच्छानुसार अंकुश रखते थे वे वेद आर्यसमाजियों ने जन-साधारण के लिए सुलभ कर दिए। जाति-भेद का धयान आया जिसे सनातनधर्मी रोक न पाते थे। आर्यसमाजी अपने धर्म की बुराइयों के अलावा चूंकि मुसलमान मुल्लाओं और ईसाई पादरियों से भी लोहा लेते थे, इसलिए वे हिन्दू समाज को बहुत भाते थे। सनातनधर्मी पण्डितों को अपने इन शत्रुओं से करारा झटका लग रहा था।
कानपुर की घटना है, एक बार सनातनी ब्राह्मणों के उकसाने से कुछ सनातनी सेठ भी धर्ममूर्ति धर्मावतार का पद पाने के हेतु चन्दा देकर आर्यसमाजियों के खिलाफ सनातन धर्म की सभा करने के लिए कटिबद्ध हुए। तय हुआ कि जिस तरह आर्यसमाजी बात-बात में वेद का हवाला देकर वेद-मंत्रों का अनर्थ करते हैं, उसी प्रकार सनातनी पण्डित भी बात बात में मंत्रों का हवाला दें और उसके सही अर्थ बतलाएं। कानपुर-भर के पण्डितों के यहां ढुंढैया मची, किसी के घर वेद ही न मिला।
आर्यसमाजी विद्वानों में ऐसे अनेक विचित्र लोग भी थे जो हर पश्चिमी वैज्ञानिक आविष्कार को वेद से खोज निकालते थे। गैस, बिजली, रेल, तार, भाप सब कुछ वेदों से निकल आता था। पश्चिमी भौतिक विज्ञान के नित्य नये-नये आविष्कारों को आर्यसमाजियों के वेदों ने हीन भावना में फंसने प्रभावित से काफी हद तक बचाया। मैंने अपने देश के बुड्ढों से बड़ी-बड़ी आश्चर्यजनक बातें सुनी है। सुना है कि हमारे ऋषि-मुनी तांबे की पटरियों पर रेल चलाते थे, सोने और जवाहरात का प्रयोग कर ऐसी तरकीब से दीपक बनाते थे जो गैस (बाद में बिजली भी) की रोशनी से सौ गुना ज्यादा प्रकाशवान होते थे। मेरी अपनी धारणा तो यह है कि यदि आर्यसमाज का आन्दोलन न चला होता और उनके वकील अनेक विचित्र विद्वानों ने यदि वेदों का विज्ञान की खान न सिद्ध किया होता तो बाबू देवकीनन्दन खत्री अपने अमर तिलस्मी उपन्यास ‘चन्द्रकान्ता’ की कल्पना न कर पाते।
अखबार क्रान्ति
प्रेस और अखबारों ने समाज-सुधार आन्दोलन, नागरी प्रचार आन्दोलन एवं राजनैतिक आन्दोलन को बढ़ाने में बहुत बड़ा हाथ बटाया। छापे के अक्षर पढ़े-लिखे समाज के लिए विधाता के लेख की भांति अटल और विश्वसनीय हो गए। पुराने बुजुर्ग, जो हर नई चीज का विरोध करते थे, अखबार का भी विरोध करते थे। परन्तु इस विरोध के साथ एक आश्चर्यजनक बात मैंने एक नहीं अनेक बुर्जुर्गों से सुनी है- कई बड़े-बूढ़ों का यह ख्याल है कि जब से अखबार चले तब से महंगाई बढ़ गई।
मिट्टी का तेल और नल क्रान्ति
आर्यसमाज और अखबारों की छत्र-छाया में बाल-विवाह भले ही न रुके हों अथवा विधवा-विवाह भले ही न हुए हों, परन्तु छोटी-मोटी क्रान्तियाँ अवश्य हुई। उनमें अंग्रेजी दवाओं, मिट्टी के तेल और पानी के नल का उपयोग बहुत ही मार्के की हैं। बंगाली डॉक्टर आने लगे। बाबू घरों में स्वाभाविक रूप से रोग केवल अंग्रेजी दवाइयों से ही अच्छे हो सकते थे, वैद्य-हकीम उनकी दृष्टि में दहकनी-दकियानूसी हो गए थे। हिन्दू बाबू घरों में अंग्रेजी दवा का उपयोग बड़ी ही मुश्किलों से आरम्भ हो पाया क्योंकि यह धारणा फैली हुई थी कि कोई भी अंग्रेजी दवा बगैर ब्रांडी और बकरे-मुर्गों के सत के बन ही नहीं सकती। शुरू-शुरू में लोग इस धारणा के खिलाफ यह प्रचार करते थे कि यह बात गलत है, अंग्रेजी दवाइयां पाउडरों से तैयार होती हैं और पानी में गोली जाती हैं। लखनऊ के एक दवाफरोश ने, जिनकी दूकान शहर में सबसे पहले खुली, यहां तक प्रचार किया था कि उनकी दवाइयां नल के पानी में भी नहीं बनती हैं, बल्कि रोज़ उनके यहां ठेले पर लदकर कई कल से गोमती नदी का पानी आता था और कलसों-भरा ठोला विज्ञापन के रूप में सदा उनकी दूकान के सामने खड़ा रहता था। लोग-बाग ठाकुर जी को भोग लगाकर अंग्रेजी दवा ग्रहण करते थे।
न जाने किस तर्क के आधार पर मिट्टी का तेल जूठन की वस्तुओं में शामिल कर लिया गया था। लोग-बाग पहले उसे अपने घर की ड्योढ़ी में ही जलाते थे, मगर जर्मनी की डीजल लालटेनें मिट्टी के तेल को घरों के अंदर ले ही गईं। इसी तरह नल के पानी के संबंध में भी अनेक भ्रान्त धारणाएं फैली थीं। कहां जाता था कि अंग्रेज जिस पानी से नहाते और कुल्ला करते हैं उसी को नलों द्वारा घरों में प्रवाहित कर देते हैं; नल भारतीयों को धर्मच्युत करने की एक चाल है, उसमें चमड़े का वाशसल लगता है। हमारे नगर में पहले प्लम्बर एक बंगाली बाबू घर जाकर नल लगवाने के लिए अपील करते थे। उनके अनेक तर्कों में यह भी था कि जिन परम पावन नदियों में स्नान करने हिन्दू अपना परम धर्म समझते हैं, उन्हीं का उन्हें आठों याम सुलभ होगा। फिर भी आरम्भ में अनेक वर्षों तक नलों पानी केवल धोने-धाने के काम ही लाया गया। पीने और नहाने के लिए उसका व्यवहार न हो सका।
विलायत-गमन क्रान्ति
भक्तो ! विलायत-गमन क्रान्ति का वर्णन कर पुराणकार आगे भी बाबू की बहुत-सी लीलाएं बखानेगा। परन्तु भक्तो ! आज की पुराणवाती यहीं पर समाप्त होती है क्योंकि बाबू वक्ता, बाबू श्रोता ठाले की वाहवाह को छोड़कर और पुजापा न चढ़ेगा। सो कलिकाल के पुराणकार जब पेट-पूजा निस्तरेंगे तब आगे की कथा कहेंगे।
तीतर, बटेर और बुलबुल लड़ाना
यह मुमकिन है कि शान्ति के कबूतर उड़ाते-उड़ाते हम एटम हाइड्रोडन मिज़ाइल किस्म के भयानक हथियारों और आस्मानी और दर आस्मानी करिश्मों के औजारों की लड़ाई बन्द कराने में सफल हो जाएं, मगर यह कि लड़ाई का चलन ही दुनिया से उठ जाएगा, हम न मानेंगे जनाब ! अर्जी, लड़ाई का मज़ा चार जवान नज़रों से पूछिए, नवोढ़ा प्रौढ़ा सुहागिनों के मानभरे मुंहफुलावन से पूछिए, सितार और मिज़राब से पूछिए, घुंघरुओं और इन्सान के पैरों से पूछिए, इल्मोहुनर की लागडांट करने वालों से पूछिए, एलेक्श्न लड़ाने वालों से, वकीलों-बैरिस्टरों की जबीनों से, पार्टी की तूतू-मैंमैं से पूछ देखिए- कोई भी न चाहेगा कि लड़ाई का चलन उठा दिया जाए। सच पूछिए तो लड़ाई का दूसरा नाम ही जीवन का विकास है; ग्रह-उपग्रहों के सांस्कृतिक आदान-प्रदान के बावजूद इन्सान लड़ने से बाज न आएगा। जब तक दाल-तरकारी में नमक की ज़रूरत रहेगी तब तक सभ्यता का हाज़्मा दुरुस्त रखने के लिए हम गालियों का इस्तेमाल भी करते रहेंगे, जब विटामिन की टिकियों से पेट भरने लगेगा तब भी ताने देने की बात तो मेरे ख्याल से न छूटेगी। मतलब यह है कि विश्वशान्ति, ब्रह्माण्ड शान्ति आदि ऊँ शान्ति: शान्ति: शान्ति: का साम्राज्य दसों दिशाओं में फैल जाए, फिर भी ज्ञान-विज्ञान की ऊंची-ऊंची चोटियों पर चढ़ने के लिए मनुष्य निरन्तर लड़ता ही रहेगा।
प्रकृति के बच्चों में सिर्फ आदमी ही लड़ता हो सो बात नहीं, छोटे-बड़े चेरिन्दे-परिन्दे भी कटाजुज्झ करते ही रहते हैं। इनकी लड़ाइयों में मानवी सभ्यता न सदियों तक लुत्फ हासिल किया है। पुराने ज़माने में ही नागर सभ्यता ने जानवरों की लड़ाइयों को कला और शास्त्रविद्या तक पहुंचा दिया था। वात्यस्यान के कामसूत्र में लिखा है कि जानवरों की लड़ाई देखना रसिया रईसों के लिए टॉनिक का काम करता है। इसलिए पुराने दिनों के सम्राट बादशाह जानवरों की लड़ाईयां बड़े शौक से देखा करते थे। हमारे नगर, लखनऊ, में भी नवाबी बादशाही जमाने से इसके संस्कार चले आते हैं। नसीरुद्दीन हैदर को पशु-पक्षी के युद्धों का बड़ा ताव था। चांदगंज में पशुशाला थी, हाथी, ऊंट, गैंडे, सांड, भैंसों से लेकर तीतर, बटेर, मुर्ग, बुलबुल आदि तक की लड़ाइयां उसका मनोरंजन करती थीं। एक जमाना था जब यहां बटेरों और तवायफों की बादशाही थी।
खैर, इस समय तो बुलबुल, बटेरों और तीतरों का तज़किरा छिड़ा है। इनकी लड़ाइयां भी खूब-खूब होती हैं, चोंचें चलती हैं, ये परिन्दे आपस में एक-दूसरे पर झपट-झपटकर वार करते हैं, चारों तरफ इंसान तमाशाइयों की भीड़ खड़ी होकर इनका हौसला बढ़ाती है, ‘‘और ले बेटे ! काट ले और काट ले ! हुमक के ! जियो बेटे, वाह वाह !’’ का समां बंध जाता है। इनकी हारजीत पर सैकड़ों हजारों का सट्टा हो जाता है। गरज यह कि इन पंछियों की लड़ाइयों का भाव रुपये, आने, पाई से अब तक बंधा है। इसीलिए लड़ाकू परिन्दों की खूराक और देख-सम्भाल में उनके पालने वाले दिल खोलकर खर्च करते हैं। इनके उस्ताद और खलीफा होते हैं, दंगल उस्तादों के नाम से होते हैं; इनकी हारी-बीमारी, चोट-चपेट के लिए दवाएं हैं, शक्तिदाता जड़ी-बूटियां हैं, पालने और लड़ाने के नियम है, पोथियां हैं- यानी कि वह सब टीमटाम है जो मनुष्य के शौक और सट्टे के सिद्धान्तों का समन्वय करती है।
वैसे हमें न तो सट्टे का शौक है और न जानवर पालने का। सच पूछिए तो हमारी हैसियत ही नहीं। हम आमतौर पर उन्हीं जानवरों की लड़ाइयां देख पाते हैं जो हमारे-आपके घरों में बरबस बस जाते हैं, मसलन चींटी, चूहे, मक्खी, मच्छर, खटमल वगैरह। दाना ले जाती हुई एक चींटी से दूसरी चींटी की रस्साकशी, चूहों की चूं-चूं और उछल-कूद-मार, मच्छरों का भन्ना-भन्नाकर एक-दूसरे पर वार करना अपना एक अन्दाज़ तो रखता ही है; मगर इनकी चर्चा बेकार है क्योंकि इनकी लड़ाइयों पर सट्टा नहीं होता।
भगवान भला करे हमारे पुराने प्रालितेरियन पड़ोसी कादिर भाई का, जिनकी बदौलत तीतर, बटेर और बुलबुलों के दंगल हमें देखने को अक्सर मिल जाते हैं। उनकी दुकान के सामने फुटपाथ पर कोई मौसम नहीं जाता जबकि एक न एक दंगल न होता हो। खयालगोई के दंगल, तीतर बटेर, बुलबुल, मुर्ग और अगिन चिड़िया के दंगल, बारहमासियों के दंगल- कुछ न कुछ होता ही रहता है।चलती सड़क से जन-जनार्दन सिमटकर जब भी ‘वाह-वाह’ और ‘लपक के बेटे’ का आकाशफोड़ शोर मचाते हैं तो हम सारे ‘इज़्मों’ से पगहिया तुड़ाकर अपने छज्जे पर खड़े हो इनका तमाशा देखने से चूक नहीं सकते। अहिंसा के सिद्धान्त को मानते हुए भी इन लड़ाइयों के मजे से हम इनकार नहीं कर सकते।
तो आइए, पहले बटेरों पर ही बातचीत हो जाए। यह मैं निवेदन कर चुका हूं कि नवाबी लखनऊ में बटेरों की बादशाहत थी। पण्डित रतननाथ दर ‘सरशार’ अपनी ‘आज़ाद कथा’ में सफशिकन के बहाने लखनऊ के बटेर को अमर कर गए हैं।
वैसे इन पंछियों की लड़ाई का मौसम कातिक गंगानहान से लेकर फागुन तक होता है, मगर बटेर गर्मी और सर्दी दोनों ही ऋतुओं में लड़ते हैं। दोनों ऋतुओं में बटेरों की जातियां भी अलग-अलग होती हैं। गर्मी में ‘चिनख’ बटेर लड़ता है और जाड़ों में ‘घाघर’। चिनख घाघर से छोटा होता है और वज़न में छटांक-डेढ़ छटांक का होता है। चिनख की चार किस्में होती हैं; चिनख पोटिया, घाघट पोटिया, असल चिनख और चारों किस्म के बटेर गर्मी के मौसम में ही मस्ताते हैं।
सर्दी में घाघर लड़ाया जाता है। यह चिनख से बड़ा और तोल में आध पाव-ढाई छटांक का होता है। इसकी दो किस्में होती हैं, असल घाघर और चिनख घाघर की संकर जाति घाघर पोटिया।
लड़ाकू बटेरों की परवरिश में बड़ी लागत लगाई जाती है काकुन तो ये चुगते ही हैं, लड़ाने की तैयारी में इन्हें मेवे, केसर, मुश्क, और जड़ी-बूटियां भी खिलाई जाती है।
इनकी काबुकों में चूल्हें की राख या छनी हुई बारीक मिट्टी बिछा दी जाती है, जिसमें लोट-लोटकर ये अपनी मस्ती बढ़ाते हैं। इन्हें नहलाया जाता है, आवश्यकतानुसार धूप-छांह भी दी जाती है। चैत में इनके बच्चे पैदा होते हैं; वे चैतुवे कहलाते हैं। साल दो साल पुराने पोढ़े बटेर करीज कहलाते हैं, जो बाकी चालू फसल में लिए जाते हैं वे ‘नये’ कहलाते हैं। ये तीनों आपस में लड़ाए जाते हैं। घर में लड़-लड़कर पोढ़े होते है; जो बहादुर निकलते हैं वे दंगलों में भेजे जाते हैं। लड़वैये बटेरों की चोचें उस्तरे से बारीक बनाई जाती हैं ताकि उम्दा मार कर सकें।
बटेरों की लड़ाई देखने में बड़ी सनसनीखेज़ होती है। ये नन्हा बूटेदार कत्थई या काले रंग का पहाड़ी जानवर अपने प्रतिद्वन्द्वी को देख पर फुलाते और बड़ी शान से पैंतरे बदलते हुए अचानक उछलकर वार करता है, कभी खींच मारता है, कभी मुर्री लगाता है, कभी फाड़ता है तो कभी दुश्मन की आंखों में चोच मारता है या उसकी चोंच तोड़ता है। लड़ते-लड़ते बटेर लहूलुहान हो जाते हैं, जितना लड़ते हैं उतना गरमाते हैं। हरैला बटेर जीतने वाले से अपनी जान छुड़ाकर सीधे नोकदम पाली बाहर भागता है, वरना जीतने वाला उसकी जान न छोड़े।
अब तीतरों की बात सुनिए। टीले मैदानों में तीतर चुगते, खाली पिंजरा लिए ‘लियो बेटे हुई-हुई’ की हांक मारते तीतर-प्रेमीजन गली-मुहल्लों और गांव-खेड़ों में आपने अक्सर देखे होंगे। तीतर बड़ा मस्त और ताकतवर जानवर होता है। वह चैत में पैदा होता और सर्दी में मस्त होकर लड़ता है। लड़वैए तीतरों की खुराक भी बटेरों की तरह कीमती होती है। वैसे इसे मिट्टी, आटा और दीमक भी चुगाया जाता है। पालने वाले अपने घरों में इनके लिए एक नलचीसी बनाकर उसमें बारीक मिट्टी भर देते हैं ताकि ये खूब लोटें-पोटें। गर्मी में पानी से तर बालू भर देते हैं। इनकी चार जातियां होती है और चार किस्में। ये देसी, गंगापारी, दक्खिनी और दोगली जातियों के होते हैं। रंग-भेद के अनुसार ये भूरिया, मेहंदिया, करौंदिया और काले कहलाते हैं। इनकी लड़ाई के दांव-पेंच भी देखने के काबिल होते हैं। ये अपने दुश्मन की आंख काटते हैं, चोच में चोंच डालकर ज़बान काटते हैं, जिसे ‘कुफल मारना’ कहा जाता है, दुश्मन की खोपड़ी में चोंच मारने को ‘डंक मारना’ कहते हैं, एक ही स्थल पर बराबर किए जाने का टेक्निकल नाम ‘एक ठौर मारना’ और चंचल गति से दुश्मन के शरीर के हर भाग पर आघात करने को ‘फड़कमार’ कहते हैं।
अब दास्ताने बुलबुल सुनिए। सर्दी में पीतल के अड्डों पर बुलबुल लिए इनके शौकीन भी आपको अक्सर देखने को मिल जाएंगे। इनकी चार किस्में होती हैं, सफेद, काला, काला-सफेद, और तौखी। अमरूदों के बाग में अक्सर ये पाये जाते हैं। इनका भोजन अधिक कीमती नहीं होता। भुने हुए चने का बेसन इन्हें खिलाया जाता है। जब लड़ना होता है तो दस-बारह घंटे पहले से इन्हें भूखा रक्खा जाता है। प्रतिद्वन्द्वी को देखते ही ये भूखे बुलबुल एक-दूसरे पर झपट पड़ते हैं, एक पंजो से चोंच और दूसरे से पंजा पकड़कर ये गुंथ जाते हैं। जो ताकतवर होता है वह कमजोर को दबाकर पड़ जाता है और कमजोर उसके पंजे से छूटने के लिए जी-जान से प्रयत्न करता है।
इनकी परिचर्या भी बड़ी सावधानी से होती है। अड्डे पर लिये-लिये इन्हें बराबर घर-बाहर घुमाया और उड़ाया जाता है। इन्हें दंगलों में लड़ाने के लिए यह आवश्यक होता है कि एक ही जगह रखकर लड़ाने की प्रैक्टिस न की जाए, वरना ये दूसरी जगह न लड़ेंगे। हारा हुआ बुलबुल मुंह घुमाकर बैठ जाता है, विजयी से नज़रे नहीं मिलाता।
इस तरह तरह-तरह के शौक हैं, शौकों के पीछे आदमी तबाह है और तबाही में लड़ाई की बात तो आ ही जाती है।

साभार-गद्य कोश 

दिल का हाल कहे दिलवाला ..श्वेत से श्याम की ओर .......

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स्वप्न मेरे 
और कुछ 
रंग ...ले कर 
बस यूं ही 
बतलाता हुआ  
मेरे अर्थ
दिल का हाल कहे दिलवाला
अपने स्पंदन में 
बिखेर कर 
कुछ  एंटी बायोटिक्स मुस्कुराहटें...
करते हुए 
मन  की कुछ बातें 
जिंदगी के इस खामोश सफर में  
श्वेत से श्याम की ओर .......
बढ़ता हुआ 
अपने विश्वास .......  की खिड़की से   
कहीं बाहर देखता हुआ 
पढ़ता हुआ 
कंप्यूटर स्क्रीन पर 
आज की हलचल 
बस यही गुनगुनाता है कि 
जिंदगी आ रहा हूँ मैं

--यशवन्त यश

पढ़ पढ़ के पढ़ाने वाले भी कभी पानी भर रहे होते हैं

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पढ़ पढ़ के पढ़ाने वाले भी कभी पानी भर रहे होते हैं
किसी की रसोई में
गाजर के ढोकलेबन रहे होते हैं  
अबला के जीवन की कहानीसुनाते हुए हम 
सिर्फ़ तेरे लिये .... 
ये पल...
 जी रहे होते हैं । 

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एक
सिंदूरी शाममें   
साहित्यिक गर्भ ज्ञान 
बतला दीजिये   
पूरी पीढ़ी का प्रेम 
दिखला दीजिये 

बृहस्पत की हलचल 
यूं पढ़ते हुए 
जाते हैं हम 
अब आज्ञा दीजिये :)

---यशवन्त यश 
  

स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से-गोपालदास "नीरज"

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स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई
पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई
चाह तो निकल सकी न पर उमर निकल गई

गीत अश्क बन गए छंद हो दफन गए
साथ के सभी दिऐ धुआँ पहन पहन गए
और हम झुके-झुके मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा
क्या जमाल था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ़ जमीन और आसमाँ उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा

एक दिन मगर यहाँ ऐसी कुछ हवा चली
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली
और हम लुटे-लुटे वक्त से पिटे-पिटे
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ
होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ

हो सका न कुछ मगर शाम बन गई सहर
वह उठी लहर कि ढह गये किले बिखर-बिखर
और हम डरे-डरे नीर नैन में भरे
ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

माँग भर चली कि एक जब नई-नई किरन
ढोलकें धुमुक उठीं ठुमक उठे चरन-चरन
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन चली दुल्हन
गाँव सब उमड़ पड़ा बहक उठे नयन-नयन

पर तभी ज़हर भरी गाज़ एक वह गिरी
पुँछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी
और हम अजान से दूर के मकान से
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

साभार-कविता कोश 

सबसे दूर खुद के कितने पास हूँ.....(Valentine special)

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सबसे दूर खुद के कितने पास हूँ..
प्रेम-प्रपंचके किस्सों में 
शाश्वत प्रेमकी आस हूँ 
दिल चाहता है
तोड़ दूँ वह प्रेम के पाँच नियम
और तुमसे प्यार करके
प्रेम के सही रूप को जान के  
मैं ही दानी औरमैं ही दान हूँ  
तुम पुकार लो  कि मैं 
यहीं कहीं आस पास हूँ। 

--यशवन्त यश 

[नोट-कत्थई रंग मेब्लॉग पोस्ट्स के लिंक्स हैं]

 
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