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प्रेम नाम का दरिया है ऐसा जिसको चाहा है ले डूबा है

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आओ आज कुछ ऐसा करें 
कि  इधर का इधर और उधर का उधर करें
नाम उम्र वल्दियत 
सब गलत
पहचान पत्र पर   
अग्निपरीक्षा दे कर 
इसको सही करें  .।

***** 

 प्रेम नाम का दरिया है ऐसा 
जिसको चाहा है ले डूबा है 
पहले ख्वाब और फुर्सत की हंसी शाम
फिर  तन्हाईका जादू अनूठा है 
गांव भीतर गांव 
कभी खुद में समेट कर  
जिंदगी का सफर 
कभी नहीं टूटा है। 

--यशवन्त यश 

रमन्ते तत्र देवता -अज्ञेय

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अक्टूबर सन् 1946 का कलकत्ता। तब हम लोग दंगे के आदी हो गए थे, अखबार में इक्के-दुक्के खून और लूटपाट की घटनाएं पढ़कर तन नहीं सिहरता था, इतने से यह भी नहीं लगता था कि शहर की शांति भंग हो गई। शहर बहुत से छोटे-छोटे हिन्दुस्तान-पाकिस्तानों में बंट गया था, जिनकी सीमाओं की रक्षा पहरेदार नहीं करते थे, लेकिन जो फिर भी परस्पर अनुल्लंध्य हो गए थे। लोग इसी बंटी हुई जीवन-प्रणाली को लेकर भी अपने दिन काट रहे थे, मान बैठे थे कि जैसे जुकाम होने पर एक नासिका बंद हो जाती है तो दूसरी से श्वांस लिया जाता है- तनिक कष्ट होता है तो क्या हुआ, कोई मर थोड़े ही जाता है? वैसे ही श्वांस की तरह नागरिक जीवन भी बंट गया तो क्या हुआ, एक नासिका ही नहीं, एक फेफड़ा भी बंद हो जा सकता है और उसकी सड़न का विष सारे शरीर में फैलता है और दूसरे फेफड़े को भी आक्रान्त कर लेता है, इतनी दूर तक रूपक को घसीट ले जाने की क्या जरूरत है।
बी च-बीच में इस या उस मुहल्ले में विस्फोट हो जाता था। तब थोड़ी देर के लिए उसके आसपास के मुहल्ले में जीवन स्थगित हो जाता था, व्यवस्था पटकी खा जाती थी और आतंक उसकी छाती पर चढ़ बैठता था। कभी दो-एक दिन के लिए भी गड़बड़ रहती थी, तब बात कानोंकान फैल जाती थी कि 'ओ पाड़ा भालो ना'और दूसरे मुहल्लों में लोग दो-चार दिन के लिए उधर आना-जाना छोड़ देते थे। उसके बाद ढर्रा फिर उभर आता था और गाड़ी चल पड़ती थी।
हठात् एक दिन कई मुहल्लों पर आतंक छा गया। ये वैसे मुहल्ले थे जिनमें हिन्दुस्तान-पाकिस्तानी की सीमाएं नहीं बांधी जा सकती थी क्योंकि प्याज की परतों की तरह एक के अंदर एक जमा हुआ था। इनमें वह होता था कि जब कहीं आसपास कोई गड़बड़ हो, या गड़बड़ की अफवाह हो, तो उसका उद्भव या कारण चाहे हिन्दू सुना जाय चाहे मुसलमान, सब लोग अपने-अपने किवाड़ बंद करके जहां के तहां रह जाते, बाहर गए हुए शाम को घर ना लौटकर बाहर ही कहीं रात काट देते, और दूसरे-तीसरे दिन तक घर के लोग यह न जान पाते कि गया हुआ व्यक्ति इच्छापूर्वक कहीं रह गया है या कहीं रास्ते में मारा गया है। मैं तब बालीगंज की तरफ रहता था। यहां शांति थी और शायद ही कभी भंग होती थी। सो खबरें सब यहां मिल जाती थीं, और कभी-कभी आगामी 'प्रोगामों'का कुछ पूर्वाभास भी। मंत्रणाएं यहां होती थीं, शरणार्थी यहां आते थे, सहानुभूति के इच्छुक आकर अपनी गाथाएं सुनाकर चले जाते थे।
आतंक का दूसरा दिन था। तीसरे पहर घर के सामने बरामदे में आराम कुर्सी पर पड़े-पड़े मैं आने-जाने वालों को देख रहा था। आने-जाने वाले यों भी अध्ययन की श्रेष्ठ सामग्री होते हैं, ऐसे आतंक के समय में तो और भी अधिक। तभी देखा मेरा पड़ोसी ही एक सिख सरदार साहब, अपने साथ तीन-चार और सिखों को लिए हुए घर की तरफ जा रहे है। ये अन्य सिख मैंने पहले इधर नहीं देखे थे- कौतूहल स्वाभाविक था और फिर आज अपने पड़ोसी को लंबी किरपान लगाए देखकर तो और भी अंचम्भा हुआ। सरदार बिशन सिंह सिख तो थे, पर बड़े संकोची, शांतिप्रिय और उदार विचारों के प्रतीक रूप से किरपान रखते रहे हो तो रहे हों, मैंने देखी नहीं थी और ऐसी उद्धत ढंग से कोट के ऊपर कमरबंद के साथ लटकाई हुई तो कभी नहीं।
मैंने कुछ पंजाबी लहजा बनाकर कहां, "सरदार जी, आ किद्धर फौजा चुन्नियां ने"
बिशनसिंह ने व्यस्त आंखों से मेरी ओर देखा। मानो कह रहे हो 'मैं जानता हूं कि तुम्हारे लहजे पर मुस्कुराकर तुम्हारा विनोद स्वीकार करना चाहिए पर देखते तो हो मैं फंसा हूं, स्वयं उन्होंने कहा, फिर हाजिर हो गया।'टोली आगे बढ़ गई।
जो लोग आरामकुर्सियों पर बैठकर आने-जानेवालों को देखा करते है, उन्हें एक तो देखने को बहुत कुछ नहीं मिलता है, दूसरे जो कुछ वे देखते है, उसके साथ उनका लगाव तो जरा भी होता नहीं कि वह मन में जम जाए। मैं भी सरदार बिशनसिंह को भूल-सा गया था जब रात को वे मेरे यहां आए। लेकिन अचंम्भे को दबाकर मैंने कुर्सी दी और कहा, आओ बैठो, बड़ी किरपा कीत्ती।
वे बैठ गए। थोड़ी देर चुप रहे। फिर बोले, अज जी बड़ा दुखी हो गया ए"
"मैंने पंजाबी छोड़कर गंभीर होकर कहा, क्या बात है सरदार जीखैर तो है। हूं दंगा और खून खराबा न हो तो कैसे न हो, जबकि हम रोज नई जगह उसकी जड़ें रोप आते है, फिर उन्हें सींचते है... मुझे तो अचंभा होता है, हमारी कौम बची कैसे रही अब तक।"
उनकी वाणी में दर्द था। मैंने समझा कि वे भूमिका में उसे बहा न लेंगे तो बात न कर पाएंगे, इसलिए चुप सुनता रहा। वे कहते गए, सारे मुसलमान अरब और फ्रांस और तातार से नहीं आए थे। सौ मैं एक होगा जिसको हम आज अरब या फ्रांस के तातार की नस्ल कह सके। और मेरा तो ख्याल है - ख्याल नहीं तजरूबा है कि अरब और ईरानी बड़ा नेक, मिलनसार और अमनपसंद होता है। तातारियों से साबिका नहीं पड़ा। बाकी सारे मुसलमान कौन है? हमारे भाई, हमारे मजलूम जिनका मुंह हम हजारों बरसों से मिट्टी में रंगड़ते आए है। वहीं, आज वही मुंह उठाकर हम पर थूकते है तो हमें बुरा लगता है। पर वे मुसलमान हैं, इसलिए हम खिसियाकर अपने और भाईयों को पकड़कर उनका मुंह मिट्टी में रगड़ते है। और भाईयों को ही क्यों, बहिनों को पैरों के नीचे रौंदते है, और चूं नहीं करने देते क्योंकि चूं करने से धरम नहीं रहता।"
आवेश में सरदार की जुबान लड़खड़ाने लगी थी। वे क्षण-भर चुप हो गए। फिर बोले, "बाबू साहब, आप साोचते होंगे यह सिख होकर मुसलमानों का पच्छ करता है। ठीक है, उनसे किसी का बैर हो सकता है तो हमारा हो। पर आप सोचिए तो, मुसलमान है कौन? मजलूम हिन्दू ही तो मुसलमान हैं। हमने जिससे हिकारते की, वह हमसे नफरत करे तो क्या बुरा करता है- हमारा कर्ज ही तो अदा करता है ना। मैं तो यह भी कहता हूं कि यह ठीक न भी हो, तो भी हम नुक्स निकालने वाले कौन होते है? इंसान को पहले अपना एैब देखना चाहिए, तभी वह दूसरे को कुछ कहने लायक बनता है। आप नहीं मानते।"
मैंने कहा, "ठीक कहते है आप। लेकिन इंसान आखिर इंसान है, देवता नहीं।"
उन्होंने उत्तेजित स्वर में कहा- "देवता। आप कहते है देवता? काश कि वह इंसान भी हो सकता। बल्कि वह खरा हैवान भी होता तो भी कुछ बात थी- हैवान भी अपने नियम-कायदे से चलता है। लेकिन बहस करने नहीं आया, आप आज की बात ही सुन लीजिए।"
मैंने कहा, आप कहिए। मैं सुन रहा हूं?"
"आप जानते हैं कि मेरे घर के पास गुरूद्वारा है। जहां जब तब कुछ लोगों ने पनाह पाई है, और जब-तब मैंने भी वहां पहरा दिया है। यह कोई तारीफ की बात नहीं, गुरूद्वारे की सेवा का भी एक ढर्रा है, पनाह देने की भी रीत चली आई है, इसलिए यह हो गया है। हम लोगों ने इनसानियत की कोई नई ईजाद नहीं की। खैर, कल मैं शाम बाजार से वापस आ रहा था तो देखा, रास्ते में अचानक मिनटों में सन्नाटा छाता जा रहा है। दो-एक ने मुझे भी पुकारकर कहा, घर जाओ, दंगा हो गया है। पर यह न बता पाए कि कहां। ट्राम तो बंद थी ही।"
"धरमतल्ले के पास मैंने देखा, एक औरत अकेली घबराई हुई आगे दौड़ती चली जा रही है, एक हाथ में एक छोटा बंडल है, दूसरे में जोर से एक छोटा मनीबेग दाबे है। रो रही है। देखने से भद्दरलोक की थी। मैंने सोचा, भटक गई है और डरी हुई है, यों भी ऐसे वक्त में अकेली जाना-और फिर बंगालिन का-ठीक नहीं, पूछकर पहुंचा दूं। मैंने पूछा- मां, तुम कहां जाओगी? पहले तो वह और सहमी, फिर देखकर कि मुसलमान नहीं सिख हूं, जरा संभली। मालूम हुआ कि उत्तरी कलकत्ता से उसका खाबिन्द और वह दोनों घरमतल्ले आए थे, तय हुआ था कि, दोनों अलग-अलग सामान खरीदकर के.सी. दास की दुकान पर नियत समय पर मिल जाएंगे और फिर घर जाएंगे। इसी बीच गड़बड़ हो गई, वह सन्नाटे से डरकर घर भागी जा रही है-दास की दुकान पर नहीं गई, रास्ते में चांदनी है जो उसने सदा सुना है कि मुसलमानों का गढ़ है।"
"मैंने उससे कहा कि डरे नहीं, मेरे साथ घरमतल्ले पार कर ले अगर के.सी. दास की दुकान पर उसका आदमी मिल गया तो ठीक, नहीं तो वहां से बालीगंज की ट्राम तो चलती होगी, उसमें जाकर गुरूद्वारे में रात रह जाएगी और सबेरे मैं उसे घर पहुंचा आऊंगा। दिन छिप चला था, बिजली सड़कों पर वैसे ही नहीं है, ऐसे में पांच-छह मील पैदल दंगे का इलाका पार करना ठीक नहीं है।इतना कहकर सरदार बिशनसिंह क्षण-भर रूके, और मेरी ओर देखकर बोले, बताइए, मैंने ठीक कहा है कि गलत? और मैं क्या कर सकता था।"
"ठीक ही तो कहा, और रास्ता ही क्या था?"
"मगर ठीक नहीं कहा। बाद में पता लगा कि मुझे उसे अकेली भटकने देना चाहिए था।"
"क्यों?"मैंने अचकचाकर पूछा।
"सुनिए।"सरदार ने एक लंबी सांस ली, "के०सी० दास की दुकान बंद थी। पतिदेवता का कोई निशाना नहीं था। मैं उस औरत को ट्राम में बिठाकर यहां ले आया। रात वह गुरूद्वारे के ऊपर वाले कमरे में रही। मैं तो अकेला हूं, आप जानते हैं, मेरी बहिन ने उसे वहीं ले जाकर खाना खिलाया और बिस्तरा बगैरा दे आई। सबेरे में मैंने एक सिख ड्राइवर से बात करके टैक्सी की, और ढूंढता हुआ उसके घर ले गया। श्याममुकुर लेन में या- एकदम उत्तर में। दरवाजा बंद था, हमने खटखटाया तो एक सुस्त-से महाशय बाहर निकले-पतिदेवता।"
"आप लोगों को देखते ही उछल पड़े होंगे?"
सरदार क्षण-भर चुप रहे।
"हां, उछल तो पड़े। लेकिन बहू को देखकर तो नहीं, मुझे देखकर।उन्होंने फिर एक लंबी सांस ली। महाशय के.सी. दास घर पर नहीं ठहरे थे, दंगे की खबर हुई तो कहीं एक दोस्त के यहां चले गए थे। रात वहीं रहे थे, हमसे कुछ पहले ही लौटकर आए थे। आंखें भरी थी। दरवाजा खोलकर मुझे देखकर चौंके, फिर मेरे पीछे स्त्री को देखकर तनिक ठिठके और खड़े-खड़े बोले, आप कौन? मैंने कहा, पहले इन्हें भीतर ले जाएं, फिर मैं बतलाता हूं। स्त्री पहले ही सकुची झुकी खड़ी थी, इस बात पर उसने घूघंट जरा आगे सरकाकर अपने को और भी समेट- सा लिया।
बिशनसिंह फिर जरा चुप रहे, मैं भी चुप रहा।
"पति ने फिर पूछा, ये रात आपके यहां रही? मैंने कहा, हां, हमारे गुरूद्वारे में रही। शाम को यहां आना मुमकिन नहीं था। उन्होंने फिर कहा आपके बीबी-बच्चे है। मैंने कहा, नहीं। मेरी विधवा बहिन साथ रहती है। पर इससे आप को क्या?"
"उन्होंने मुझे जवाब नहीं दिया। वहीं से स्त्री की ओर उन्मुख होकर बंगाली में पूछा, तुम रात को क्या जाने कहा रही हो, सबेरे तुम्हें यहां आते शरम न आई।सरदार बिशनसिंह ने रूककर मेरी ओर देखा।"
"मैंने कहा-नीच।"
बिशनसिंह के चेहरे पर दर्द-भरी मुस्कान झझककर खो गई बोलें, क्यों न जाने क्या करता उस आदमी को-और सोचता हूं कि स्त्री भी न जाने क्या जवाब देती। लेकिन औरत ाात का जवाब न देना भी कितना बड़ा जवाब होता है, इसको आजकल का कीड़ा इनसान क्या समझता है? मैंने पीछे धमाका सुनकर मुड़कर देखा, वह औरत गिर गई थी-बेहोश होकर। मैं ंफौरन उठाने को झुका, पर उस आदमी ने ऐसा तमाचा मारा था कि मेरे हाथ ठिठक गए। मैंने उसी से कहा, उठाओ, पानी का छींटा दो... पर वह सरका नहीं, फिर उसकी ढबर-ढबर आंखें छोटी होकर लकीरें-सी बन गई, और एकाएक उसने दरवाजा बन्द कर लिया।
मैं स्तब्ध सुनता रहा। कुछ कहने को न मिला।
"लोग इकट्ठे होने लगे थे। मैं उस स्त्री की बात सोचकर यादा भीड़ करना भी नहीं चाहता था। ड्राइवर की मदद् से मैंने उसे टैक्सी में रखा और घर ले आया। बहिन को उसकी देखभाल करने को कहके बाबा बचित्तर सिंह के पास गया- वे हमारे बुजुर्ग हैं और गुरूद्वारे के ट्रस्टी वहीं हम लोगों ने मीटिंग करके सलाह की कि क्या किया जाए। कुछ का तो राय थी कि उस आदमी को कत्ल कर देना चाहिए। पर उससे उसकी विधवा का मसला तो हल न होता। फिर यही सोचा गया कि पांच सरदारों का जत्था गुरूद्वारे की तरंफ से उस औरत को उसके घर लेकर जाए और उसके आदमी से कहे कि या तो इसको अपनाकर घर में रखो या हम समझेंगे कि तुमने गुरूद्वारे की बेइाती की है और तुम्हें काट डालेंगे।"
"आप शायद कल तीसरे पहर वहीं से लौट रहे होंगे..."
"हां। नहीं तो आप जानते हैं मैं वैसे किरपान नहीं बांधता। एक ामाने में जिन वजूहात से गुरूओं ने किरपान बांधना धर्म बताया था, आज उनके लिए राइंफल से कम कोई क्या बांधेगा? निरी निशानी का मोह अपनी बुजदिलों को छिपाने का तरीका बन जाता है, और क्या ंखैर, हम लोग औरत को लेकर गए। हमें देखते ही पहले तो और भी कइ्र लोग जुट गए, पर जत्थे को देखकर शायद पति देवता को अकल आ गई, उन्होंने हमसे कहा, अच्छा ठीक है, आप लोगों की मेहरबानी, और औरत से कहा, चल भीतर चल बस । हमें आने या बैठने को नहीं कहा...हम बैठते तो क्या उस कमीने के घर में ..."
"औरत भीतर चली गई? कुछ बोली नहीं?"
"बोलती क्या? जब से होश आया तब से बोली नहीं थी। उसकी आंखे न जाने कैसी हो गई थी, उसमें झांककर भी कोई जैसे कुछ नहीं देखता था, सिर्फ एक दीवार। मुझसे तो उनके पास नहीं ठहरा जाता था। वह चुप-चाप खड़ी रही। जब हम लोगों ने कहा, आओ मां, घर में जाओ अब... तब जैसे मशीन-सी दो-तीन कदम आगे बढ़ी। पति के फैलते-सिकुड़ते नयनों की ओर उसने देखा, एक-एक पर जैसे और झुकती और छोटी होती जाती थी। देहरी तक ही तक ही गई, फिर वहीं लड़खड़ाकर बैठ गई। मैं तो समझा था फिर गिरी, पर बैठते-बैठते उसका सिर चौखट से टकराया तो चोट से वह संभल गई। बैठ गई। उसे वैसे ही छोड़कर हम चले आए।
हम दोनों देर तक चुप रहे।
थोड़ी देर बाद सरदार बिशनसिंह ने कहा, बोलिए कुछ, भाई साहब?
मैंने कहा चलिए, बात खत्म हो गई जैसे-तैसे। उन्होंने उसे घर में ले लिया...
बिशनसिंह ने तीखी दृष्टि से मेरी तरंफ देखा। आप सच-सच कह रहे हैं बाबू साहब?
मैंने चौंककर कहा, क्यों? झूठ क्या है?
"आप सचमुच मानते हैं कि बात खत्म हो गई ?
मैंने कुछ रूकते-रूकते कहा, नहीं, वैसा तो नहीं मान पाता। यानी हमारे लिए भले ही खत्म हो गई हो, उनके लिए तो नहीं हुई।
"हमारे लिए भी क्या हुई? पर उसे अभी छोड़िए, बताइए कि उस औरत का क्या होगा ? मैंने अपने शब्द तौलते हुए कहा, बंगाल में आए दिन अखबारों में पढ़ने को मिलता है कि स्त्री ने सास या ननद या पति के अत्याचार से दुखी होकर आत्महत्या कर ली, ज़हर खा लिया या कुएं में कूद पड़ी। और ... कभी-कभी ऐसे एक्सीडेंट भी होते है कि स्त्री के कपड़ों में आग लग गई, चाहे वों हो, चाहे मिट्टी के तेल के साथ...
"हाँ, हो सकता है। आप माफ करना, मैं कड़वी बात कहनेवाला हूं। इसने अगर आपको कुछ तसल्ली हो तो कहूं कि अपने को हिन्दू मानकर ही यह कहा रहा हूं। आप हिन्दू हैं न, इसलिए यही सोचते हैं। वह मर जाएगी, छुटकारा हो जाएगा। हिन्दू धर्म उदार है न, मारता नहीं, मरने का सब तरह से सुभीता कर देता है। इसमें दी फ्रायदे हैं- एक तो कभी चूक नहीं होती, दूसरे यह तरीका दया का भी है। लेकिन यह बताइए, अगर आदमी पशु हैं तो औरत क्यों देवता हो ? देवता मैं जान-बूझकर कहता हूं, क्योंकि इनसान का इन्साफ तो देवताओं से भी ऊंचा उठ सकता है। देवता सूद न ले, धेले-पाई की वसूली पूरी करते हैं। ... करते हैं कि नहीं?
मैंने कहा, "सरदार साहब, आपको सदमा पहुंचा है इसलिए आप इतनी कड़वी बात कर रहे हैं। मैं उस आदमी को अच्छा नहीं कहता, पर एक आदमी की बात को आप हिन्दू जाति पर क्यों धोपते हैं?
"क्या वह सचमुच एक आदमी की बात है? सुनिए, मैं जब सोचता हूं कि क्या हो तो उस आदमी के साथ इन्सांफ हो, तब यही देखता हूं कि वह औरत घर से दुतकारी जाकर मुसलमान हो, मुसलमान जने, ऐसे मुसलमान जो एक-एक सौ-सौ हिन्दुओं को मारने की कसम खाए। और आप तो साइकोलाजी पढ़े हैं न, आप समझगे-हिन्दू औरतों के साथ सचमुच वहीं करे जिसकी झूठी तोहमत उसकी माँ पर लगाई गई। देवताओं का इन्साफ तो हमेशा से यही चला आया है- नंफरत के एक-एक बीज से हमेशा सौ-सौ जहरीले पौधे उगे हैं। नहीं तो यह जंगल यहां उगा कैसे, जिसमें आज हम-आप हो गए हैं और क्या जाने अभी निकलेंगे कि नहीं ? हम रोज दिन में कई बार नंफरत का नया बीज बोते हैं और जब पौधा फलता है तो चीखते हैं कि धरती ने हमारे साथ धोखा किया।
मैं कांफी देर तक चुप रहा। सरदार बिशनसिंह की बात चमड़ी के नीचे कंकड़-सी रगड़ने लगी। वातावरण बोझीला हो गया। मैंने उसे कुछ हल्का करने के लिए कहा, "सिख कौम की शिवेलरी मशहूर है। देखता हूँ, उस बिचारी का दख आपकी शिवेलरी को छू गया है।"
उन्होंने उठते हुए कहा, "मेरी शिवेलरी।"और थोड़ी देर बाद फिर ऐसे स्वर में, जिसमें एक अजीब गूँज थी, "मेरी शिवेलरी, भाई साहब।"
उन्होंने मुँह फेर लिया, लेकिन मैंने देखा, उनके होंठों की कोर काँप रही है-हल्की-सी लेकिन बड़ी बेवसी के साथ...।

साभार : गद्य कोश 

देखो-सोचो-समझो - भगवतीचरण वर्मा

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देखो, सोचो, समझो, सुनो, गुनो औ'जानो
इसको, उसको, सम्भव हो निज को पहचानो
लेकिन अपना चेहरा जैसा है रहने दो,
जीवन की धारा में अपने को बहने दो

तुम जो कुछ हो वही रहोगे, मेरी मानो ।

वैसे तुम चेतन हो, तुम प्रबुद्ध ज्ञानी हो
तुम समर्थ, तुम कर्ता, अतिशय अभिमानी हो
लेकिन अचरज इतना, तुम कितने भोले हो
ऊपर से ठोस दिखो, अन्दर से पोले हो

बन कर मिट जाने की एक तुम कहानी हो ।

पल में रो देते हो, पल में हँस पड़ते हो,
अपने में रमकर तुम अपने से लड़ते हो
पर यह सब तुम करते - इस पर मुझको शक है,
दर्शन, मीमांसा - यह फुरसत की बकझक है,

जमने की कोशिश में रोज़ तुम उखड़ते हो ।

थोड़ी-सी घुटन और थोड़ी रंगीनी में,
चुटकी भर मिरचे में, मुट्ठी भर चीनी में,
ज़िन्दगी तुम्हारी सीमित है, इतना सच है,
इससे जो कुछ ज्यादा, वह सब तो लालच है

दोस्त उम्र कटने दो इस तमाशबीनी में ।

धोखा है प्रेम-बैर, इसको तुम मत ठानो
कडु‌आ या मीठा ,रस तो है छक कर छानो,
चलने का अन्त नहीं, दिशा-ज्ञान कच्चा है
भ्रमने का मारग ही सीधा है, सच्चा है

जब-जब थक कर उलझो, तब-तब लम्बी तानो ।

साभार : कविता कोश 

कैसा दिखता होगा चाँद वहाँ से...

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मेरी मंजिल यही,..
जहाँ प्रकृति मेरे कैनवास पर
दिखाती है 
उफक में उगते सूरज के मंज़र
फिर भी 
जिंदगी की हार जीत के 
कई  दाँव......लगा कर  
यही सोचता हूँ कि  
कैसा दिखता होगा चाँद वहाँ से... 
जहां तेरे मेरे सपने 
सब एक रंग हैं।  

--यशवन्त यश 
     

अजब अंग्रेजी की गजब कहानी

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 अपनी 
अधूरी दास्ताँलिए  
गम की हाला का नवगीत 
परेशान है  
दिल के उपवन  में 
 डी.जे. की धुन पर थिरकती 
अजब अंग्रेजी की गजब कहानी
देख कर   
फिर भी यहाँ 
बस एक  तुम्ही तो हो... 
जो गाते हो 
मौसम की आशिक़ी का तराना 
हर रोज़। 

-यशवन्त यश
 

    

दृष्टान्त - हरिऔध

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है जिन्हें सूझ, जोड़ से ही, वे।
भिड़ सके लाग डाँट साथ बड़ी।
भूल कर भी लड़ी न भौंहों से।
जब लड़ी आँख साथ आँख लड़ी।

देख कर रंग जाति का बदला।
जाति का रंग है बदल जाता।
देख आँखें हुईं लहू जैसी।
आँख में है लहू उतर आता।

देख दुख से अधीर संगी को।
है जनमसंगिनी लटी पड़ती।
दाढ़ है दाँत के दुखे दुखती।
सिर दुखे आँख है फटी पड़ती।

तब भलाई भूल जाती क्यों नहीं।
जब सचाई ही नहीं भाती रही।
जोत तब कैसे चली जाती नहीं।
जब किसी की आँख ही जाती रही।

कौन आला नाम रख आला बना।
है जहाँ गुन, है निरालापन वहीं।
साँझ फूली या कली फूली फबी।
आँख की फूली फबी फूली नहीं।

एक से जो दिखा पड़े, उनका।
एक ही ढंग है न दिखलाता।
है कमल फूलना भला लगता।
आँख का फूलना नहीं भाता।

काम क्या अंजाम देगा दूसरा।
जब नहीं सकते हमीं अंजाम दे।
दे सकेगा काम सूरज भी तभी।
जब कि अपनी आँख का तिल कामदे।

पड़ बुरों में संगतें पाकर बुरी।
सूझ वाला कब बुराई में फँसा।
देख लो काली पुतलियों में बसे।
आँख के तिल में न कालापन बसा।

तब भला मैली कुचैली औरतें।
क्यों न पायेंगी निराले पूत जन।
आँख की काली कलूटी पुतलियाँ।
जब जनें तिल सा बड़ा न्यारा रतन।

फूट पड़ता है उजाला भी वहाँ।
घोर अँधियाली जहाँ छाई रही।
जगमगा काली पुतलियों में हमें।
जोत वाले तिल जताते हैं यही।

सूझ वाले एक दो ही मिल सके।
और सब अंधे मिले हम को यहाँ।
देखने को देह में तिल हैं न कम।
आँख के तिल से मगर तिल हैं कहाँ।

वह कभी खींच तान में न पड़ा।
है जिसे आन बान की न पड़ी।
मोतियों से बनी लड़ी से कब।
आँसुओं की लड़ी लड़ी झगड़ी।

बीरपन से तन गयों के सामने।
कब जुलाहे जन सके ताना तने।
सूर कहला ले, मगर क्यों सूरमा।
सूरमापन के बिना अंधा बने।

भेख सच्चा दिख पड़ा न हमें।
देख पाये जहाँ तहाँ भेखी।
फूल कब पा सके किसी से हम।
नाक फूली हुई बहुत देखी।

वे सभी क्यारियाँ निराली हैं।
बेलियाँ हैं जहाँ अजीब खिली।
कब सकीें बोल बोलियाँ न्यारी।
बोलती नाक कम हमें न मिली।

जिस जगह पर लगें भले लगने।
चाहिए हम वहीं उमग अटकें।
हैं कहीं पर अगर लटक जाना।
तो लटें गाल पर न क्यों लटकें।

लोग कैसे उलझ सकेंगे तब।
जब हमारी निगाह हो सुलझी।
बान होते हुए है उलझने की।
लट कभी गाल से नहीं उलझी।

है लुनाई फिसल रही जिस पर।
है उसे कम क्या कि कुछ पहने।
गोल सुथरे सुडौल गालों के।
बन गये रूप रंग ही गहने।

कुछ बड़ों से हो न, पर कितनी जगह।
काम करता है बड़ों का मेल ही।
पत बचाती है उसी की चिकनई।
गाल का तिल क्यों न हों बेतेल ही।

सब जगह बात रह नहीं सकती।
बात का बाँधा दें भले ही पुल।
हम रहें क्यों न गुलगुले खाते।
रह सका गाल कब सदा गुलगुल।

जो कि सुख के बने रहे कीड़े।
वे पडे देख दुख उठाते भी।
जो उठें तो उठें सँभल करके।
हैं उठे गाल बैठे जाते भी।

खोजने से भले नहीं मिलते
पर बुरों के सुने कहाँ न गिले।
मिल गये बार बार बू वाले।
मुँह महकते हमें कहीं न मिले।

लत बुरी छूटती नहीं छोड़े।
क्यों न दुख के पड़े रहें पाले।
पान का चाबना कहाँ छूटा।
मुँह छिले और पड़ गये छाले।

जो उन्हें गुन का सहारा मिल सके।
बात तो कब गढ़ नहीं लेते गुनी।
देख तो पाई नहीं पर बारहा।
बात 'बूढ़े मुँह मुँहासे'की सुनी।

दुख मिले चाहे किसी को सुख मिले।
है सभी पाता सदा अपना किया।
आप ही तो वह अँधेरे में पड़ा।
जो किसी मुँह ने बुझा दीया दिया।

जो भरोसे न भाग के सोये।
देव उन से फिरा नहीं फिर कर।
जो रखें जान गिर उठें वे ही।
कब भला दाँत उठ सका गिर कर।

हैं दुखी दीन को सताते सब।
हो न पाई कभी निगहबानी।
लग सका और दाँत में न कभी।
हिल गये दाँत में लगा पानी।

नटखटों से बचे रहें कब तक।
जब उन्हें छोड़ नटखटी न हटी।
क्या हुआ बार बार बच बच कर।
कब भला दाँत से न जीभ कटी।

क्यों किसी बेगुनाह को दुख दें।
छूट क्यों जाँय कर गुनाह सगे।
और के हाथ में लगे तब क्यों।
जब बुरी जीभ में न दाँत लगे।

जो बड़प्पन है न तो कैसे बड़ा।
बन सके कोई बड़ाई पा बड़ी।
देख लो कवि के बनाने से कहाँ।
दाँत की पाँती बनी मोती-लड़ी।

सैकड़ों नेकियाँ किये पर भी।
नीच है ढा बिपत्ति कल लेता।
जीभ है दाँत की टहल करती।
दाँत है जीभ को कुचल देता।

कर सकेंगे हित बने उतना न हित।
कर सकेगा हित सदा जितना सगा।
दे सकेंगे सुख न असली दाँत सा।
देख लो तुम दाँत चाँदी के लगा।

है बुरी लत का लगाना ही बुरा।
बन हठीली क्यों न वह हठ ठानती।
हम अमी भर भर कटोरी नित पियें।
पर चटोरी जीभ कब है मानती।

नित बुराई बुरे रहें करते।
पर भली कब भला रही न भली।
दाँत चाहे चुभें, गड़ें, कुचलें।
पर गले दाँत जीभ कब न गली।

सग दुखों से सगा दुखी होगा।
जल ढलेगा जगह मिले ढालू।
प्यास से जब कि सूखता है मुँह।
जायगा सूख तब न क्यों तालू।

हित करेंगे जिन्हें कि हित भाया।
लोग चाहे बने रहें रूखे।
जीभ क्यों चाट चाट तर न करे।
लब तनिक भी अगर कभी सूखे।

जो भले हैं भला करेंगे ही।
कुछ किसी से कभी बने न बने।
तर किया कब न जीभ ने लब को।
क्या किया जीभ के लिए लब ने।

बस नहीं जिस बात में ही चल सका।
हो गई उस बात में ही बेबसी।
क्यों न भूखा भूख के पाले पड़े।
क्यों न सूखा मुँह हँसे सूखी हँसी।

कर सकेंगी संगतें कैसे असर।
सब तरह की रंगतें जब हों सधी।
लाल कब लब की ललाई से हुई।
कब हँसी उस की मिठाई से बँधी।

बाढ़ परवाह ही नहीं करती।
क्यों न उस पर बिपत्ति हो ढहती।
हम मुड़ा लाख बार दें लेकिन।
मूँछ निकले बिना नहीं रहती।

है सभी खीज खीज जाते तब।
रंज जब जान बूझ हैं देते।
बीसियों बार मनचले लड़के।
मूँछ तो नोच नोच हैं लेते।

हो सके काम जो समय पर ही।
हो सका वह न ठान ठाने से।
पाँव लेवें जमा भले ही हम।
मूँछ जमती नहीं जमाने से।

पट सके, या पट न औरों से सके।
पर कहीं नटखटभला है बन गया।
पड़ सके या पड़ सके पूरी नहीं।
मूँछ भूरी का न भूरापन गया।

कब भलाई से भलाई ही हुई।
सादगी से बात सारी कब सधी।
साध रह जाती सिधाई की नहीं।
देख सीधी दाढ़ियों को भी बँधी।

बाहरी रूप रंग भावों ने।
भीतरी बात है बहुत काढ़ी।
खुल भला क्यों न जाय सीधापन।
देख सीधी खुली हुई दाढ़ी।

गुन तभी पा सके निरालापन।
जब गुनी जन बुरे नहीं होते।
सुर तभी हैं कमाल दिखलाते।
जब गले बेसुरे नहीं होते।

है किसी में अगर नहीं जौहर।
बीर तो वह बना न कर हीले।
सूरमापन कभी नहीं पाता।
काट सूरन गला भले ही ले।

जो बना जैसा बना वैसा रहा।
बन सका कोई बनाने से नहीं।
चितवनें तिरछी सदा तिरछी मिलीं।
गरदनें ऐंठी सदा ऐंठी रहीं।

सब पढ़े पा सके न पूरा ज्ञान।
हैं बहुत से पढ़े लिखे भी लंठ।
सुर सबों में दिखा सका न कमाल।
कम न देखे गये सुरीले कंठ।

सब दयावान ही नहीं होते।
औ सभी हो सके कभी न भले।
सैकड़ों ही कठोर हाथों से।
फूल से कंठ पर कुठार चले।

बात मुँह से तब निकल कैसे सके।
जब सती का हाथ लोहू में सने।
फूट पाये कंठ तब कैसे भला।
कंठ-माला कंठमाला जब बने।

क्यों हुनर दिखला न मन को मोह लें।
दूसरों के रूप गुन पर क्यों जलें।
कोयले से रंग पर ही मस्त रह।
हैं निराला राग गातीं कोयलें।

पा सहारा जाति के ही पाँव का।
जाति का है पाँव जम कर बैठता।
जाति ही है जाति की जड़ खोदती।
हाथ ही है हाथ को तो ऐंठता।

ढंग से बचते बचाते ही रहें।
बे-बचाये कीन बच पाया कहीं।
जो बचावों को नहीं है जानता।
ब्योंचने से हाथ वह बचता नहीं।

कौन बैरी हितू किसी का है।
है समय काम सब करा लेता।
तरबतर तेल से किया जिसने।
है वही हाथ सर कतर देता।

कर सकी न बुरा बुरी संगति उसे।
दैव दे देता जिसे है बरतरी।
बाँह बदबूदार होती ही नहीं।
क्यों न होवे काँख बदबू से भरी।

नेक तो नेकियाँ करेंगे ही।
क्यों बिपद पर बिपद न हो आती।
क्या नहीं पाक दूध देती है।
पीप से भर गई पकी छाती।

है बुरी रुचि ही बना देती बुरा।
क्यों सहें लुचपन भली रुचि-थातियाँ।
लाड़ दिखला दूध पीने के समय।
क्या नहीं लड़के पकड़ते छातियाँ।

भेद कुछ छोटे बड़े में है नहीं।
बान पर-हित की अगर होवे पड़ी।
थातियाँ हित की बनी सब दिन रहीं।
हों भले ही छातियाँ छोटी बड़ी।

दैव की करतूत ही करतूत है।
कब मिटाये अंक माथे के मिटे।
आज तक तो एक भी छाती नहीं।
हो सकी चौड़ी हथौड़ी के पिटे।

दुख न सब को सका समान सता।
मिस गये फूल लौं सभी न मिसे।
वह दिया जाय पीस कितना ही।
पाँव बनता नहीं पिसान पिसे।

पीसते लोग हैं निबल को ही।
गो सबल बार बार खलते हैं।
जब गये फूल ही गये मसले।
संग को पाँव कब मसलते हैं।

नीच से नीच क्यों न हो कोई।
है न ऊँचे टहल-समय टलते।
पाँव जब दुख रहे हमारे हों।
हाथ तब क्या उन्हें नहीं मलते।

ऐंठ में डूब जो बहुत बहका।
क्यों न उस पर भला बिपद पड़ती।
जब गई फूल औ चली इतरा।
किस लिए तब न पंखड़ी झड़ती।

साभार-कविता कोश 

किनारे कि तलाश में...

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सिर्फ तुम्हारे लिए 
मैं नहीं हूँ  
अवसादमना,
किनारे कि तलाश में...
शेखचिल्ली की कहानी
सुनते हुए 
मुझे पता है
अपने जन्मदिन पर
उसे क्या चाहिए  

इसलिए 
मैं दे रहा हूँ 
चमन मे खिलते 
गुलों की खुशबू।  

-यशवन्त यश 







 

पुस्तकों का मेला और फि‍रौती वाले प्रकाशक

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ये ज़िन्दगी का सफर... 
तय करते हुए  
सुनो और पढ़ो
गहरा  मर्म लिए हुए
कुछ  क्षणिकाएँ   
फि‍रौती वाले प्रकाशकसे   
बात की बातकरते हुए   
देखते हुए पुस्तकों का मेला  
महसूस करो 
सूरज का जलते रहना। 

--यशवन्त यश  

जीवन की ही जय हो - मैथिलीशरण गुप्त

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मृषा मृत्यु का भय है
जीवन की ही जय है ।

जीव की जड़ जमा रहा है
नित नव वैभव कमा रहा है
यह आत्मा अक्षय है
जीवन की ही जय है।

नया जन्म ही जग पाता है
मरण मूढ़-सा रह जाता है
एक बीज सौ उपजाता है
सृष्टा बड़ा सदय है
जीवन की ही जय है।

जीवन पर सौ बार मरूँ मैं
क्या इस धन को गाड़ धरूँ मैं
यदि न उचित उपयोग करूँ मैं
तो फिर महाप्रलय है
जीवन की ही जय है।

साभार-कविता कोश 

आलस्य-भक्त - गुलाब राय

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अजगर करै न चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम ।।
प्रिय ठलुआ-वृंद! यद्यपि हमारी सभा समता के पहियों पर चल रही है और देवताओं की भांति हममें कोई छोटा-बड़ा नहीं है, तथापि आप लोगों ने मुझे इस सभा का पति बनाकर मेरे कुंआरेपन के कलंक को दूर किया है। नृपति और सेनापति होना मेरे स्‍वप्‍न से भी बाहर था। नृपति नहीं तो नारी-पति होना प्रत्‍येक मनुष्‍य की पहुंच के भीतर है, किंतु मुझ-ऐसे आलस्‍य-भक्‍त के लिए विवाह में पाणिग्रहण तक का तो भार सहना गम्‍य था। उसके आगे सात बार अग्नि की परिक्रमा करना जान पर खेलने से कम न था। जान पर खेल कर जान का जंजाल खरीदना मूर्खता ही है - 'अल्‍पस्‍य हेतोर्बहु हातुमिच्‍छन्, विचारमूढ: प्रतिभासि मे त्‍वम्'का कथन मेरे ऊपर लागू हो जाता। 'ब्‍याहा भला कि क्‍वांरा' - वाली समस्‍या ने मुझे अनेक रात्रि निद्रा देवी के आलिंगन से वंचित रखा था, किंतु जब से मुझे सभापतित्‍व का पद प्राप्‍त हुआ है, तब से यह समस्‍या हल हो गई है। आलसी के लिए इतना ही आराम बहुत है। यद्यपि मेरे सभापति होने की योग्‍यता में तो आप लोगों को संदेह करने के लिए कोई स्‍थान नहीं है, तथापि आप लोगों को अपने सिद्धांतों को बतला अपनी योग्‍यता का परिचय देना अनुचित न होगा।
वैसे तो आलसी के लिए इतने वर्णन का भी कष्‍ट उठाना उसके धर्म के विरुद्ध है, किंतु आलस्‍य के सिद्धांतों का प्रचार किए बिना संसार की विशेष हानि होगी और मेरे भी पेट में बातों के अजीर्ण होने की संभावना है। इस अजीर्ण-जन्‍य कष्‍ट के भय से मैंने अपनी जिह्वा को कष्‍ट देने का साहस किया है।
मनुष्‍य-शरीर आलस्‍य के लिए ही बना है। यदि ऐसा न होता, तो मानव-शिशु भी जन्‍म से मृग-शावक की भांति छलांगें मारने लगता, किंतु प्रकृति की शिक्षा को कौन मानता है। नई-नई आवश्‍यकताओं को बढ़ाकर मनुष्‍य ने अपना जीवन अस्‍वाभाविक बना लिया है। मनुष्‍य ही को ईश्‍वर ने पूर्ण आराम के लिए बनाया है। उसी की पीठ खाट के उपयुक्‍त चौड़ी बनाई है, जो ठीक उसी से मिल जावे। प्राय: अन्‍य सब जीवधारी पेट के बल आराम करते हैं। मनुष्‍य चाहे पेट की सीमा से भी अधिक भोजन कर ले, उसके आराम के अर्थ पीठ मौजूद है। ईश्‍वर ने तो हमारे आराम की पहले ही से व्‍यवस्‍था कर दी है। हम ही उसका पूर्ण उपयोग नहीं कर रहे हैं।
निद्रा का सुख समाधि-सुख से अधिक है, किंतु लोग उस सुख को अनुभूत करने में बाधा डाला करते हैं। कहते हैं कि सवेरे उठा करो, क्‍योंकि चिडियां और जानवर सवेरे उठते हैं; किंतु यह नहीं जानते कि वे तो जानवर हैं और हम मनुष्‍य हैं। क्‍या हमारी इतनी भी विशेषता नहीं कि सुख की नींद सो सकें! कहां शय्या का स्‍वर्गीय सुख और कहां बाहर की धूप और हवा का असह्य कष्‍ट! इस बात के ऊपर निर्दयी जगाने वाले तनिक भी ध्‍यान नहीं देते। यदि उनके भाग्‍य में सोना नहीं लिखा है, तो क्‍या सब मनुष्‍यों का एक-सा ही भाग्‍य है! सोने के लिए लोग तरसा करते हैं और सहस्रों रुपया डॉक्‍टरों और दवाइयों में व्‍यय कर डालते हैं और यह अवैतनिक उपदेशक लोग स्‍वाभाविक निद्रा को आलस्‍य और दरिद्रता की निशानी बतलाते हैं। ठीक ही कहा है - 'आए नाग न पूजिए बामी पूजन जाएं।'लोग यह समझते हैं कि हम आलसियों से संसार का कुछ भी उपकार नहीं होता। मैं यह कहता हूं कि यदि मनुष्‍य में आलस्‍य न होता, तो वह कदापि उन्‍नति न करता और जानवरों की भांति संसार में वृक्षों के तले अपना जीवन व्‍यतीत करता। आलस्‍य के कारण मनुष्‍य को गाड़ियों की आवश्‍यकता पड़ी। यदि गाड़ियां न बनतीं, तो आजकल वाष्‍प-यान और वायुयान का भी नाम न होता। आलस्‍य के ही कारण मनुष्‍य को तार और टेलीफोन का आविष्‍कार करने की आवश्‍यकता हुई। अंग्रेजी में एक उक्ति ऐसी है कि Necessity is the mother of invention अर्थात आवश्‍यकता आविष्‍कार की जननी है, किंतु वे लोग यह नहीं जानते कि आवश्‍यकता आलस्‍य की आत्‍मजा है। आलस्‍य में ही आवश्‍यकताओं का उदय होता है। यदि आप स्‍वयं जाकर अपने मित्रों से बातचीत कर आवें, तो टेलीफोन की क्‍या आवश्‍यकता थी? यदि मनुष्‍य हाथ से काम करने का आलस्‍य न करता, तो मशीन को भला कौन पूछता? यदि हम आलसी लोगों के हृदय की आंतरिक इच्‍छा का मारकोनी साहब को पता चल गया, तो शीघ्र ही ऐसे यंत्र का आविष्‍कार जो जावेगा, जिसके द्वारा हमारे विचार पत्र पर स्‍वत: अंकित हो जाया करेंगे। फिर हम लोग बोलने के कष्‍ट से भी बच जावेंगे। विचार की तरंगों को तो वैज्ञानिक लोगों ने सिद्ध कर ही दिया है। अब कागज पर उनका प्रभाव डालना रह गया। दुनिया के बड़े-बड़े आविष्‍कार आलस्‍य और ठलुआ-पंथी में ही हुए हैं। वाट साहब ने (जिन्‍होंने कि वाष्‍प शक्ति का आविष्‍कार किया है) अपने ज्ञान को एक ठलुआ बालक की स्थिति से ही प्राप्‍त किया था। न्‍यूटन ने भी अपना गुरुत्‍वाकर्षण का सिद्धांत बेकारी में ही पाया था। दुनिया में बहुत बड़ी-बड़ी कल्‍पनाएं उन्‍हीं लोगों ने की हैं, जिन्‍होंने चारपाई पर पड़े-पड़े ही जीवन का लक्ष्‍य पूर्ण किया है। अस्‍तु, संसार को लाभ हो या हानि हो, इससे हमको प्रयोजन ही क्‍या? यह तो सांसारिक लोगों के संतोष के लिए हमने कह दिया, नहीं तो हमको अपने सुख से काम है। यदि हम सुखी हैं, तो संसार सुखी है। ठीक ही कहा है कि 'आप सुखी, तो जग सुखी।'सुख का पूरा-पूरा आदर्श वेदांत में बतलाया है। उस सुख के आदर्श में पलक मारने का भी कष्‍ट उठाना महान पाप है। अष्‍टावक्र गीता में कहा है-
व्‍यापारे खिद्यते यस्‍तु निमेषोन्‍मेषयोरपि;
तस्‍यालस्‍यधुरीणस्‍य सुख नान्‍यस्‍य कस्‍यचित्।
(षोडश प्रकरण, श्‍लोक 4)
अर्थात जो पुरुष नेत्रों के निमेष-उन्‍मेष के व्‍यापार (नेत्रों के खोलने-मूंदने) में ही परिश्रम मानकर दु:खित होता है, इस परम आलसी एवं ऐसे निष्क्रिय पुरुष को ही परम सुख मिलता है, अन्‍य किसी को नहीं।
लोग कहते हैं कि ऐसे ही आलस्‍य के सिद्धांतों ने भारतवर्ष का नाश कर दिया है। परंतु वे यह नहीं जानते कि भारतवर्ष का नाश इसलिए नहीं हुआ कि कि वह आलसी है वरन इसलिए कि अन्‍य देशों में इस आलस्‍य के स्‍वर्ण-सिद्धांत का प्रचार नहीं हो पाया है। यदि उन देशों को भी भारत की यह शिक्षा-दीक्षा मिल गई होती, तो वे शय्या-जन्‍य नैसर्गिक सुख को त्‍याग यहां आने का कष्‍ट न उठाते। यदि बिना हाथ-पैर चलाए लेटे रहने में सुख मिल सकता है, तो कष्‍ट उठाने की आवश्‍यकता ही क्‍या? बेचारे अर्जुन ने ठीक ही कहा था कि युद्ध द्वारा रक्‍त-रंजित राज्‍य को प्राप्‍त करके मैं अश्रेय का भागी बनना नहीं चाहता। वे वास्‍तव में आराम से घर बैठना चाहते थे, किंतु वह भी कृष्‍णजी के बढ़ावे में आ गए और 'यशो लभस्‍व'के आगे उनकी कुछ भी न चल सकी। फिर फल क्‍या हुआ कि सारे वंश का नाश हो गया। इस युद्ध का कृष्‍ण भगवान को भी अच्‍छा फल मिल गया। उनका वंश भी पहले की लड़ाई में नष्‍ट हो गया।
महाभारत में कहा है कि-
'दु:खादुद्विजते सर्व: सुखं सर्वस्‍य चेप्सितम्।'
अर्थात दु:ख से सब लोग भागते हैं एवं सुख को सब लोग चाहते हैं। हम भी इसी स्‍वाभाविक नियम का पालन करते हैं। इन सिद्धांतों से तो आपको प्रकट हो गया होगा कि संसार में आलस्‍य कितना महत्‍व रखता है। इसमें संसार की हानि ही क्‍या? मैंने अपने सिद्धांतों के अनुकूल जीवन व्‍यतीत करने के लिए कई मार्ग सोचे, किंतु अभाग्‍य-वश वह पूर्णतया सफल न हुए, इसमें मेरा दोष नहीं है। इसमें तो संसार ही का दोष है; क्‍योंकि वह इन सिद्धांतों के लिए अभी परिपक्‍व नहीं है। अस्‍तु, वर्तमान अवस्‍था में बिना उद्योग के भी बहुत कुछ सुख मिल सकता है। उद्योग करके सुख प्राप्‍त किया, तो वह किस काम का? आलसी जीवन के लिए सबसे अच्‍छा स्‍थान तो शफाखाने की चारपाई है। एक बार मेरा विचार हुआ था कि किसी बहाने से युद्धक्षेत्र में पहुंच जाऊं तथा वहां पर थोड़ी-बहुत चोट खाकर शफाखाने के किसी पलंग में स्‍थान मिल जाए, किंतु लड़ाई के मैदान तक जाने का कष्‍ट कौन उठावे और बिना गए तो उन पलंगों का उपभोग करना इतना ही दुर्लभ है, जितना पापी के लिए स्‍वर्ग।
भाग्‍य-वश मुझे एक समय आपरेशन कराने की आवश्‍यकता पड़ गई, और थोड़े दिनों के लिए बिना युद्धक्षेत्र गए ही मेरा मनोरथ सिद्ध हो गया; किंतु पुण्‍य-क्षीण होने पर शफाखाना छोड़ना पड़ा। मैं बहुत चाहता था कि मुझे जल्‍दी आराम न हो, किंतु डॉक्‍टर लोग मानने वाले जीव थोड़े ही हैं; अतिशीघ्र आराम कराके मुझे विदा कर दिया, मानो मेरे आराम से स्‍पर्धा होती थी। तब से फिर ऐसे सुअवसर की बाट जोह रहा हूं कि मुझे वहीं पलंग प्राप्‍त हो, जहां पर कि मल-मूत्र त्‍याग करने के लिए भी स्‍थान छोड़ने का कष्‍ट न उठाना पड़े। खैर, अब भी जहां तक होता है, मैं शय्या की सेवा से अपने को विमुख नहीं रखता। मेरा सब कारबार, भोजन एवं कसरत भी उसी सुख-निधान पलंग पर हो जाती है। कभी-कभी नहाने-धोने के‍ लिए उससे वियोग होता है, तो उसको एक आवश्‍यक बुराई समझकर जैसे-तैसे स्‍वीकार कर लेता हूं। धन्‍य हैं तिब्‍‍बत के लोग, जिन्‍हें नहाने का कष्‍ट नहीं उठाना पड़ता। ईश्‍वर ने न जाने मेरा जन्‍म वहां क्‍यों नहीं दिया? तिब्‍‍बत का प्राचीन नाम त्रिविष्‍टप था। शायद इसी सुख के कारण वही बैकुंठ कहलाता है। बैकुंठ को लोग क्‍यों चाहते हैं, क्‍योंकि वहां आलस्‍य-धर्म का पूर्णतया पालन हो सकता है। वहां किसी बात का कष्‍ट ही नहीं उठाना पड़ता। कामधेनु और कल्‍पवृक्ष को ईश्‍वर ने हमारे ही निमित्त निर्माण किया है। आजकल कलियुग में और भी सुभीता हो गया है। अब स्‍वर्ग तक कष्‍ट करने की भी आवश्‍यकता नहीं। कल्‍पवृक्ष बिजली के बटन के रूप में महीतल पर अवतरित हो गया है। बटन दबाइए पंखा चलने लगा, झाड़ू भी लग जावेगा, यहां तक कि पका-पकाया भोजन भी तैयार होकर हाजिर हो जावेगा। बिना परिश्रम के चौथी-पांचवीं मंजिल पर लिफ्ट द्वारा पहुंच जाते हैं। यह सब आलस्‍य की ही आवश्‍यकताओं को पूर्ण करने के लिए संसार में उन्‍नति का क्रम चला है; और उन्‍नति में गौरव मानने वाले लोगों को हम आलसियों का अनुगृहीत होना चाहिए।
उपर्युक्‍त व्‍यवस्‍था से प्रकट हो गया कि आलस्‍य का इस संसार में इतना महत्‍व है। अब मैं आप महानुभावों के शिक्षार्थ एक आदर्श आलस्‍याचार्य का वर्णन कर अपने वक्‍तव्‍य को समाप्‍त करूंगा। क्‍योंकि मैं समझता हूं कि आप लोगों की पीठें शय्या के लिए बहुत ही उत्‍सुक हो रही होंगी।
कहा जाता है कि एक बड़े भारी आलसी थे। वह जहां तक होता था, हाथ क्‍या अपनी उंगली को भी कष्‍ट नहीं देना चाहते थे। उनके मित्र वर्ग ने उनसे तंग आकर सोचा कि इनको जीवित ही कब्र की शांतिमयी निद्रा का सुख प्राप्‍त करा दें। इस इरादे से वह उनको चारपाई पर रख ले चले। रास्‍ते में एक धनाढ्य महिला मिली। उसने जब यह शव-सा जाता हुआ मनुष्‍य देखा, तो उसका कुतूहल बहुत बढ़ा और उसने शय्या-वाहकों से सब वृत्तांत पूछा। उस दयामयी स्‍त्री ने हमारे चरित्र नायक से कहा कि आप मेरे यहां चलने की कृपा कीजिए। मैं आपको बिना कष्‍ट के ही भोजनादि से संतुष्‍ट करती रहूंगी। हमारे आलस्‍याचार्य ने पूछा कि आप मुझे भोजन में क्‍या-क्‍या देवेंगी? उस महिला ने बहुत-से पदार्थों का नाम लिया, उनमें उबले हुए आलू भी थे। इस पर उन्‍होंने कहा कि आलुओं को छीलेगा कौन? (लंच में कभी-कभी बिना छिले ही आलू देते हैं।) इस पर उस स्‍त्री को बहुत झुंझलाहट आई। हमारे आलस्‍याचार्य ने कहा कि मैं तो पहले ही से जानता था कि आप मेरी सहायता न कर सकेंगी और आपने वृथा मेरा समय नष्‍ट किया, नहीं तो मैं अभी तक आटर्यन आनंद-भवन में प्रवेश कर चुका होता। इतना कहकर उन्‍होंने शय्या-वाहकों को आगे चलने की आज्ञा दी।
इस आदर्श को मूर्खता न समझिए। वेदांत का मोक्ष और बौद्ध-निर्वाण इससे भिन्‍न नहीं है। भेद केवल इतना ही है कि इस प्रकार के जीवन को दार्शनिक रूप नहीं दिया गया है। इसलिए आप लोग जो इस सभा के सदस्‍य हैं, मेरे सिद्धांतों से सहमत हो निम्‍नलिखित प्रस्‍तावों को स्‍वीकार करें-
यह सभा प्रस्‍ताव करती है कि भारत-सरकार के कानून-विभाग से यह प्रार्थना की जावे कि ताजीरात-हिंद में एक धारा बढ़ाकर दिन-रात में दस घंटों से कम सोना दंडनीय बनाया जावे, क्‍योंकि कम सोने वाला मनुष्‍य आत्‍म-हत्‍या का दोषी होता है।
यह सभा प्रस्‍ताव करती है कि जो लोग ताश खेलना नहीं जानते हैं अथवा जो लोग तंबाकू न पीते हों, उन लोगों पर आमदनी के 5/- रुपए प्रतिशत के हिसाब से कर लगाने की प्रार्थना की जावे। इससे सरकार की आमदनी बढ़ेगी। इसके सिवा लोगों को ठलुआ-पंथी से अरुचि न होगी।
यह सभा प्रस्‍ताव करती है कि जो लोग इस सभा में रुपया-पैसा कमाने या और कोई उपयोगी बात जिसकी कीमत आने-पाइयों में हो सकती है, कहेंगे, वे इस सभा से बहिष्‍कृत कर दिए जावेंगे।
यह सभा प्रस्‍ताव करती है कि अमेरिका और इंग्‍लैंड की मोटर-कंपनियों से निवेदन किया जावे कि भविष्‍य में जो मोटरें बनवाई जावें वे ऐसी हों कि उनमें पैर पसारकर लेटे हुए सफर कर सकें। इसके अतिरिक्‍त ऐसी छोटी-छोटी मोटर-मशीनें तैयार करवाई जावें कि वे हमारी चारपाइयों में लगाई जा सकें और बटन दबाने से हमारी चारपाई एक स्‍थान से दूसरे स्‍थान तक जा सके। पहले लोगों की कल्‍पना शक्ति अच्‍छी थी। वे वायुयान को उड़नखटोला कहते थे। खटिया नहीं, तो खटोला अवश्‍य ही था। उड़नखटोला के स्‍थान में मोटर-पलंगों की आयोजना संसार की उन्नति के लिए परमावश्‍यक है।
यह सभा प्रस्‍ताव करती है कि सरकार से यह प्रार्थना की जावे कि संसार में सबसे बड़े शांति-स्‍थापनकर्ता को जो नोबिल प्राइज़ मिलती है, वह सबसे बड़े आलसी को दिया जावे; क्‍योंकि आलसियों के बराबर संसार में दूसरा कोई भी शांति-स्‍थापनकर्ता हो ही नहीं सकता। यदि वह इनाम काम करने वाले शक्तिशाली पुरुष को दिया जावेगा, तो वह कैसर की भांति संसार में युद्ध की ज्‍वाला को प्रचंड कर पुरस्‍कार-दाता की आत्‍मा को दु:ख देगा।

साभार -गद्य कोश

मैं हूँ जीरो

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रंग बदलता मौसम 
अपने एहसास की लहरो पर
प्रेरणा  देता है 
इन पलों में
कुछ कर गुजरने की
लेकिन मैं समझ नहीं पाता
कि इन बदलते रंगों  के साथ  
तुम्हे मेरी इतनी फ़िक्र क्यों है...
जबकि मेरी जिंदगी नोटबुक नहीं है ...
लेकिन 
वक़्त  के हर पन्ने पर 
स्वीकारता हूँ 
कि मैं हूँ जीरो

--यशवन्त यश  

प्रेम अनुमति पत्र../ ब्लागर होने का प्रमाणपत्र

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नमी के इंतज़ार में 
तुम्हारे अहसास
और  
मन के उद्गार 
के साथ  
शिक्षित बचपन 
अक्सर 
मुझसे मांगता है 
 प्रेम अनुमति पत्र..
लेकिन ब्लागर होने का प्रमाणपत्र  दिखा कर 
बचने की कोशिश में 
सब सुना देते हैं 
पिडली सी बातें।  

-यशवंत यश
 
  


गर्मियों के दिन -कमलेश्वर

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चुंगी-दफ्तर खूब रँगा-चुँगा है । उसके फाटक पर इंद्रधनुषी आकार के बोर्ड लगे हुए हैं । सैयदअली पेंटर ने बड़े सधे हाथ से उन बोर्ड़ों को बनाया है । देखते-देखते शहर में बहुत-सी ऐसी दुकानें हो गई हैं, जिन पर साइनबोर्ड लटक गए हैं । साइनबोर्ड लगना यानी औकात का बढ़ना । बहुत दिन पहले जब दीनानाथ हलवाई की दूकान पर पहला साइनबोर्ड लगा था तो वहाँ दूध पीने वालों की संख्या एकाएक बढ़ गई थी । फिर बाढ़ आ गई, और नए-नए तरीके और बैलबूटे ईजाद किए गए । ‘ऊँ’ या ‘जयहिन्द’ से शुरु करके ‘एक बार अवश्य परीक्षा कीजिए’ या ‘मिलावट साबित करने वाले को सौ रुपया नगद इनाम’ की मनुहारों या ललकारों पर लिखावट समाप्त होने लगी ।


चुंगी-दफ्तर का नाम तीन भाषाओं में लिखा है । चेयरमैंन साहब बड़े अक्किल के आदमी हैं, उनकी सूझ-बूझ का डंका बजता है, इसलिए हर साइनबोर्ड हिन्दी, उर्दू और अंगरेज़ी में लिखा जाता है । दूर-दूर के नेता लोग भाषण देने आते हैं, देश-विदेश के लोग आगरे का ताजमहल देखकर पूरब की ओर जाते हुए यहाँ से गुज़रते हैं...उन पर असर पड़ता है, भाई । और फिर मौसम की बात - मेले-तमाशे के दिनों में हलवाइयों, जुलाई-अगस्त में किताब-कागज़ वालों, सहालग में कपड़े वालों और खराब मौसम में वैद्य-हकीमों के साइनबोर्डों पर नया रोगन चढ़ता है । शुद्ध देसी घी वाले सबसे अच्छे, जो छप्परों के भीतर दीवार पर गेरू या हिरमिजी से लिखकर काम चला लेते हैं । इसके बगैर काम नहीं चलता । अहमियत बताते हुए वैद्यजी ने कहा- “बगैर पोस्टर चिपकाए सिनेमा वालों का भी काम नहीं चलता । बड़े-बड़े शहरों में जाइए, मिट्टी का तेल बेचने वाले की दुकान पर साइनबोट मिल जाएगा। बड़ी ज़रूरी चीज़ है। बाल-बच्चों के नाम तक साइनबोट हैं, नहीं तो नाम रखने की जरूरत क्या है ? साइनबोट लगाके सुखदेव बाबू कंपौंडर से डॉक्टर हो गए, बेग लेके चलने लगे।”


पास बैठे रामचरन ने एक और नए चमत्कार की खबर दी-- ल उन्होंने बुधईवाला इक्का-घोड़ा खरीद लिया ...
-- हाँकेगा कौन ? -टीन की कुर्सी पर प्राणायाम की मुद्रा में बैठे पंडित ने पूछा।
-- ये सब जेब कतरने का तरीका है --वैद्यजी का ध्यान इक्के की तरफ अधिक था-- मरीज़ से किराया वसूल करेंगे। सईस को बख्शीश दिलाएंगे, बड़ शहरों के डॉक्टरों की तरह । इसी से पेशे की बदनामी होती है । पूछो, मरीज़ का इलाज करना है कि रोब-दाब दिखाना है। अंगरेज़ी आले लगातार मरीज़ की आधी जान पहले सुखा डालते हैं। आयुर्वेदी नब्ज़ देखना तो दूर, चेहरा देख के रोग बता दे ! इक्का-घोड़ा इसमें क्या करेगा ? थोड़े दिन बाद देखना, उनका सईस कंपौंडर हो जाएगा --कहते-कहते वैद्यजी बड़ी घिसी हुई हँसी में हँस पड़े । फिर बोले-- कौन क्या कहे भाई ? डॉक्टरी तो तमाशा बन गई है । वकील मुख्तार के लड़के डॉक्टर होने लगे ! खून और संस्कार से बात बनती है हाथ में जस आता है, वैद्य का बेटा वैद्य होता है । आधी विद्या लड़कपन में जड़ी-बुटियाँ कूटते-पीसते आ जाती है । तोला, माशा, रत्ती का ऐसा अंदाज़ हो जाता है कि औषधि अशुद्ध हो ही नहीं सकती है । औषधि का चमत्कार उसके बनाने की विधि में है । धन्वंतरि” वैद्यजी आगे कहने जा ही रहे थे कि एक आदमी को दुकान की ओर आते देख चुप हो गए, और बैठे हुए लोगों की ओर कुछ इस तरह देखने-गुनने लगे कि यह गप्प लड़ाने वाले फालतू आदमी न होकर उनके रोगी हों ।

आदमी के दुकान पर चढ़ते ही वैद्यजी ने भाँप लिया । कुंठित होकर उन्होंने उसे देखा और उदासीन हो गए । लेकिन दुनिया-दिखावा भी कुछ होता है । हो सकता है, कल यही आदमी बीमार पड़ जाए या इसके घर में किसी को रोग घेर ले । इसलिए अपना व्यवहार और पेशे की गरिमा चौकस रहना चाहिए । अपने को बटोरते हुए उन्होंने कहा, “कहो भाई, राजी-खुशी ।” उस आदमी ने जवाब देते हुए सीरे की एक कनस्टरिया सामने कर दी, “यह ठाकुर साहब ने रखवाई है । मंडी से लौटते हुए लेते जाएँगे । एक-डेढ़ बजे के करीब ।”
-- उस वक्त दुकान बंद रहेगी, --वैद्यजी ने व्यर्थ के काम से ऊबते हुए कहा-- हकीम-वैद्यों की दुकानें दिनभर नहीं खुली रहतीं । व्यापारी थोड़े ही हैं, भाई ! --पर फिर किसी अन्य दिन और अवसर की आशा ने जैसे ज़बरदस्ती कहलावाया- --खैर, उन्हें दिक्कत नहीं होगी, हम नहीं होंगे तो बगल वाली दुकान से उठा लें । मैं रखता जाऊँगा।


आदमी के जाते ही वैद्य जी बोले-- शराब-बंदी से क्या होता है ? जब से हुई तब से कच्ची शराब की भट्टियाँ घर-घर चालू हो गईं । सीरा घी के भाव बिकने लगा। और इन डॉक्टरों को क्या कहिए...इनकी दुकानें हौली बन गई हैं। लैसंस मिलता है दवा की तरह इस्तेमाल करने का, पर खुले आम जिंजर बिकता है। कहीं कुछ नहीं होता । हम भंग-अफीम की एक पुड़िया चाहें तो तफसील देनी पड़ती है।”
-- ज़िम्मेदारी की बात है --पंडित जी ने कहा।
-- अब ज़िम्मेदार वैद्य ही रह गए हैं। सबकी रजिस्टरी हो चुकी, भाई। ऐसे गैर-पंचकल्यानी जितने घुस आए थे, उनकी सफाई हो गई। अब जिसके पास रजिस्टरी होगी वही वैद्यक कर सकता है। चूरन वाले वैद्य बन बैठे थे...सब खतम हो गए । लखनऊ में सरकारी जाँच-पड़ताल के बाद सही मिली है....
वैद्य जी की बात में रस न लेते हुए पंडित उठ गए। वैद्यजी ने भीतर की तरफ कदम बढ़ाए, और औषधालय का बोर्ड लिखते हुए चंदर से बोले-- सफेदा गाढ़ा है बाबू, तारपीन मिला लो। --वे एक बोतल उठा लाए जिस पर अशोकारिष्ट का लेबल गला था।

इसी तरह न जाने किन-किन औषधियों की शरीर रूपी बोतलों में किस-किस पदार्थ की आत्मा भरी है। सामने की अकेली अलमारी में बड़ी-बड़ी बोतलें रखी है; जिन पर तरह-तरह के अरिष्टों और आसवों के नाम चिपके हैं। सिर्फ़ पहली कतार में ये शीशियाँ खड़ी हैं...उनके पीछे ज़रूरत का और सामान है। सामने की मेज़ पर सफेद शीशियों की एक पंक्ति है, जिसमें कुछ स्वादिष्ट चूरन... लवण-भास्कर आदि है, बाकी में जो कुछ भरा है उसे केवल वैद्यजी जानते हैं।

तारपीन का तेल मिलाकर चंदर आगे लिखने लगा- ‘प्रो. कविराज नित्यानंद तिवारी’ ऊपर की पंक्ति ‘श्री धन्वंतरि औषधालय’ स्वयं वैद्यजी लिख चुके थे । सफेदे के वे अच्छर ऐसे लग रहे थे जैसे रुई के फाहे चिपका दिए हों । ऊपर जगह खाली देखकर बैद्यजी बोले, “बाबू, ऊपर जयहिंद लिख देना और यह जो जगह बच रही है, इसमें एक ओर द्राक्षासव की बोतल, दूसरी ओर खरल की तसवीर...आर्ट हमारे पास मिडिल तक था लेकिन यह तो हाथ सधने की बात है।”


चंदर कुछ ऊँघ रहा था । खामखा पकड़ गया। लिखावट अच्छी हो का यह पुरस्कार उसकी समझ नहीं आ रहा था। बोला, “किसी पेंटर से बनवाते ..अच्छा-खासा लिख देता, वो बात नहीं आएगी...अपना पसीना पोंछते हुए उसने कूची नीचे रख दी।
-- पाँच रुपए माँगता था बाबू...दो लाइनों के पाँच रुपए ! अब अपनी मेहनत के साथ यह साइनबोर्ड दस-बारह आने का पड़ा । ये रंग एक मरीज़ दे गया। बिजली कंपनी का पेंटर बदहज़मी से परेशान था । दो खुराकें बनाकर दे दीं, पैसे नहीं लिए । सो वह दो-तीन रंग और थोड़ी-सी बार्निश दे गया। दो बक्से रँग गए ..यह बोट बन गया और अकाध कुर्सी रँग जाएगी...तुम बस इतना लिख दो, लाल रंग का शेड हम देते रहेंगे...हाशिया तिरंगा खिलेगा ?” वैद्यजी ने पूछा और स्वयं स्वीकृति भी दे दी।

चंदर गर्मी से परेशान था। जैसे-जैसे दोपहरी नज़दीक आती जा रही थी, सड़क पर धूल और लू का ज़ोर बढ़ता जा रहा था, मुलाहिज़े में चंदर मना नहीं कर पाया। पंखे से अपनी पीठ खुजलाते हुए बैद्यजी ने उजरत के काम वाले , पटवारियों के बड़े-बड़े रजिस्टर निकालकर फैलाना शुरू किए ।

सूरज की तपिश से बचने के लिए दुकान का एक किवाड़ा भेड़कर बैद्यजी खाली रजिस्टरों पर खसरा-खतौनियों से नकल करने लगे। चंदर ने अपना पिंड छुड़ाने के लिए पूछा,“ये सब क्या है वैद्यजी ?”
वैद्य जी का चेहरा उतर गया, बोले,“खाली बैठने से अच्छा है कुछ काम किया जाए, नए लेखपालों को काम-धाम आता नहीं, रोज़ कानूनगो या नायब साहब से झाड़ें पड़ती हैं... झक मारके उन लोगों को यह काम उजरत पर कराना पड़ता है। उब पुराने घाघ पटवारी कहाँ रहे, जिनके पेट में गँवई कानून बसता था। रोटियाँ छिन गईं बेचारों की; लेकिन सही पूछो तो अब भी सारा काम पुराने पटवारी ही ढो रहे हैं । नए लेखपालों की तनख्वाह का सारा रूपया इसी उजरत में निकल जाता है। पेट उनका भी है...तिया-पाँचा करके किसानों से निकाल लाते हैं। लाएँ न तो खाएँ क्या । दो-तीन लेखपाल अपने हैं, उन्हीं से कभी-कभार हलका-भारी काम मिल जाता है । नकल का काम, रजिस्टर भरते हैं ।

बाहर सड़क वीरान होती जा रही थी । दफ्तर के बाबू लोग जा चुके थे । सामने चुंगी में खस की टट्टियों पर छिड़काव शुरु हो गया । दूर हरहराते पीपल का शोर लू के साथ आ रहा था । तभी एक आदमी ने किवाड़ से भीतर झाँका । वैद्यजी की बात, जो शायद क्षण-दो क्षण बाद दर्द से बोझिल हो जाती, रुक गई । उनकी निगाह ने आदमी को पहचाना और वे सतर्क हो गए । फौरन बोले, “एक बोट आगरा से बनवाया है, जब तक नहीं आता, इसी से काम चलेगा; फुर्सत कहाँ मिलती है जो इस सब में सिर खपाएँ.....” और एकदम व्यस्त होते हुए उन्होंने उस आदमी से प्रश्न किया, “कहो भाई, क्या बात है ?”
--डाकदरी सरटीफिकेट चाहिए.... कोसमा टेशन पर खलासी हैंगे साब ।” रेलवे की नीली वर्दी पहने वह खलासी बोला ।
उसकी ज़रुरत का पूरा अंदाज़ करते हुए वैद्यजी बोले, “हाँ, किस तारीख से कब तक का चाहिए ।”
-- पंद्रह दिन पहले आए थे साब, सात दिन को और चाहिए ।”
कुछ हिसाब जोड़कर वैद्यजी बोले, “देखो भाई, सर्टीफिकेट पक्का करके देंगे, सरकार का रजिस्टर नंबर देंगे, रुपैया चार लगेंगे ।” वैद्यजी ने जैसे खुट चार रुपए पर उसके भड़क जाने का अहसास करते हुए कहा, “अगर पिछला न लो तो दो रुपये में काम चल जाएगा....”


खलासी निराश हो गया । लेकिन उसकी निराशा से अधिक गहन हताशा वैद्यजी के पसीने से नम मुख पर व्याप गई । बड़े निरपेक्ष भाव से खलासी बोला, “सोबरन सिंह ने आपके पास भेजा था ।” उसके कहने से कुछ ऐसा लगा जैसे यह उसका काम न होकर सोबरन सिंह का काम हो । पर वैद्यजी के हाथ नब्ज़ आ गई, बोले, “वो हम पहले ही समझ रहे थे । बगैर जान-पहचान के हम देते भी नहीं, इज़्ज़त का सवाल है । हमें क्या मालूम तुम कहाँ रहे, क्या करते रहे ? अब सोचने की बात है.... विश्वास पर जोखिम उठा लेंगे..... पंद्रह दिन पहले से तुम्हारा नाम रजिस्टर में चढा़एँगे, रोग लिखेंगे... हर तारीख पर नाम चढ़ाएँगे तब कहीं काम बनेगा । ऐसे घर की खेती नहीं है...” कहते-कहते उन्होंने चंदर की ओर मदद के लिए ताका । चंदर ने साथ दिया, “अब उन्हें क्या पता कि तुम बीमार रहे कि डाका डालते रहे... सरकारी मामला है.....”
-- पाँच से कम में दुनिया-छोर का डॉक्टर नहीं दे सकता.....” कहते-कहते वैद्यजी ने सामने रखा लेखपाल वाला रजिस्टर खिसकाते हुए जोश से कहा, “अरे, दम मारने को फुर्सत नहीं है । ये देखो, देखते हो नाम..... । एक-एक रोगी का नाम, मर्ज़, आमदनी.... उन्हीं में तुम्हारा नाम चढ़ाना पड़ेगा । अब बताओ कि मरीजों को देखना ज़्यादा ज़रुरी है कि दो-चार रुपए के लिए सर्टीफिकेट देकर इस सरकारी पचड़े में फँसना ।” कहते हुए उन्होंने तहसील वाला रजिस्टर एकदम बंद करके सामने से हटा दिया और केवल उपकार कर सकने के लिए तैयार होने जैसी मुद्रा बनाकर कलम से कान करोदने लगे ।

रेलवे का खलासी एक मिनट तक बैठा कुछ सोचता रहा । और वैद्यजी को सिर झुकाए अपने काम में मशगूल देख दुकान से नीचे उतर गया । एकदम वैद्यजी ने अपनी गलती महसूस की, लगा उन्होंने बात गलत जगह तोड़ दी और ऐसी तोड़ी कि टूट ही गई । एकाएक कुछ समझ में न आया, तो उसे पुकारकर बोले, “अरे सुनो, ठाकुर सोबरन सिंह से हमारी जैरामजी की कह देना....उनके बाल-बच्चे तो राजी खुशी है ?”
-- हाँ सब ठीक-ठाक हैं।"रुककर खलासी ने कहा । उसे सुनाते हुए वैद्यजी चंदर से बोले, "दस गाँव-शहर के ठाकुर सोबरन सिंह इलाज के लिए यहीँ आते हैं । भई, उनके लिए हम भी हमेशा हाज़िर रहे......"चंदर ने बोर्ड पर आखिरी अक्षर समाप्त करते हुए पूछा, "चला गया"
-- लौट-फिर के आएगा... --वैद्य जी ने जैसे अपने को समझाया, पर उसके वापस आने की अनिवार्यता पर विश्वास करते हुए बोले-- गँवई गाँव के वैद्य और वकील एक ही होते हैं । सोबरन सिंह ने अगर हमारा नाम उसे बताया है तो ज़रुर वापस आएगा... गाँव वालों की मुर्री ज़रा मुश्किल से खुलती है । कहीं बैठके सोचे-समझेगा, तब आएगा...
-- और कहीं से ले लिया, तो? --चंदर ने कहा तो वैद्य जी ने बात काट दी-- नहीं, नहीं बाबू । --कहते हुए उन्होंने बोर्ड की ओर देखा और प्रशंसा से भरकर बोले-- वाह भाई चंदर बाबू! साइनबोट जँच गया....काम चलेगा । ये पाँच रुपए पेंटर को देकर मरीजों से वसूल करना पड़ता । इक्का-घोड़ा और ये खर्चा! बात एक है । चाहे नाक सामने से पकड़ लो, चाहे घुमाकर । सैयदअली के हाथ का लिखा बोट रोगियों को चंगा तो कर नहीं देता । अपनी-अपनी समझ की बात है । --कहते हुए वे धीरे से हँस पड़े । पता नहीं, वले अपनी बात समझकर अपने पर हँसे थे या दूसरों पर ।

तभी एक आदमी ने प्रवेश किया । सहसा लगा कि खलासी आ गया । पर वह पांडु रोगी था । देखते ही वैद्यजी के मुख पर संतोष चमक आया । वे भीतर गए । एक तावीज़ लाते हुए बोले, “अब इसका असर देखो । बीस-पच्चीस रोज़ में इसका चमत्कार दिखाई पड़ेगा ।” पांडु-रोगी की बाँह में तावीज़ बाँधकर और उसके कुछ आने पैसे जेब में डालकर वे गंभीर होकर बैठ गए । रोगी चला गया तो बोले, “यह विद्या भी हमारे पिताजी के पास थी । उनकी लिखी पुस्तकें पड़ी हैं... बहुत सोचता हूँ, उन्हें फिर से नकल कर लूँ..... बड़े अनुभव की बातें हैं । विश्वास की बात है, बाबू! एक चुटकी धूल से आदमी चंगा हो सकता है । होम्योपैथिक और भला क्या है ? एक चुटकी शक्कर । जिस पर विश्वास जम जाए, बस ।”
चंदर ने चलते हुए कहा-- एब तो औषधालय बंद करने का समय हो गया, खाना खाने नहीं जाइएगा ?
-- तुम चलो, हम दम-पाँच मिनट बाद आएँगे । --वैद्यजी ने तहसील वाला काम अपने आगे सरका लिया । दुकान का दरवाज़ा भटखुला करके बैठ गए । बाहर धूप की ओर देखकर दृष्टि चौंधिया जाती थी ।
बगल वाले दुकानदार बच्चनलाल ने दुकान बंद करके, घर जाते हुए वैद्यजी की दुकान खुली देखकर पूछा-- आप खाना खाने नहीं गए...
-- हाँ, ऐसे ही एक ज़रुरी काम है । अभी थोड़ी देर में चले जाएँगे । --वैद्य जी ने कहा और ज़मीन पर चटाई बिछाई; रजिस्टर मेज़ से उठाकर नीचे फैला लिए । लेकिन गर्मी तो गर्मी... पसीना थमता ही न था । रह-रहकर पंखा झलते, फिर नकल करने लगते । कुछ देर मन मारकर काम किया पर हिम्मत छूट गई । उठकर पुरानी धूल पड़ी शीशियाँ झाड़ने लगे । उन्हें लाइन से लगाया । लेकिन गर्मी की दोपहर.... समय स्थिर लगता था । एक बार उन्होंने किवाड़ों के बीच से मुँह निकालकर सड़क की ओर निहारा । एकाध लोग नज़र आए । उन आते-जाते लोगों की उपस्थिति से बड़ा सहारा मिल गया । भीतर आए, बोर्ड का तार सीधा किया और दुकान ने सामने लटका दिया। धन्वंतरि औषधालय का बोर्ड दुकान की गरदन में तावीज़ की तरह लटक गया ए।


कुछ समय और बीता । आखिर उन्होंने हिम्मत की । एक लोटा पानी पिया और जाँझों तक धोती सरका कर मुस्तैदी से काम में जूट गए । बाहर कुछ आहट हुई । चिंता से उन्होंने देखा ।
-- आज आराम करने नहीं गए वैद्य जी । --घर जाते हुए जान-पहचान के दुकानदार ने पूछा ।
-- बस जाने की सोच रहा हूँ... कुछ काम पसर गया था, सोचा, करता चलूँ... -कहकर वैद्य जी दीवार से पीठ टिका कर बैठ गए । कुरता उतारकर एक ओर रख दिया । इकहरी छत की दुकान आँवे-सी तप रही थी । वैद्यजी की आँखें बुरी तरह नींद से बोझिल हो रही थीं । एक झपकी आ गई....कुछ समय ज़रुर बीत गया था । नहीं रहा गया तो रजिस्टरों का तकिया बनाकर उन्होंने पीठ सीधी की । पर नींद....आती और चली जाती, न जाने क्या हो गया था ।
सहसा एक आहट ने उन्हें चौंका दिया । आँखें खोलते हुए वे उठकर बैठ गए । बच्चनलाल दोपहर बिताकर वापस आ गया था ।
-- अरे, आज आप अभी तक गए ही नहीं... --उसने कहा ।
वैद्य जी ज़ोर-ज़ोर से पंखा झलने लगे । बच्चनलाल ने दुकान से उतरते हुए पूछा-- किसी का इंतज़ार है क्या ?
-- हाँ, एक मरीज़ आने को कह गया था... अभी तक आया नहीं --वैद्य जी ने बच्चनलाल को जाते देखा तो बात बीच में ही तोड़कर चुप हो गए और अपना पसीना पोंछने लगे ।

साभार-गद्य कोश 

"चन्दा देता है विश्राम"

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रंग मुहब्बत का ........


बुरा तो मानो... होली है!

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रखती हूँ मैं भी आम स्त्री का बुत खुद में ........

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क्या आयेगा सवेरा?

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संस्कृति रक्षण में महिला सहभागिता

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नमस्ते !
हलचल की सोमवारीय प्रस्तुति मे आपका स्वागत है इन लिंक्स के साथ-

  



 

अंत मे सुनिए यह गाना-

 

हैंग-ओवर और आम लोग

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