कल का दिन... मैं काफी व्यस्त थी
और व्यस्तता में से
समय चुराकर ये पोस्ट बनाई है
कल एकादशी थी...
पितृ-श्राद्ध दिवस
पिता जी प्रसन्न हुए..
वैसे भी वे नाराज कभी नहीं रहे
-यशोदा
चलिये देखते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ........
आशीष नैथानी की कविता पहली बार नयी पुरानी हलचल में
तुम्हारा यह मौन संघर्ष
उन लाखों लोगों को सुकून की छाँव देता है
हौसला देता है जीने का
लड़ने का विश्वास
होने का लोकतान्त्रिक अहसास
उन सभी की एक ही मुखर आवाज़ है
‘इरोम चानू शर्मीला’ |
“जीवन कैसा होता है ?”
कुछ कहीं सुना हुआ
जैसा कुछ ऐसा
नजर आता है
जिसपर सोचना
शुरु करते ही
सब कुछ उल्टा पुल्टा
होने लग जाता है
मैंने कहा प्रेम और
उसने मेरा नाम लिख दिया ....
अश्को के मोतियों से
मेरे काँधे को भिगो दिया ....
रे मन
प्रेम पर ठहरी हैं
झील सी गहरी हैं
तोरे मन की बतियाँ ......
कितना भागे जग से आगे।
टूटे पल—छल जीवन धागे।
किसको पकड़े किसको छोड़े।
कदम—कदम पर आग बिछी है।
राह—राह में शूल सजी है।
ले गया दिल में दबाकर राज़ कोई,
पानियों पर लिख गया आवाज़ कोई.
बांधकर मेरे परों में मुश्किलों को,
हौसलों को दे गया परवाज़ कोई.
धुंधला रहे हैं किताबो में लिखे हर्फ
कांप रहे हाथ कटोरी को थामते हुए
लकीरे बना चुकी हैं अपना साम्राज्य
पेशानी और आँखों के इर्द गिर्द
तुम्हारी उँगलियों में उलझती....
मेरी उंगलिया..
मेरी उलझनों को सुलझा रही है....
सवाल जो करती...
मेरी उंगलिया,
तो कितने ही बहाने से....
ये बहला रही है...
...लिखती हूँ
मिटा देती हूँ
खुद अपने लफ्ज़ों को...
जग चलता है अपनी राह
उसने लीक छोड़ दी है,
है मंजूर अकेले रहना
हर जंजीर तोड़ दी है !
मैंने तुम्हे चाहा
और तुमने
मुझे चुभन दी
मैंने सोचा
तुम काँटों में घिरे हो
तुम्हे नर्म अहसास दूँ
अटूट बंधन
कल रात भर आसमान रोता रहा
धरती के कंधे पर सिर रख कर
इतना फूट फूट कर रोया कि
धरती का तन मन
सब भीग गया
शब्द बिखरे पड़े हैं
इर्द -गिर्द
मेरे और तुम्हारे।
चुप तुम हो,
चुप मैं भी तो हूँ..
और अंत में
काजल कार्टून
ले, बंगला खाली करा के देख...
और व्यस्तता में से
समय चुराकर ये पोस्ट बनाई है
कल एकादशी थी...
पितृ-श्राद्ध दिवस
पिता जी प्रसन्न हुए..
वैसे भी वे नाराज कभी नहीं रहे
-यशोदा
चलिये देखते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ........
आशीष नैथानी की कविता पहली बार नयी पुरानी हलचल में
तुम्हारा यह मौन संघर्ष
उन लाखों लोगों को सुकून की छाँव देता है
हौसला देता है जीने का
लड़ने का विश्वास
होने का लोकतान्त्रिक अहसास
उन सभी की एक ही मुखर आवाज़ है
‘इरोम चानू शर्मीला’ |
“जीवन कैसा होता है ?”
कुछ कहीं सुना हुआ
जैसा कुछ ऐसा
नजर आता है
जिसपर सोचना
शुरु करते ही
सब कुछ उल्टा पुल्टा
होने लग जाता है
मैंने कहा प्रेम और
उसने मेरा नाम लिख दिया ....
अश्को के मोतियों से
मेरे काँधे को भिगो दिया ....
रे मन
प्रेम पर ठहरी हैं
झील सी गहरी हैं
तोरे मन की बतियाँ ......
कितना भागे जग से आगे।
टूटे पल—छल जीवन धागे।
किसको पकड़े किसको छोड़े।
कदम—कदम पर आग बिछी है।
राह—राह में शूल सजी है।
ले गया दिल में दबाकर राज़ कोई,
पानियों पर लिख गया आवाज़ कोई.
बांधकर मेरे परों में मुश्किलों को,
हौसलों को दे गया परवाज़ कोई.
धुंधला रहे हैं किताबो में लिखे हर्फ
कांप रहे हाथ कटोरी को थामते हुए
लकीरे बना चुकी हैं अपना साम्राज्य
पेशानी और आँखों के इर्द गिर्द
तुम्हारी उँगलियों में उलझती....
मेरी उंगलिया..
मेरी उलझनों को सुलझा रही है....
सवाल जो करती...
मेरी उंगलिया,
तो कितने ही बहाने से....
ये बहला रही है...
...लिखती हूँ
मिटा देती हूँ
खुद अपने लफ्ज़ों को...
जग चलता है अपनी राह
उसने लीक छोड़ दी है,
है मंजूर अकेले रहना
हर जंजीर तोड़ दी है !
मैंने तुम्हे चाहा
और तुमने
मुझे चुभन दी
मैंने सोचा
तुम काँटों में घिरे हो
तुम्हे नर्म अहसास दूँ
अटूट बंधन
कल रात भर आसमान रोता रहा
धरती के कंधे पर सिर रख कर
इतना फूट फूट कर रोया कि
धरती का तन मन
सब भीग गया
शब्द बिखरे पड़े हैं
इर्द -गिर्द
मेरे और तुम्हारे।
चुप तुम हो,
चुप मैं भी तो हूँ..
और अंत में
काजल कार्टून
ले, बंगला खाली करा के देख...